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गुरूवार, मई 2, 2024
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भारत में मवेशियों की नस्ल व उनकी विशेषताएं

भारत में मवेशियों की नस्ल जो अक्सर पहुपालन में डेयरी के लिए या अन्य कार्यों के लिए पाली जाती हैं | नीचे कुछ मवेशियों की नस्लें उनकी विशेषताओं के साथ दी गई है, आप अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल इनमें से पशुपालन के लिए चुमाव कर सकते हैं |

दुधारू नस्ल

सहिवाल

  • मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार व मध्य प्रदेश में पाया जाता है।
  • दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में 1350 किलोग्राम
  • व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 2100 किलो ग्राम
  • प्रथम प्रजनन की उम्र – 32-36 महीने
  • प्रजनन की अवधि में अंतराल – 15 महीने

गीर

  • दक्षिण काठियावाड क़े गीर जंगलों में पाये जाते हैं।
  •  दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 900 किलोग्राम
  • व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 1600 किलोग्राम

थारपकर

  • मुख्यतः जोधपुर, कच्छ व जैसलमेर में पाये जाते हैं
  • दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 1660 किलोग्राम
  •   व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 2500 किलोग्राम

करन फ्राइ

करण फ्राइ का विकास राजस्थान में पाई जाने वाली थारपारकर नस्ल की गाय को होल्स्टीन फ्रीज़ियन नस्ल के सांड के वीर्याधान द्वारा किया गया। यद्यपि थारपारकर गाय की दुग्ध उत्पादकता औसत होती है, लेकिन गर्म और आर्द्र जलवायु को सहन करने की अपनी क्षमता के कारण वे भारतीय पशुपालकों के लिए महत्वपूर्ण होती हैं।

नस्ल की विशेषताएं

  • इस नस्ल की गायों के शरीर, ललाट और पूंछ पर काले और सफेद धब्बे होते हैं। थन का रंग गहरा होता है और उभरी हुई दुग्ध शिराओं वाले स्तनाग्र पर सफेद चित्तियां होती है।
  • करन फ्राइ गायें बहुत ही सीधी होती हैं। इसके मादा बच्चे नर बच्चों की तुलना में जल्दी वयस्क होते हैं और 32-34 महीने की उम्र में ही गर्भधारण की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं।
  • गर्भावधि 280 दिनों की होती है। एक बार बच्चे देने के बाद 3-4 महीनों में यह पुन: गर्भधारण कर सकती है। इस मामले में यह स्थानीय नस्ल की गायों की तुलना में अधिक लाभकारी सिद्ध होती हैं क्योंकि वे प्राय: बच्चे देने के 5-6 महीने बाद ही दुबारा गर्भधारण कर सकती हैं।
  • दुग्ध उत्पादन : करन फ्राइ नस्ल की गायें साल भर में लगभग 3000 से 3400 लीटर तक दूध देने की क्षमता रखती हैं। संस्थान के फार्म में इन गायों की औसत दुग्ध उत्पादन क्षमता 3700 लीटर होती है, जिसमें वसा की मात्रा 4.2% होती है। इनके दूध उत्पादन की अवधि साल में 320 दिन की होती है।
  • अच्छी तरह और पर्याप्त मात्रा में हरा चारा और संतुलित सांद्र मिश्रित आहार उपलब्ध होने पर इस नस्ल की गायें प्रतिदिन 15-20 लीटर दूध देती हैं। दूध का उत्पादन बच्चे देने के 3-4 महीने की अवधि के दौरान प्रतिदिन 25-30 लीटर तक होता है।
  • उच्च दुग्ध उत्पादन क्षमता के कारण ऐसी गायों में थन का संक्रमण अधिक होता है और साथ ही उनमें खनिज पदार्थों की भी कमी पाई जाती है। समय पर पता चल जाने से ऐसे संक्रमणों का इलाज आसानी से हो जाता है।
  • बछड़े की कीमत : तुरंत ब्यायी हुई गाय की कीमत दूध देने की इसकी क्षमता के अनुसार 20,000 रुपये से 25,000 रुपए तक हो सकती है।

लाल सिंधी

  • मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, तमिल नाडु, केरल व उडीसा में पाये जाते हैं।
  • दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 1100 किलोग्राम
  • व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 1900 किलोग्राम

दुधारू जुताई कार्य में प्रयुक्त नस्ल

ओन्गोले

  • मुख्यतः आन्ध्र प्रदेश के नेल्लोर कृष्णा, गोदावरी व गुन्टूर जिलों में मिलते है।
  • दुग्ध उत्पादन- 1500 किलोग्राम
  • बैल शक्तिशाली होते है व बैलगाडी ख़ींचने व भारी हल चलाने के काम में उपयोगी होते है।

हरियाणा

  • मुख्यतः हरियाणा के करनाल, हिसार व गुडगांव जिलों में व दिल्ली तथा पश्चिमी मध्य प्रदेश में मिलते है।
  • दुग्ध उत्पादन- 1140 से 4500 किलोग्राम
  • बैल शक्तिशाली होते हैं व सडक़ परिवहन तथा भारी हल चलाने के काम में उपयोगी होते है।

कांकरेज

  • मुख्यतः गुजरात में मिलते हैं।
  • दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 1300 किलोग्राम
  • व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 3600 किलोग्राम
  • प्रथम बार प्रजनन की उम्र- 36 से 42 महीने
  • प्रजनन की अवधि में अंतराल – 15 से 16 महीने
  • बैल शक्तिशाली, सक्रिय व तेज़ होते है। हल चलाने व परिवहन के लिये उपयोग किये जा सकते है।

देओनी

  • मुख्यतः आंध्र प्रदेश के उत्तर दक्षिणी व दक्षिणी भागों में मिलता है।
  • गाय दुग्ध उत्पादन के लिये अच्छी होती है व बैल काम के लिये सही होते हैं।

डेयरी नस्लें

जर्सी

  • प्रथम बार प्रजनन की उम्र- 26-30 महीने
  • प्रजनन की अवधि में अंतराल- 13-14 महीने
  • दुग्ध उत्पादन- 5000-8000 किलोग्राम
  • डेयरी दुग्ध की नस्ल रोज़ाना 20 लीटर दूध देती है जबकि संकर नस्ल की जर्सी 8 से 10 लीटर प्रतिदिन दूध देती है।
  • भारत में इस नस्ल को मुख्यतः गर्म व आर्द्र क्षेत्रों में सही पाया गया है।

होल्स्टेन फेशियन

  • यह नस्ल हॉलैंड क़ी है।
  • दुग्ध उत्पादन- 7200-9000 किलो ग्राम
  • यह नस्ल दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में सबसे उम्दा नस्ल मानी गई है। औसतन यह प्रतिदिन 25 लीटर दूध देती है जबकि एक संकर नस्ल की गाय 10 से 15 लीटर दूध देती है।
  • यह तटीय व डेल्टा भागों में भी अच्छी तरह से रह सकती है।

भैंसों की नस्लें

मुर्रा

  • हरियाणा, दिल्ली व पंजाब में मुख्यतः पाई जाती है।
  • दुग्ध उत्पादन- 1560 किलोग्राम
  • इसका औसतन दुग्ध उत्पादन 8 से 10 लीटर प्रतिदिन होता है जबकि संकर मुर्रा एक दिन में 6 से 8 लीटर दूध देती है।
  • ये तटीय व कम तापमान वाले क्षेत्रों में भी आसानी से रह लेती है।

सुरती

  • गुजरात
  • 1700 से 2500 किलोग्राम

ज़फराबादी

  • गुजरात का काठियावाड जिला
  • 1800 से 2700 किलोग्राम

दुधारू नस्लों के चुनाव के लिये सामान्य प्रक्रिया

बछड़ो के झुंड से बछड़ा चुनना व मवेशी  मेला से गाय चुनना भी कला है। एक दुधारू किसान को अपना गल्ला बनाकर काम करना चाहिये। दुधारू गाय को चुनने के लिये निम्न बिंदुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिये-

  • जब भी किसी पशु मेले से कोई मवेशी खरीदा जाता है तो उसे उसकी नस्ल की विशेषताओं और दुग्ध उत्पादन की क्षमता के आधार पर परखा जाना चाहिये।
  • इतिहास और वंशावली देखी जानी चाहिये क्योंकि अच्छे कृषि फार्मों द्वारा ये हिसाब रखा जाता है।
  • दुधारू गायों का अधिकतम उत्पादन प्रथम पांच बार प्रजनन के दौरान होता है। इसके चलते आपका चुनाव एक या दो बार प्रजनन के पश्चात् का होना चाहिये, वह भी प्रजनन के एक महीने बाद।
  • उनका लगातार दूध निकाला जाना चाहिये जिससे औसत के आधार पर उसकी दूध देने की क्षमता का आकलन किया जा सके।
  • कोई भी आदमी गाय से दूध निकालने में सक्षम हो जाये और उस दौरान गाय नियंत्रण में रहे।
  • कोई भी जानवर अक्टूबर व नवंबर माह में खरीदा जाना सही होता है।
  • अधिकतम उत्पादन प्रजनन के 90 दिनों तक नापा जाता है।

अधिक उत्पादन देने वाली गाय नस्ल की विशेषताएं

  • आकर्षक व्यक्तित्व मादाजनित गुण, ऊर्जा, सभी अंगों में समानता व सामंजस्य, सही उठान।
  • जानवर के शरीर का आकार खूँटा या रूखानी के समान होनी चाहिये।
  • उसकी आंखें चमकदार व गर्दन पतली होनी चाहिये।
  • थन पेट से सही तरीके से जुडे हुए होने चाहिये।
  • थनों की त्वचा पर रक्त वाहिनियों की बुनावट सही होनी चाहिये।
  • चारो थनों का अलग-अलग होना व सभी चूचक सही होनी चाहिये।

व्यावसायिक डेयरी फार्म के लिये सही नस्ल का चुनाव- सुझाव

  • भारतीय स्थिति के अनुसार किसी व्यावसायिक डेयरी फार्म में न्यूनतम 20 जानवर होने चाहिये जिनमें 10 भैंसें हो व 10 गायें। यही संख्या 50:50 अथवा 40:60 के अनुपात से 100 तक जा सकती है।  इसके पश्चात् आपको अपने पशुधन का आकलन करने के बाद बाज़ार मूल्य के आधार पर आगे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिये।
  • मध्य वर्गीय, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक भारतीय जनमानस सामन्यतः कम वसा वाला दूध ही लेना पसंद करते है।  इसके चलते व्यावसायिक दार्म का मिश्रित स्वरूप उत्तम होता है। इसमें संकर नस्ल, गायें और भेंसे एक ही छप्पर के नीचे अलग अलग पंक्तियों में रखी जाती है।
  • जितना जल्दी हो सके, बाज़ार की स्थिति देखकर तय कर लें कि आप दूध को मिश्रित दूध के व्यापार के लिये किस से स्थान का चुनाव करेंगे। होटल भी आपके ग्राहकी का 30 प्रतिशत हो सकते है जिन्हे भैंस का शुद्ध दूध चाहिये होता है जबकि अस्पताल व स्वास्थ्य संस्थान शुद्ध गाय का दूध लेने को प्राथमिकता देते है।

व्यावसायिक फार्म के लिये गाय अथवा भैंस की नस्ल का चुनाव करना

गाय

  • बाज़ार में अच्छी नस्ल व गुणवत्ता की गायें उपलब्ध है व इनकी कीमत प्रतिदिन के दूध के हिसाब से 1200 से 1500 रूपये प्रति लीटर होती है। उदाहरण के लिये 10 लीटर प्रतिदिन दूध देनेवाली गाय की कीमत 12000 से 15000 तक होगी।
  • यदि सही तरीके से देखभाल की जाए तो एक गाय 13 – 14 महीनों के अंतराल पर एक बछडे क़ो जन्म दे सकती है।
  • ये जानवर आज्ञाकारी होते है व इनकी देखभाल भी आसानी से हो सकती है। भारतीय मौसम की स्थितियों के अनुसार होलेस्टिन व जर्सी का संकर नस्ल सही दुग्ध उत्पादन के लिये उत्तम साबित हुए है।
  • गाय के दूध में वसा की मात्रा 3.5 से 5 प्रतिशत के मध्य होता है व यह भैंस के दूध से कम होता है।

भैंस

  • भारत में हमारे पास सही भैंसों की नस्लें है, जैसे मुर्रा और मेहसाणा जो कि व्यावसायिक फार्म की दृष्टि से उत्तम है।
  • भैंस का दूध बाज़ार में मक्खन व घी के उत्पादन के लिये मांग में रहता है क्योंकि इस दूध में गाय की दूध की अपेक्षा वसा की मात्रा अधिक होती है। भैंस का दूध, आम भारतीय परिवार में पारंपरिक पेय, चाय बनाने के लिये भी इस्तेमाल होता है।
  • भैंसों को फसलों के बाकी रेशों पर भी पोषित किया जा सकता है जिससे उनकी पोषणलागत कम होती है।
  • भैंस में परिपक्वता की उम्र देरी से होती है और ये 16-18 माह के अंतर से प्रजनन करती है। नर भैंसे की कीमत कम होती है।
  • भैंसो को ठन्डा रखने के साधनों की आवश्यकता होती है, जैसे ठन्डे पानी की टंकी, फुहारा या फिर पंखा आदि।

अधिक जानकारी के लिए किसान समाधान एंड्राइड एप्प डाउनलोड करें

डेयरी पशु प्रजनन शाखा,राष्ट्रीय डेयरी शोध संस्थान, करनाल

बुआई हेतु बीज खरीदने से पूर्व जाने बीजों के विषय में महत्वपूर्ण बातें

बुआई हेतु बीज खरीदने से पूर्व जाने बीजों के विषय में महत्वपूर्ण बातें

किसानों को कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए हमेशा उत्तम गुणों वाले बीज ही उपयोग करना चाहिए I भारत में भारत सरकार की राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड, राज्य बीज एवं फार्म विकास निगम  द्वारा एवं अन्य कंपनियों एवं किसानों के द्वारा उत्तम कोटि के बीजों का उत्पादन किया जाता है I सभी किसान भाई बीज खरीदते समय निम्न बातों का ध्यान रखें I

उत्तम बीज को निम्न तीन समूहों में रखा गया है- प्रजनक बीज आधार बीज और प्रमाणित बीज।
  • प्रजनक बीज वह वर्ग है जो आनुवांशिक रूप से शुद्ध रहता है तथा इसको प्रजनक (ब्रीडर) की देखरेख में तैयार किया जाता है ताकि उसकी गुणवत्ता ठीक रहे। इन बीजों की थैलियों पर पीले रंग का टैग (लेबिल) लगा होता है।
  • आधार बीज को बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा प्रजनक बीज से तैयार किया जाता है। इस बीज की थैलियों पर सफेद रंग का टैग लगा रहता है।
  • प्रमाणित बीज को भी बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा आधार बीज से पैदा कराया जाता है। यह कार्य प्रत्येक बीज एवं फार्म विकास निगम या उन्नतशील किसानों द्वारा बीज पैदा करने की मानक विधियों के अनुसार किया जाता है। प्रमाणित बीज के थैलों पर नीले रंग का लेबिल लगा रहता है। प्रमाणित बीज को किसानों द्वारा व्यावसायिक फसल के उत्पादन के लिये उपयोग में लाया जाता है।

किसान भाई स्वयं ही बीजों का परीक्षण निम्न तरीकों से कर सकते हैं

बीज शुद्धता व अंकुरण परीक्षण

अच्छे उत्पादन के लिये आवश्यक है कि बीज शुद्ध हो और उसका अंकुरण प्रतिशत मानक स्तर से कम न हो। बोने के काम में लाने वाला बीज एक ही प्रजाति का हो, इसके लिए उपलब्ध बीज में से 4-5 अलग-अलग जगह से नमूने लेकर यह सुनिश्चित करें कि इसमें किसी दूसरी फसल के बीज घास चारा आदि न मिलें हों साथ ही यह भी देखें कि उसी किस्म के अपरिपक्व, टूटे हुये बीज न हों।
बीजों की अंकुरण क्षमता मानक स्तर की है या नहीं इसके लिये अंकुरण परीक्षण आवश्यक है। अंकुरण परीक्षण के लिये कम से कम 400 बीजों का 3-4 आवृत्ति में परीक्षण करना चाहिए। अंकुरण परीक्षण निम्न प्रकार से किया जा सकता है।

पेपर द्वारा

3-4 पेपर एक के ऊपर एक रखकर सतह बनायें और उन्हें पानी से भिगोये। फिर सतह पर सौ-सौ बीज गिनकर लाइन में रखें तथा पेपर को मोड़कर रख दें। पेपर को समय-समय पर पानी डालकर नम बनाये रखें। तीन-चार दिन बाद अंकुरित बीजों को गिन लें।

बीजोपचार क्या होता है एवं बीजोपचार किस प्रकार करें

बीज शुद्धता व अंकुरण परीक्षण के पश्चात् बोनी से पूर्व बीजोपचार अति आवश्यक है। यह फसलों को रोगों से होने वाली हानि को रोककर अंकुरण क्षमता भी बढ़ाता है। बीज की बुवाई के बाद रोगजनक अपनी प्रकृति के अनुसार बीज को खेत में अंकुरण के पहले या उसके तुरंत बाद आक्रमण कर हानि पहुंचाते हंै या बाद में पक्षियों पर पर्ण दाग जड़ पर सडऩ एवं बालियों पर कंडवा रोग पैदा करते हैं। अगर हम बीजोपचार द्वारा बीजोढ़ रोगजनक को खेत में जाने से रोक दें तो रोग से होने वाली हानि को काफी हद तक कम किया जा सकता है। बीजोपचार में प्रयुक्त कारकों के आधार पर बीजोपचार के तरीकों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है।

भौतिक बीजोपचार

इसके अंतर्गत गर्म पानी सूर्य ऊर्जा तथा विकिरणों द्वारा बीजोपचार किया जाता है। बीज के अंदर रहने वाले रोग जनकों जैसे गेहंू के कण्डवा के लिये सूर्य के ताप से बीजों को उपचारित करते है। इसके लिये बीज को 4 घंटे पानी में भिगोने के बाद दोपहर की गर्मी में पक्के फर्श या टीन पर पतली तह में डालकर सुखाते हैं।

रोग पृथककरण विधि से बीज या पौध अवशेषों को बीज से अलग करके नष्ट करते है। इसके लिये बीज को 5 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोते हैं जिससे रोगी बीज ऊपर तैर आते है इनको जाली की सहायता से निकाल कर नष्ट कर देते हैं और शेष बीज को साफ पानी से धोकर व सुखाकर बोने के काम में लेते हैं। यह विधि ज्वार, वाजरा के अर्गट एवं गेहूं के सेहू रोग को रोकने में सहायक होती है। विकिरण विधि में विभिन्न तीव्रता की एक्स किरणों या अल्ट्रावायलेट किरणों को अलग-अलग समय तक बीजों पर से गुजारा जाता है जिससे बीज की सतह या उसके अंदर पाये जाने वाले रोगजनक नष्ट हो जाते हैं।

रसायनिक बीजोपचार

यह बीज जन्य रोगों की रोकथाम की सबसे आसान, सस्ती और लाभकारी विधि है। फफूंदनाशी रसायन बीज जन्य रोगाणुओं को मार डालता है अथवा उन्हे फैलने से रोकता है। यह एक संरक्षण कवच के रूप में बीज के चारों ओर एक घेरा बना लेता है जिससे बीज को रोगजनक के आक्रमण एवं सडऩे से रोका जा सकता है। सन् 1968 में बेनोमिल की सर्वांगी फफूंदनाशक के रूप में खोज के पश्चात् इस क्षेत्र में एक नये युग की शुरूआत हुई। तत्पश्चात् कार्बोक्सिन, मेटालेक्सिन व दूसरे सर्वांगी फफूंदनाशक बाजार में आये।

अदैहिक फफूंदनाशक जैसे- थायरम, कैप्टान, डायथेन एम-45, की 2.5 से 3.0 ग्राम मात्रा जबकि दैहिक फफूंदनाशकों जैसे- कार्बेन्डाजिम, वीटावैक्स की 1.5 से 2.0 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज के उपचार के लिए पर्याप्त होती है। ऐसी फसलों में किया जाता है जिनके कंद, तना आदि बीज के रूप मे प्रयोग किये जाते है जैसे गन्ना, आलू, अदरक, हल्दी, लहसुन, अरबी आदि। इनको लगाने के पूर्व दवा के निश्चित संाद्रता वाले घोल में फसल एवं रोग की प्रकृति के अनुसार 10 से 30 मिनट तक डुबाकर रखते हैं।

पादप रोगों के नियंत्रण हेतु जैविक बीजोपचार

जैविक पौध रोग नियंत्रण कवकीय या जीवाणुवीय उत्पत्ति के होते है जो मृदा फफूंदों जैसे – फ्यूजेरियम, राइजोक्टोनिया, स्क्लेरोशियम, मैक्रोफोमिना इत्यादि के द्वारा होने वाली बीमारियों जैसे- जड़ सडऩ, आद्र्रगलन, उक्ठा, बीजसडऩ, अंगमारी आदि को नियंत्रित करते है। ट्राइकोडर्मा विरिडी, ट्राइकोडर्मा हारिजिनेयम, पेनिसिलीन, ग्लोमस प्रजाति आदि प्रमुख कवकीय प्रकृति के रोग नियंत्रक है जबकि बेसिलस सबटिलिस, स्यूडोमोनास, एग्रोवैक्टिीरियम आदि जीवाणुवीय प्रकृति के जैव नियंत्रण है जिनको बीज उपचारक के रूप में उपयोग किया जा रहा है।

जैव नियंत्रक हानिकारक फफूंदियों के लिये या तो स्थान, पोषक पदार्थ, जल, हवा आदि की कमी कर देते है या इनके द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रतिजैविक पदार्थो का स्त्रावण होता है जो रोगजनक की वृद्धि को कम करते है अथवा उसे नष्ट करते है जबकि कुछ जैव नियंत्रक रोगकारक के शरीर से चिपककर उसकी बाहरी परत को गलाकर उसके अंदर का सारा पदार्थ उपयोग कर लेते है जिससे रोगकारक जीव नष्ट हो जाता है। जैविक फफूंदनाशियों की 5-10 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति कि.ग्रा. बीज का उपचार करने से यदि मृदा में रोगजनक का प्राथमिक निवेश द्रव्य अधिक है तथा रोग का प्रकोप पूर्व में अधिक तीव्रता से हुआ है ऐसी स्थिति में मृदा उपचार अधिक कारगार रहता है।

मृदा उपचार हेतु 50 कि.ग्रा. गोबर की पकी खाद में एक कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा अथवा बेसिलस सवटिलस या स्यूडोमोनास को मिलाकर छाया में 10 दिनों तक नम अवस्था में रखते है। तत्पश्चात् एक एकड़ क्षेत्र में फैलाकर जमीन में मिलाते हैं।

सीड बॉक्स विधि

इस विधि में लकड़ी के बॉक्स में रेत बिछाकर उस पर दानों को लाइन में रखें और फिर भुरभुरी मिट्टी की 1.5 सेमी. की तह लगा दें।
रेत को नम बनाये रखने के लिये समय-समय पर पानी डालते रहें। लगभग 4-5 दिनों में अंकुर मिट्टी की सतह पर आ जाते हैं।
अंकुरित दानों की संख्या X 100
अंकुरण प्रतिशत =

अंकुरण के लिये रखे गये कुल दानों की संख्या

बीज अंकुुरण क्षमता कम से कम 80-90 प्रतिशत होनी चाहिए। परीक्षण के समय तापक्रम फसल के अनुसार होनी चाहिए। अंकुरण क्षमता परीक्षण में पहले सामान्य पौधे और फिर असामान्य पौधे फिर बीज तत्पश्चात् उन अंकुरित बीजों की गिनती की जाती है।
अंकुरित दानों की संख्या X 100
अंकुरण प्रतिशत के आधार पर =
प्रति हे. बीज की मात्रा अंकुरण प्रतिशत

दुग्ध उत्पादन को लाभदायक बनाने के लिए भारत सरकार ने शुरू की नई योजना

 राष्ट्रीय बोवाईन उत्पादकता मिशन :-किसानों के लिए दुग्‍ध उत्‍पादन को और भी लाभदायक बनाने के लिए भारत सरकार ने एक नई योजना राष्ट्रीय बोवाईन उत्पादकता मिशन को 825 करोड़ रुपए के आबंटन के साथ अनुमोदित किया है

विश्व दुग्ध दिवस पर आयोजित समारोह

भारत 15 वर्षों से दुग्‍ध उत्‍पादन के क्षेत्र में विश्‍व अग्रणी हैं और यह सफलता छोटे डेयरी किसानों, दुग्‍ध उत्‍पादकों, प्रसंस्‍करणकर्ताओं, नियोजकों, संस्‍थानों तथा अन्‍य सभी पणधारियों के कारण है। उन्होंने आगे कहा कि दूध उत्पादन में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन अभी भी मीलों  का सफर तय करना है ताकि हम देश के हर बच्‍चे को दूध सहित पर्याप्‍त पोषण दे सकें।  कृषि मंत्री ने यह बात आज पूसा, नई दिल्ली में विश्व दुग्ध दिवस पर आयोजित समारोह में कही।

कृषि मंत्री ने कहा कि पिछले वर्षों में 2011-14 में 398 मिलियन टन दूध का उत्पादन हुआ था लेकिन 2014-17 में यह 465.5 मिलियन टन हो गया जो कि 16.9% की वृद्धि है। इसी तरह 2011-14 में किसानों की आमदनी रु. 29 प्रति लीटर थी जो 2014-17 में  रु. 33 प्रति लीटर हो गयी जो कि 13.79% की वृद्धि है।

आंध्र प्रदेश का राष्‍ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्र लगभग तैयार है।   कृषि मंत्री ने देशी नस्लों के बारे में बताया कि उष्‍मा–साध्‍य तथा रोग प्रतिरोधी होने के अलावा गायों की देशी नस्‍लें ए 2 टाइप का दूध उत्‍पादित करने के लिए जानी जाती हैं जो विभिन्‍न पुरानी स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍याओं, जैसे ह्दय तथा रक्‍त वाहिकाओं संबंधी मधुमेह तथा स्‍नायु संबंधी विकारों से बचाने के अलावा कई अन्‍य स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी लाभ प्रदान करता है। उन्होंने कहा देश में ए 2 ए 2 दूध को अलग से बेचे जाने की आवश्‍यकता है।

राष्‍ट्रीय गौकुल मिशन

गोपशुओं की उत्‍पादकता को बढ़ाने के लिए देशी नस्‍लों के विकास और संरक्षण हेतु आबंटन को कई गुना बढ़ाया गया है। देश में पहली बार “राष्‍ट्रीय गौकुल मिशन” नामक एक नई पहल की गई। इसका उद्देश्‍य देशी बोवाईन नस्‍लों का संरक्षण तथा विकास करना है। इस मिशन के अंतर्गत मुख्यतः गोकुल ग्रामो की स्थापना करना, फील्ड परफॉरमेंस रिकॉर्डिंग करना, गोपालको एवं गौपालन से संबंधित संस्थानों को प्रति वर्ष सम्मानित करना, बुलमदर फर्म्स को सुदृढ़ करना, देसी नस्ल के उच्च अनुवांशिक गुणवता के साँड़ को वीर्य उत्पादन केन्द्रों में अधिक संख्या में शामिल करना इत्यादि है ।

देशी नस्‍लों का समग्र और वैज्ञानिक रूप से विकसित तथा संरक्षित करने के लिए उत्‍कृष्‍टता केंद्र के रूप में कार्य करने हेतु दो “राष्‍ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्रों” की स्‍थापना की जा रही है। राष्‍ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्र देशी जर्मप्‍लाज्‍म का भण्‍डार होने के अलावा देश में प्रमाणित जेनेटिक्‍स के स्रोत भी होंगे। मध्‍य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश दोनों राज्‍यों को क्रमश: उत्‍तरी और दक्षिणी क्षेत्रों में एक-एक राष्‍ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्र की स्‍थापना हेतु 25- 25 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई है।

दूध की लगातार बढ़ती मांग पूरा करने तथा किसानों के लिए दुग्‍ध उत्‍पादन को और भी लाभदायक बनाने के लिए भारत सरकार ने एक नई योजना राष्ट्रीय बोवाईन उत्पादकता मिशन को 825 करोड़ रुपए के आबंटन के साथ अनुमोदित किया है। देश में पहली बार राष्‍ट्रीय गौकुल मिशन के अंतर्गत ई पशु  हाट पोर्टल स्थापित किया गया है।

टपक सिंचाई (ड्रिप सिंचाई) प्रणाली क्या है?

टपक सिंचाई पद्धति वह विधि है जिसमें जल को मंद गति से बूँद-बूँद के रूप में फसलों के जड़ क्षेत्र में एक छोटी व्यास की प्लास्टिक पाइप से प्रदान किया जाता है। इस सिंचाई विधि का आविष्कार सर्वप्रथम इसराइल में हुआ था जिसका प्रयोग आज दुनिया के अनेक देशों में हो रहा है। इस विधि में जल का उपयोग अल्पव्ययी तरीके से होता है जिससे सतह वाष्पन एवं भूमि रिसाव से जल की हानि कम से कम होती है।

सिंचाई की यह विधि शुष्क  एवं अर्ध-शुष्क  क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त होती है जहाँ इसका उपयोग फल बगीचों की सिंचाई हेतु किया जाता है। टपक सिंचाई ने लवणीय भूमि पर फल बगीचों को सफलतापूर्वक उगाने को संभव कर दिखाया है। इस सिंचाई विधि में उर्वरकों को घोल के रूप में भी प्रदान किया जाता है। टपक सिंचाई उन क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त है जहाँ जल की कमी होती है, खेती की जमीन असमतल होती है और सिंचाई प्रक्रिया खर्चीली होती है।

टपक सिंचाई से क्या लाभ होते हें 

पारम्परिक सिंचाई की तुलना में टपक सिंचाई के अनेकों लाभ हैं जो निम्नलिखित हैं:

  1. जल उपयोग दक्षता 95 प्रतिशत तक होती है जबकि पारम्परिक सिंचाई प्रणाली में जल उपयोग दक्षता लगभग 50 प्रतिशत तक ही होती है।
  2. इस सिंचाई विधि में जल के साथ-साथ उर्वरकों को अनावश्यक बर्बादी से रोका जा सकता है।
  3. विधि से सिंचित फसल की तीव्र वृद्धि होती है फलस्वरूप फसल शीघ्र परिपक्व होती है।
  4. खर-पतवार नियंत्रण में अत्यन्त ही सहायक होती है क्योंकि सीमित सतह नमी के कारण खर-पतवार कम उगते हैं।
  5. टपक सिंचाई विधि अच्छी फसल विकास हेतु आदर्श मृदा नमी स्तर प्रदान करती है।
  6. इस सिंचाई विधि में कीटनाशकों  एवं कवकनाशकों के धुलने की संभावना कम होती है।
  7. लवणीय जल को इस सिंचाई विधि से सिंचाई हेतु उपयोग में लाया जा सकता है।
  8. इस सिंचाई विधि में फसलों की पैदावार 150 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
  9. पारम्परिक सिंचाई की तुलना में टपक सिंचाई में 70 प्रतिशत तक जल की बचत की जा सकती है।
  10. इस सिंचाई विधि के माध्यम से लवणीय, बलुई एवं पहाड़ी भूमियों को भी सफलतापूर्वक खेती के काम में लाया जा सकता है।
  11. टपक सिंचाई में मृदा अपरदन की संभावना नहीं के बराबर होती है, जिससे मृदा संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।

भारत में टपक सिंचाई

पिछले 15 से 20 वर्षों में टपक सिंचाई विधि की भारत के विभिन्न राज्यों में लोकप्रियता बढ़ी है। आज देश में 3.51 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल टपक सिंचाई के अन्तर्गत आता है जो कि 1960 में मात्र 40 हेक्टेयर था। भारत में टपक सिंचाई के अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल वाले मुख्य राज्य महाराष्ट्र (94 हजार हेक्टेयर), कर्नाटक (66 हजार हेक्टेयर) और तमिलनाडु (55 हजार हेक्टेयर) हैं।

टपक सिंचाई प्रणाली

एक आदर्श टपक सिंचाई प्रणाली, पम्प ईकाई , नियन्त्रण प्रधान, प्रधान एवं उप-प्रधान नली , पार्श्विक  एवं निकास से बनी होती है।पम्प ईकाई जल स्रोत से जल को लेकर के पाइप प्रणाली में जल के रिहाई हेतु उचित दबाव बनाती है। नियन्त्रण प्रधान में कपाट  होता है जो पाइप प्रणाली में जल की मुक्ति एवं दबाव को नियन्त्रित करता है। इसमें जल की सफाई हेतु छननी भी होती है। कुछ नियन्त्रण प्रधान में उर्वरक अथवा पोषक जलकुंड भी होता है। यह सिंचाई के दौरान नपी मात्रा में उर्वरक को जल में छोड़ता है। अन्य सिंचाई विधियों की तुलना में टपक सिंचाई का यह एक प्रमुख लाभ है।

प्रधान नली, उप-प्रधान नली एवं पार्श्विक, नियन्त्रण प्रधान से जल की पूर्ति खेत में करते हैं। प्रधान नली, उप-प्रधान नली एवं पार्श्विक आमतौर से पालिथीन की बनी होती हैं अतः इन्हें प्रत्यक्ष सौर ऊर्जा से नष्ट होने से बचाने हेतु जमीन में दबाया जाता है। आमतौर से पार्श्विक नलीयों का व्यास 13-32 मीलीमीटर होता है।निकास वह युक्ति होती है जिसका उपयोग पार्श्विक से पौधों को जल की पूर्ति हेतु नियन्त्रण में किया जाता है।

टपक सिंचाई हेतु उपयुक्त फसलें:

कतार वाली फसलों (फल एवं सब्जी), वृक्ष एवं लता फसलों हेतु टपक सिंचाई अत्यन्त ही उपयुक्त होती है जहाँ एक या उससे अधिक निकास को प्रत्येक पौधे तक पहुँचाया जाता है। टपक सिंचाई को आमतौर से अधिक मूल्य वाली फसलों के लिए अपनाया जाता है क्योंकि इस सिंचाई विधि की संस्थापन कीमत अधिक होती है। टपक सिंचाई का प्रयोग आमतौर से फार्म, व्यवसायिक हरित गृहों तथा आवासीय बगीचों में होता है।

यह लम्बी दूरी वाली फसलों के लिए उपयुक्त होती है। सेब, अंगूर, संतरा, नीम्बू, केला, अमरूद, शहतूत, खजूर, अनार, नारियल, बेर, आम आदि जैसी फल वाली फसलों की सिंचाई टपक सिंचाई विधि द्वारा की जा सकती है। इनके अतिरिक्त टमाटर, बैंगन, खीरा, लौकी, कद्दू, फूलगोभी, बन्दगोभी, भिण्डी, आलू, प्याज आदि जैसी सब्जी फसलों की सिंचाई भी टपक सिंचाई विधि से की जा सकती है। अन्य फसलों जैसे कपास, गन्ना, मक्का, मूंगफली, गुलाब एवं रजनीगंधा आदि को भी इस सिंचाई विधि द्वारा सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि टपक सिंचाई तकनीक में जल का उपयोग अल्पव्ययी तरीके से पौधों की सिंचाई हेतु होता है। सिंचाई की यह तकनीक न सिर्फ जल एवं मृदा संरक्षण को सुनिश्चित करती है अपितु इससे फसल पैदावार भी अधिक होती है। अतः संपोषित विकास के लक्ष्य प्राप्ति हेतु टपक सिंचाई आज समय की आवश्यकता है।

महाराष्ट्र में किसानों ने किसान क्रांति के नाम से आंदोलन शुरू किया

महाराष्ट्र में किसानों ने  किसान क्रांति के नाम से आंदोलन शुरू किया

महाराष्ट्र में किसानों ने सरकार के खिलाफ उग्र आंदोलन का मूड बना लिया है. राज्य में ‘किसान क्रांति’ के नाम से आंदोलन शुरू किया गया है | आंदोलनकारियों ने चेतावनी दी है कि वे एक जून से शहरों में जाने वाले दूध, सब्जी समेत अन्य उत्पाद रोकेंगे| किसानों की शिकायत राज्य सरकार की नीतियों को लेकर है. वे किसानों की कर्ज़ से मुक्ति की मांग पर अटल हैं. जबकि राज्य सरकार किसानों की भलाई के लिए कई फैसले लेने का दावा कर रही है|

किसान क्रांति के नेता जयाजी शिंदे का कहना है कि किसान की कर्जमुक्ति ही उसकी सारे समस्याओं का हल है. जबकि मौजूदा सरकार कर्ज़मुक्ति की बात स्वीकार ही नहीं कर रही| ऐसे में किसानों के पास हड़ताल करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. शिंदे मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मुलाकात के बाद मुंबई में मीडिया से बात कर रहे थे| उनका दावा है कि राज्यभर से किसान उनके आंदोलन में शरीक हो रहे हैं|

किसानों को मनाने के लिए महाराष्ट्र सरकार की तरफ से कृषिमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक सभी ने कोशिश की, लेकिन किसान फिलहाल मानते नहीं दिख रहे|

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महाराष्ट्र के कृषिमंत्री पांडुरंग फुंडकर का कहना है कि किसान का हड़ताल करना जरूर ही अच्छा कदम नहीं है. ऐसा अगर सचमुच होता है तो दुनिया चल नहीं सकती, क्योंकि किसान इस दुनिया का अन्नदाता है. ऐसे में सरकार की कोशिश है कि किसान हड़ताल न करें| हम आंदोलनकारी किसानों से लगातार बातचीत कर रहे हैं|

जानें क्या है पशु क्रूरता निवारण (पालतू पशु की दुकान) नियम

जानें क्या है पशु क्रूरता निवारण (पालतू पशु की दुकान) नियम

केंद्र ने पशु क्रूरता निवारण (पालतू पशु की दुकान) नियम, 2016 की अधिसूचना की घोषणा की

सरकार ने यहां पशु क्रूरता निवारण (पालतू पशु की दुकान) नियम, 2016 की अधिसूचना की घोषणा कर दी है। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्‍य मंत्री (स्‍वतंत्र प्रभार) श्री अनिल माधव दवे ने मीडियाकर्मियों को संबोधित करते हुए कहा कि यह पालतू पशुओं की दुकान (पैट शॉप्स) को विनियमित करने के लिए है।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के पास जानवरों पर अनावश्यक दर्द या पीड़ा रोकने के लिए और पशुओं के प्रति क्रूरता की रोकथाम के लिए पशु क्रूरता निवारण (पीसीए) अधिनियम, 1960 लागू करने का अधिकार है।

उद्देश्य:

इन नियमों का उद्देश्य पालतू पशुओं की दुकानों को जवाबदेह बनाना और इन दुकानों में पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकना है। प्रस्तावित नियम इस प्रकार है:

  • प्रत्येक पालतू पशु दुकान के मालिक को अपने राज्य/केंद्र शासित प्रदेश के पशु कल्याण बोर्ड में खुद को पंजीकृत कराना होगा।
  • राज्य बोर्ड, एक वेटरिनेरी प्रैक्टिशनर और पशु क्रूरता निवारण सोसायटी के एक प्रतिनिधि द्वारा निरीक्षण के बाद ही दुकान पंजीकृत हो पाएगी।
  • इस नियम में दुकान में पक्षियों, बिल्लियों, कुत्तों, खरगोश, गिनी पिग, हम्सटर, चूहों के लिए स्थान को परिभाषित किया गया है।
  • इसके अलावा इसमें बुनियादी सुविधाओं, बिजली बैक-अप, सामान्य देखभाल, पशु चिकित्सा देखभाल और पशुओं के रखरखाव के लिए अन्य आवश्यकताओं को भी परिभाषित किया गया है। (v) पशुओं की दुकान में उनकी बिक्री, उनकी मृत्य, उनके बीमार होने का पूरा रिकॉर्ड रखना भी अनिवार्य बनाया गया है।
  •  प्रत्येक पालतू पशु की दुकान के मालिक को पिछले वर्ष के दौरान पशुओं की खरीद, बिक्री व अन्य महत्वपूर्ण जानकारी का ब्योरा और राज्य बोर्ड द्वारा पूछी गई अहम जानकारी को पूरी सालाना रिपोर्ट के रूप में जमा कराना होगा।

नियमों का उल्लंघन: प्रस्तावित नियमों के पूरा न होने पर दुकान का पंजीकरण रद्द कर दिया जाएगा। साथ ही पशुओं की जब्त कर पशु कल्याण संगठन या फिर बोर्ड से मान्यता प्राप्त रेस्क्यू सेंटर को सौंप दिया जाएगा।

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अगर आप लोन लेकर बकरी पालन करना चाहते हैं तो जरुर पढ़े |

बकरी पालन लोन:– बकरी पालन पर नाबार्ड लोंन देता है | आप सोंच रहे होंगे की नाबार्ड लोंन कैसे देता है | आज आप को वह सब कुच्छ बताया  जिससे आप को मालूम चल सकेगा की बैंक से बकरी  पालन के लिए लोंन कैसे मिलेगा | अक्सर आप सुनते होंगे की सरकार के किसी योजना पर बैंक लोंन देता है लेकिन किसान या बकरी पालने वाले व्यक्ति जब बैंक जाता है तो बैंक से खाली हाथ लौटा आता है | बैंक के किसी अधिकारी से बात करने पर बताता है की इस तरह की कोइ योजना नहीं है | फिर सोचते है की यह सब सरकार की योजना केवल दिखावे के लिए है |

सबसे पहले यह जाने की पैसा कहाँ से आता है | नाबार्ड भारत के किसानो की योजना बनाकर सरकार को देता है और सरकार इस योजना को को क्रियांवय कर रिजर्व बैंक को पैसे के स्वीकृति के लिए लिखित आदेस देता है | रिजर्व बैंक वह पैसा नाबार्ड को देता है | कई बार हम सभी सुनते है की नाबार्ड की योजना है और नाबार्ड लोंन दे रहा है | नाबार्ड की योजना तो रहता है  , लेकिन नाबार्ड सीधे रूप से किसानों से नहीं जुड़ा रहता है | नाबार्ड अपना कम राष्ट्रीय बैंक से करता है जंहा पर किसान सीधे रूप से बैंक से जुड़े रहते हैं |

किसान को लोंन कैसे मिलेगा :-

सबसे पहले किसान को किसी भी राष्ट्रीय बैंक में एक करंट एकाउंट होना चाहिए | यह एकाउंट करीब एक साल पुराना तथा एकाउंट बकरी पालन के किसी नाम से  होना चाहिए | उस एकाउंट में बकरी के खरीद बिक्री का कम से कम एक साल का लेनदेन होना चाहिए | अगर एक साल का रिटर्न फाइल है तो अच्छा है |इस के बाद आप बैंक में जाएँ तो बैंक अधिकारी आप को आपके बैंक के लेनदेन के आधार पर आप को उतना पैसा आवंटित करेगा | नाबार्ड कहता है की न्यू कमर्स को लोंन देगा लेकिन राष्ट्रीय बैंक न्यू कामर्स को नहीं देता है | एसा इस लिए राष्ट्रीय बैंक करता है की बैंक का पैसा डूब नही जाये | यानि नाबार्ड का न्यू कामर्स का मतलब ही यही होता है की पहले आप अपने पैसे से बकरी पालन करे उसके बाद बैंक में जाकर लोंन की अप्लाई करें |

तो किसान क्या करें –

किसान बिना देर किये सबसे पहले अक current accoucent किसी भी नाम से किसी भी राष्ट्रीय बैंक में खोले | और उस बैंक से लेनदेन करे | यानि पैसे की निकासी तथा पैसे की जमा एक साल तक करें |

जानें किस महीने में कौन सी सब्जी लगाने से होता है अधिक फायदा

जानें किस महीने में कौन सी सब्जी लगाने से होताहै अधिक फायदा 

जनवरी

राजमा, शिमला मिर्च, मूली, पालक, बैंगन, चप्‍पन कद्दू

फरवरी

राजमा, शिमला मिर्च, खीरा-ककड़ी, लोबिया, करेला, लौकी, तुरई, पेठा, खरबूजा, तरबूज, पालक, फूलगोभी, बैंगन, भिण्‍डी, अरबी, एस्‍पेरेगस, ग्‍वार

मार्च

ग्‍वार, खीरा-ककड़ी, लोबिया, करेला, लौकी, तुरई, पेठा, खरबूजा, तरबूज, पालक, भिण्‍डी, अरबी

अप्रैल

चौलाई, मूली

मई

फूलगोभी, बैंगन, प्‍याज, मूली, मिर्च

जून

फूलगोभी, खीरा-ककड़ी, लोबिया, करेला, लौकी, तुरई, पेठा, बीन, भिण्‍डी, टमाटर, प्‍याज, चौलाई, शरीफा

जुलाई

खीरा-ककड़ी-लोबिया, करेला, लौकी, तुरई, पेठा, भिण्‍डी, टमाटर, चौलाई, मूली

अगस्‍त

गाजर, शलगम, फूलगोभी, बीन, टमाटर, काली सरसों के बीज, पालक, धनिया, ब्रसल्‍स स्‍प्राउट, चौलाई

सितम्‍बर

गाजर, शलगम, फूलगोभी, आलू, टमाटर, काली सरसों के बीज, मूली, पालक, पत्‍ता गोभी, कोहीराबी, धनिया, सौंफ के बीज, सलाद, ब्रोकोली

अक्‍तूबर

गाजर, शलगम, फूलगोभी, आलू, टमाटर, काली सरसों के बीज, मूली, पालक, पत्‍ता गोभी, कोहीराबी, धनिया, सौंफ के बीज, राजमा, मटर, ब्रोकोली, सलाद, बैंगन, हरी प्‍याज, ब्रसल्‍स स्‍प्राउट, लहसुन

नवम्‍बर

चुकन्‍दर, शलगम, फूलगोभी, टमाटर, काली सरसों के बीज, मूली, पालक, पत्‍ता गोभी, शिमला मिर्च, लहसुन, प्‍याज, मटर, धनिया

दिसम्‍बर

टमाटर, काली सरसों के बीज, मूली, पालक, पत्‍ता गोभी, सलाद, बैंगन, प्‍याज

 

गर्मी के मौसम में रखें पशुओं का खास ध्यान नहीं तो घट सकता है दूध का उत्पादन

पशुओं की गर्मीं में देखभाल 

पशुओं को गर्मियों से निजात दिलाने के लिए ज्यादातर पशुपालक जानकारी के अभाव में पशुओं को दोपहर में ही नहला देते है। इससे दूध उत्पादन की क्षमता पर तो असर पड़ता है साथ ही पशुओं को बुखार या लू की भी समस्या होती है।

लू से कैसे बचाएं 

मौसम विभाग ने जून तक मानसून आने का अनुमान भी जताया है। यानी की मई के अंत तक गर्म लू चलने से पशुपालकों को मुश्किलें आ सकती हैं।

नहलाने का तो पशुपालकों को धयान रखना चाहिए साथ ही इस बात का भी ध्यान रखे कि अगर पशु को चराने के लिए ले जा रहे तो उसको सूखी चरी खिलाने से बचाएं इससे पशुओं की मौत भी हो जाती है।” गर्मी के मौसम में हवा के गर्म थपेड़ों और बढ़े हुए तापमान से पशुओं में लू लगने का खतरा और भी ज्यादा बढ़ जाता है।

कई बार पशुपालक पशु के चरने के आने के बाद उन पर पानी छिड़क देते हैं। जिससे पशुओं को बुखार आ जाता है। गर्मियों में भैंसों को तो दोपहर में नहलाया जा सकता है क्योंकि उनकी खाल काफी मोटी होती है। इससे उन पर खासा कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन गाय और बकरी के लिए यह नुकसानदायक बन जाता है। इससे सबसे बड़ा नुकसान पशुपालक को होता है क्योंकि दूध उत्पादन घट जाता है।

ऐसे में अगर पशुपालक अपने पशुओं को भरी दोपहर में नहलाएंगे तो पशुपालकों को आर्थिक नुकसान झेलना पड़ सकता है। पशुचिकित्सा अधिकारी डॉक्टर अजीत कुमार सिंह बताते हैं, अगर पशु ज़्यादा समय तक खुली धूप के संपर्क में रहता है और उस पर पानी डाल दिया जाए तो वह सन स्ट्रोक बीमारी की चपेट में आसानी से आ सकता है। इस बीमारी के कारण पशु के आंखों में लालपन हो जाता है और पतला मल त्याग करने लगता है।

किसान क्रेडिट कार्ड के लाभ, प्राप्त करने के लिए प्रकिया एवं विशेषताएं

किसान क्रेडिट कार्ड के लाभ, प्राप्त करने के लिए प्रकिया एवं विशेषताएं

किसान क्रेडिट कार्ड योजना के लाभ –

  • सरल वितरण प्रक्रिया
  • नकद आपूर्ति के लिए बहुत ही आसान प्रक्रिया
  • प्रत्येक फसल के लिए ऋण हेतु आवेदन की आवश्यकता नहीं
  • किसानों के लिए किसी भी समय ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित करना व किसानों के लिए ब्याज़ के बोझ को घटाना
  • किसानों की सुविधा और विकल्प के अनुसार खाद और उर्वरक की खरीद करना।
  • डीलर से नकद खरीद पर छूट
  • 3 वर्षों तक ऋण सुविधा- हर मौसम में मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं
  • कृषि आय के आधार पर अधिकतम ऋण सीमा को बढ़ाना
  • ऋण सीमा के भीतर कई बार राशि का निकालना संभव
  • फसल कटाई के बाद अदायगी का प्रावधान
  • कृषि अग्रिम के अनुसार ब्याज़ दर लागू
  • कृषि अग्रिम के अनुसार प्रतिभूति, मार्जिन एवं प्रलेखन नियम होंगे

किसान क्रेडिट कार्ड प्राप्त करने की प्रक्रिया

  • अपने नज़दीकी सार्वज़निक क्षेत्र के बैंक से सम्पर्क कर ज़ानकारी हासिल करें।
  • योग्य किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड दिया जाएगा और उन्हें पासबुक दिया जाएगा। पासबुक पर किसान का नाम व पता, भूमि ज़ोत का विवरण, उधार सीमा, वैधता अवधि, एक पासपोर्ट आकार का फोटो होगा जो पहचान पत्र का काम करेगा और लेन-देन का लेखा-ज़ोखा रखेगा।
  • खाते का उपयोग करते समय उधारकर्त्ता को अपना कार्ड-सह-पासबुक दिखाना होगा।

योजना की विशेषताएँ

यह योजना देशभर के सभी किसान क्रेडिट कार्ड धारकों की मृत्यु या स्थायी अक्षमता को शामिल करती है।

शामिल किये जाने वाले लोगः 70 वर्ष आयु तक के सभी किसान क्रेडिट कार्ड धारक।

इस योजना के अंतर्गत शामिल लाभ इस प्रकार है-

दुर्घटना के कारण मृत्यु होना जो कि बाह्य, हिंसक तथा दृष्टिगत कारणों से हो: 50,000 रुपये

  • स्थायी पूर्ण अक्षमता: 50,000 रुपये
  • दो अंग या दोनों आँख या एक अंग तथा एक आँख खो जाने पर: 50,000 रुपये
  • एक अंग या एक आँख खोने पर: 25,000 रुपये
  • मास्टर पॉलिसी की अवधिः 3 वर्षों के लिए मान्य।

 बीमे की समय अब्धि

जिन मामलों में वार्षिक प्रीमियम भरा जाना हों उनमें बीमा कवर हिस्सा लेने वाली बैंकों से प्रीमियम प्राप्त होने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के लिए प्रभावी होगा। तीन वर्ष की अवधि वाले बीमा के मामले में, बीमा काल प्रीमियम प्राप्ति की तिथि से तीन वर्षों तक होगा।

प्रीमियम एवं अन्य सम्बंधित जानकारी

  • प्रत्येक किसान क्रेडिट कार्ड धारक के लिए लागू 15 रुपये वार्षिक प्रीमियम में से 10 रुपये बैंक तथा 5 रुपये किसान क्रेडिट कार्ड धारक को देना होता है।
  • संचालन विधिः क्षेत्रवार आधार पर व्यवसाय की सेवा चार बीमा कम्पनियों द्वारा की जा रही है। युनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कंपनी, आँध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, अंडमान एवं निकोबार, पुड्डेचेरी, तमिलनाडु तथा लक्षद्वीप को कवर करेगी।
  • लागू करने वाली शाखाओं को बीमा प्रीमियम मासिक आधार पर जमा करना होगा एवं उसके साथ उन किसानों की सूची भी देना होगी जिन्हें उस महीने के दौरान किसान क्रेडिट कार्ड जारी किये गये हों।
  • भुगतान के दावा की प्रक्रियाः मृत्यु, अक्षमता के दावों के मामलों में तथा डूबने से मृत्यु होने पर:दावे का निपटारा बीमा कंपनियों द्वारा किया जाएगा। इसके लिए एक अलग प्रक्रिया का पालन करना होगा।

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