जानें पत्तियों के रंग से फसलों में पोषक तत्वों की कमी

जानें पत्तियों के रंग से फसलों में पोषक तत्वों की कमी

लाभदायक फसल उत्पादन के लिए पोषक तत्वों की कमी के चिन्हों को पहचान कर उन्हें सही करना प्रत्येक कृषक का कर्तब्य होना चाहिए |वैज्ञानिकों द्वारा कमी के लक्षणों को जो पहचान की पत्तियों / तना एवं पुष्पण में दिखाई देते है , कमी पहचान के तरीके बताये गये है | उनके  आधार पर फसलों को देखकर उनकी कमी के लक्षणों को देखकर जानकारी की जा सकती है | पोषक तत्वों की कमी प्राय: पौधों की पत्तियों में रंग परिवर्तन से ज्ञात होता है |आवश्यक पोषक तत्वों के कमी के लक्षण निम्नवत है |

बोरान (B)

वर्धनशील भाग के पास की पत्तियों का रंग पीला हो जाता है | कलियाँ सफ़ेद या हलके भूरे मृत ऊतक की तरह दिखाई देती है |

कैल्शियम   (Ca)

प्राथमिक पत्तियां पहले प्रभावित होती है तथा देर से निकलती है | शीर्ष कलियाँ खराब हो जाती है | मक्के की नोके चिपक जाती है |

गंधक (S)

पत्तियां, शीराओं सहित, गहरे हरे से पीले रंग में बदल जाती है तथा बाद में सफ़ेद हो जाती है | सबसे पहले नई पत्तियां प्रभावित होती है |

लोहा (Fe)

नई पत्तियों में तने के ऊपरी भाग पर सबसे पहले हरितिमहिन के लक्षण दिखाई देते है | शिराओं को छोड़कर पत्तियों का रंग एक साथ पीला हो जाता है | उक्त कमी होने पर भूरे रंग का धब्बा या मृत ऊतक के लक्षण प्रकट होते है |

मैगजीन (Mn)

पत्तियों का रंग पीला – धूसर या लाल – धूसर हो जाता है तथा शिराएँ हरी होती है | पत्तियों का किनारा और शिराओं का मध्य भाग हरितिमाहीन हो जाता है | हरितिमाहीन पत्तियां अपने सामान्य आकार में रहती है |

तांबा (Cu)

नई पत्तियां एक साथ गहरी पीले रंग की हो जाती है तथा सूख कर गिरने लगती है | खाद्यान्न वाली फसलों में गुच्छों में वृधि होती है तथा शीर्ष में दाने नहीं होते है |

जस्ता (Zn)

सामान्य तौर पर पत्तियों के शिराओं के मध्य हरितिमाहीन के लक्षण दिखाई देते है उर पत्तियों का रंग कांसा की तरह हो जाता है |

मालिब्ड़ेनम   (Mo)

नई पत्तियां सुख जाती है , हल्के हरे रंग की हो जाती ही मध्य शिराओं को छोड़कर पूरी पत्तियों पर सूखे धब्बे दिखाई देते है | नाईट्रोजन के उचित ढंग से उपयोग न होने के कारण पुराणी पत्तियां हरितिमाहीन होने लगती है |

मैग्नीशियम (Mg)

पत्तियों के अग्रभाग का रंग गहरा हरा होकर शिराओं का मध्य भाग सुनहरा पीला हो जाता है अंत में किनारे से अन्दर की ओर लाल – बैंगनी रंग के धब्बे बन जाते है |

पोटैशियम (K)

पुरानी पत्तियों का रंग पीला / भूरा हो जाता है और बाहरी किनारे कट – फट जाते है | मोटे अनाज मक्का एवं ज्वर में ए लक्षण पत्तियों के अग्रभाग से प्राम्भ होते है |

फास्फोरस (P)

पौधों की पत्तियां फास्फोरस की कमी के कारण छोटी रह जाती है तथा पौधों का रंग गुलाबी होकर गहरा हरा हो जाती है |

नाईट्रोजन (N)

पौधे हल्के हरे रंग के या हलके पीले रंग के होकर बौने रह जाते है | पुराणी पत्तियां पहले पिली (हरितिमाहीन) हो जलती है | मोटे अनाज वाली फसलों में पत्तियों का पीलापन अग्रभाग से शुरू होकर मध्य शिराओं तक फैल जाता है |

बकरी की विभिन्न उपयोगी देशी एवं विदेशी नस्लें, आवश्यक बातें आय व्यय का अनुमान

बकरी पालन

संसार में बकरियों की कुल 102 प्रजातियाँ उपलब्ध है। जिसमें से 20 भारतवर्ष में है। अपने देश में पायी जाने वाली विभिन्न नस्लें मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। यहाँ की बकरियाँ पश्चिमी देशों में पायी जाने वाली बकरियों की तुलना में कम मांस एवं दूध उत्पादित करती है क्योंकि वैज्ञानिक विधि से इसके पैत्रिकी विकास, पोषण एवं बीमारियों से बचाव पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। बकरियों का पैत्रिकी विकास प्राकृतिक चुनाव एवं पैत्रिकी पृथकता से ही संभव हो पाया है। पिछले 25-30 वर्षों में बकरी पालन के विभिन्न पहलुओं पर काफी लाभकारी अनुसंधान हुए हैं फिर भी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर गहन शोध की आवश्यकता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली की ओर से भारत की विभिन्न जलवायु की उन्नत नस्लें जैसेः ब्लैक बंगला, बारबरी, जमनापारी, सिरोही, मारबारी, मालावारी, गंजम आदि के संरक्षण एवं विकास से संबंधित योजनाएँ चलायी जा रही है। इन कार्यक्रमों के विस्तार की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जलवायु एवं परिवेश में पायी जाने वाली अन्य उपयोगी नस्लों की विशेषता एवं उत्पादकता का समुचित जानकारी हो सके। इन जानकारियों के आधार पर ही क्षेत्र विशेष के लिए बकरियों से होने वाली आय में वृद्धि हेतु योजनाएँ सुचारू रूप से चलायी जा सकती है।

उपयोगी नस्लें

ब्लैक बंगालः

इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है। इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है। अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है। यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है। नर तथा मादा दोनों में 3-4 इंच का आगे की ओर सीधा निकला हुआ सींग पाया जाता है। इसका शरीर गठीला होने के साथ-साथ आगे से पीछे की ओर ज्यादा चौड़ा तथा बीच में अधिक मोटा होता है। इसका कान छोटा, खड़ा एवं आगे की ओर निकला रहता है।

इस नस्ल की प्रजनन क्षमता काफी अच्छी है। औसतन यह 2 वर्ष में 3 बार बच्चा देती है एवं एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती है। कुछ बकरियाँ एक वर्ष में दो बार बच्चे पैदा करती है तथा एक बार में 4-4 बच्चे देती है। इस नस्ल की मेमना 8-10 माह की उम्र में वयस्कता प्राप्त कर लेती है तथा औसतन 15-16 माह की उम्र में प्रथम बार बच्चे पैदा करती है।

प्रजनन क्षमता काफी अच्छी होने के कारण इसकी आबादी में वृद्धि दर अन्य नस्लों की तुलना में अधिक है। इस जाति के नर बच्चा का मांस काफी स्वादिष्ट होता है तथा खाल भी उत्तम कोटि का होता है। इन्हीं कारणों से ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियाँ मांस उत्पादन हेतु बहुत उपयोगी है। परन्तु इस जाति की बकरियाँ अल्प मात्रा (15-20 किलो ग्राम/वियान) में दूध उत्पादित करती है जो इसके बच्चों के लिए अपर्याप्त है। इसके बच्चों का जन्म के समय औसत् वजन 1.0-1.2 किलो ग्राम ही होता है। शारीरिक वजन एवं दूध उत्पादन क्षमता कम होने के कारण इस नस्ल की बकरियों से बकरी पालकों को सीमित लाभ ही प्राप्त होता है।

शारीरिक विशेषता 

यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।

जमुनापारीः

जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है। एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है।

इसके नाक काफी उभरे रहते हैं। जिसे ‘रोमन’ नाक कहते हैं। सींग छोटा एवं चौड़ा होता है। कान 10-12 इंच लम्बा चौड़ा मुड़ा हुआ तथा लटकता रहता है। इसके जाँघ में पीछे की ओर काफी लम्बे घने बाल रहते हैं। इसके शरीर पर सफेद एवं लाल रंग के लम्बे बाल पाये जाते हैं। इसका शरीर बेलनाकार होता है। वयस्क नर का औसत वजन 70-90 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 50-60 किलो ग्राम होता है

इसके बच्चों का जन्म समय औसत वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्र में औसतन 1.5 से 2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध तथा मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ सलाना बच्चों को जन्म देती है तथा एक बार में करीब 90 प्रतिशत एक ही बच्चा उत्पन्न करती है। इस जाति की बकरियाँ मुख्य रूप से झाड़ियाँ एवं वृक्ष के पत्तों पर निर्भर रहती है। जमुनापारी नस्ल के बकरों का प्रयोग अपने देश के विभिन्न जलवायु में पायी जाने वाली अन्य छोटे तथा मध्यम आकार की बकरियाँ के नस्ल सुधार हेतु किया गया। वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चला कि जमनापारी सभी जलवायु के लिए उपयुक्त नही हैं।

बीटलः

बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है। पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है। इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता है। यह देखने में जमनापारी बकरियाँ जैसी लगती है परन्तु ऊँचाई एवं वजन की तुलना में जमुनापारी से छोटी होती है। इसका कान लम्बा, चौड़ा तथा लटकता हुआ होता है। नाक उभरा रहता है।

कान की लम्बाई एवं नाक का उभरापन जमुनापारी की तुलना में कम होता है। सींग बाहर एवं पीछे की ओर घुमा रहता है। वयस्क नर का वजन 55-65 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 45-55 किलो ग्राम होता है। इसके वच्चों का जन्म के समय वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इसका शरीर गठीला होता है। जाँघ के पिछले भाग में कम घना बाल रहता है। इस नस्ल की बकरियाँ औसतन 1.25-2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ सलाना बच्चे पैदा करती है एवं एक बार में करीब 60% बकरियाँ एक ही बच्चा देती है।

बीटल नस्ल के बकरों का प्रयोग अन्य छोटे तथा मध्यम आकार के बकरियों के नस्ल सुधार हेतु किया जाता है। बीटल प्रायः सभी जलवायु हेतु उपयुक्त पाया गया है।

बारबरीः

बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है। इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया। अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है।

यह छोटे कद की होती है परन्तु इसका शरीर काफी गठीला होता है। शरीर पर छोटे-छोटे बाल पाये जाते हैं। शरीर पर सफेद के साथ भूरा या काला धब्बा पाया जाता है। यह देखने में हिरण के जैसा लगती है। कान बहुत ही छोटा होता है। थन अच्छा विकसित होता है। वयस्क नर का औसत वजन 35-40 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 25-30 किलो ग्राम होता है। यह घर में बांध कर गाय की तरह रखी जा सकती है।

इसकी प्रजनन क्षमता भी काफी विकसित है। 2 वर्ष में तीन बार बच्चों को जन्म देती है तथा एक वियान में औसतन 1.5 बच्चों को जन्म देती है। इसका बच्चा करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क होता है। इस नस्ल की बकरियाँ मांस तथा दूध उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ औसतन 1.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।

सिरोहीः

सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है। यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।

विदेशी बकरियों की प्रमुख नस्लें

अल्पाइन –

यह स्विटजरलैंड की है। यह मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्रों में औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।

एंग्लोनुवियन –

यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है। यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है।

सानन –

यह स्विटजरलैंड की बकरी है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है। यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है।

टोगेनवर्ग –

टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है। इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है। यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।

बकरी पालन से संबंधित आवश्यक बातें

  • ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल या सिरोही नस्ल के बकरों से करावें।
  • पाठी का प्रथम प्रजनन 8-10 माह की उम्र के बाद ही करावें।
  • बीटल या सिरोही नस्ल से उत्पन्न संकर पाठी या बकरी का प्रजनन संकर बकरा से करावें।
  • बकरा और बकरी के बीच नजदीकी संबंध नहीं होनी चाहिए।
  • नर और मादा को अलग-अलग रखना चाहिए।पाठी अथवा बकरियों को गर्म होने के 10-12 एवं 24-26 घंटों के बीच 2 बार पाल दिलावें।
  •  बच्चा देने के 30 दिनों के बाद ही गर्म होने पर पाल दिलावें।
  • गाभीन बकरियों को गर्भावस्था के अन्तिम डेढ़ महीने में चराने के अतिरिक्त कम से कम 200 ग्राम दाना का मिश्रण अवश्य दें।
  •  बकरियों के आवास में प्रति बकरी 10-12 वर्गफीट का जगह दें तथा एक घर में एक साथ 20 बकरियों से ज्यादा नहीं रखें।
  • बच्चा जन्म के समय बकरियों को साफ-सुथरा जगह पर पुआल आदि पर रखें।
  • जन्म के समय अगर मदद की आवश्यकता हो तो साबुन से हाथ धोकर मदद करना चाहिए।
  • जन्म के उपरान्त नाभि को 3 इंच नीचे से नया ब्लेड से काट दें तथा डिटोल या टिन्चर आयोडिन या वोकांडिन लगा दें। यह दवा 2-3 दिनों तक लगावें।

व्यय

अनावर्ती व्यय रुपये
10 वयस्क ब्लैक बंगाल बकरियों का क्रय मूल्य 800 रुपये प्रति  बकरी की दर से 8000 रुपये
1 उन्नत बकरा का क्रय मूल्य 1500 रुपये प्रति  बकरा की दर से 1500 रुपये
बकरा-बकरी के लिए आवास व्यवस्था 5000 रुपये
बर्त्तन 500 रुपये
कुल लागत 15,000 रुपये

 

आवर्ती व्ययः रुपये
30 मेमनो के लिए 100 ग्राम दाना/दिन/ मेमना की दर 180 दिनों के लिए दाना मिश्रण कुल 5.5 क्विंटल, 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से 3300 रुपये
बकरा के लिए दाना मिश्रण(150 ग्राम/बकरा/दिन) तथा 10 बकरी के लिए (100 ग्राम/बकरी/दिन) की दर से दाना मिश्रण कुल 4.5 क्विंटल, 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से दवा, टीका आदि पर सलाना खर्च 2700 रुपये

2000 रुपये

कुल खर्च 8000 रुपये
कुल खर्च (अनावर्ती व आवर्ती व्यय) 23,000 रुपये

आमदनी

आय की गणना यह मान कर की गई है कि 2 वर्ष में एक बकरी तीन बार बच्चों को जन्म देगी तथा एक-बार में 2 बच्चे उत्पन्न करेगी। बकरियों की देख-रेख घर की औरतों तथा बच्चें के द्वारा किया जायेगा। सभी बकरियों को 8-10 घंटे प्रति दिन चराया जायेगा।

आय की गणना करते समय यह माना गया कि चार बच्चे की मृत्यु हो जायेगी तथा 13 नर और 13 मादा बिक्री के लिए उपलब्ध होंगे। 1 नर और मादा को प्रजनन हेतु रखकर पुरानी 2 बकरियों की बिक्री की जायेगी।

12 संकर नर का 9-10 माह की उम्र में विक्रय से प्राप्त राशि 1000 रुपये प्रति बकरे की दर से – 12,000 रुपये

11 संकर नर का 9-10 माह की उम्र में विक्रय से प्राप्त राशि 1200 रुपये प्रति बकरे की दर से- 13,200 रुपये

2 ब्लैक बंगाल मादा की बिक्री से प्राप्त राशि 500 की प्रति बकरी की दर से- 1000 रुपये

कुल आमदनी-  26,200 रुपये

कुल आमदनीः आय आवर्ती खर्च –

ब्लैक बंगाल बकरी तथा बकरा के मूल्य का 20 प्रतिशत- आवास खर्च का 10 प्रतिशत-बर्त्तन खर्च का 20

= 26,200-8000- का 20 %- 5000 का 10% – 500 का 20 %

= 26,200 – 8000 – 1900 – 500 – 100

= 26,200 – 10,500

= 15,700 रुपये प्रतिवर्ष

= 1570 रुपये प्रति बकरी प्रति वर्ष

इस आय के अतिरिक्त बकरी पालक प्रतिवर्ष कुल 3400 रुपये मूल्य के बराबर एक संकर बकरा तथा दो बकरी का बिक्री नहीं कर प्रजनन हेतु खुद रखेगा। पांच वर्षों के बाद बकरी पालक के पास 10 संकर नस्ल की बकरियाँ एवं उपयुक्त संख्या में संकर बकरा उपलब्ध होगा तथा बकरी गृह एवं बर्त्तन का कुल खर्च भी निकल आयेगा।

स्त्रोत:बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, राँची – 834006 (झारखंड)

कुक्कुट की विकसित नस्लें और उनकी विशेषताएं

कुक्कुट पालन के लिए भारत में  विकसित नस्लें कौन-कौन सी हैं और उनकी विशेषताएं क्या हैं | जानें कोन सी नस्ल आपके लिए उपयुक्त है ?

घर के पिछवाड़े में पाले जाने वाली नस्लें
कारी निर्भीक (एसील क्रॉस)

  • एसील का शाब्दिक अर्थ वास्तविक या विशुद्ध है। एसील को अपनी तीक्ष्णता, शक्ति, मैजेस्टिक गेट या कुत्ते से लड़ने की गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। इस देसी नस्ल को एसील नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसमें लड़ाई की पैतृक गुणवत्ता होती है।
  • इस महत्वपूर्ण नस्ल का गृह आंध्र प्रदेश माना जाता है। यद्यपि, इस नस्ल के बेहतर नमूने बहुत मुश्किल से मिलते हैं। इन्हें शौकीन लोगों और पूरे देश में मुर्गे की लड़ाई-शो से जुड़े हुए लोगों द्वारा पाला जाता है।
  • एसील अपने आप में विशाल शरीर और अच्छी बनावट तथा उत्कृष्ट शरीर रचना वाला होता है।
  • इसका मानक वजन मुर्गों के मामले में 3 से 4 किलो ग्राम तथा मुर्गियों के मामले में 2 से 3 किलो ग्राम होता है।
  • यौन परिपक्वता की आयु (दिन) 196 दिन है।
  • वार्षिक अंडा उत्पादन (संख्या)- 92
  • 40 सप्ताह में अंडों का वजन (ग्राम)- ५०

कारी श्यामा (कडाकानाथ क्रॉस)

  • इसे स्थानीय रूप से “कालामासी” नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ काले मांस (फ्लैश) वाला मुर्गा है। मध्य प्रदेश के झाबुआ और धार जिले तथा राजस्थान और गुजरात के निकटवर्ती जिले जो लगभग 800 वर्ग मील में फैला हुआ है, इन क्षेत्रों को इस नस्ल का मूल गृह माना गया है।
  • इनका पालन ज्यादातर जनजातीय, आदिवासी तथा ग्रामीण निर्धनों द्वारा किया जाता है। इसे पवित्र पक्षी के रूप में माना जाता है और दीवाली के बाद इसे देवी के लिए बलिदान देने वाला माना जाता  है।
  • पुराने मुर्गे का रंग नीले से काले के बीच होता है जिसमें पीठ पर गहरी धारियां होती हैं।
  • इस नस्ल का मांस काला और देखने में विकर्षक (रीपल्सिव) होता है, इसे सिर्फ स्वाद के लिए ही नहीं बल्कि औषधीय गुणवत्ता के लिए भी जाना जाता है।
  • कडाकनाथ के रक्त का उपयोग आदिवासियों द्वारा मानव के गंभीर रोगों के उपचार में कामोत्तेजक के रूप में इसके मांस का उपयोग किया जाता है।
  • इसका मांस और अंडे प्रोटीन (मांस में 25-47 प्रतिशत) तथा लौह एक प्रचुर स्रोत माना जाता है।
  • 20 सप्ताह में शरीर वजन (ग्राम)- 920
  • यौन परिपक्वता में आयु (दिन)- 180
  • वार्षिक अंडा उत्पादन (संख्या)- 105
  • 40 सप्ताह में अंडे का वजन (ग्राम)- 49
  • जनन क्षमता (प्रतिशत)- 55
  • हैचेबिल्टी एफ ई एस (प्रतिशत)- ५२

हितकारी (नैक्ड नैक क्रॉस)

  • नैक्ड नैक परस्पर बड़े शरीर के साथ-साथ लम्बी गोलीय गर्दन वाला होता है। जैसे इसके नाम से पता लगता है कि पक्षी की गर्दन पूरी नंगी या गालथैली (क्रॉप) के ऊपर गर्दन के सामने पंखों के सिर्फ टफ दिखाई देते हैं।
  • इसके फलस्वरूप इनकी नंगी चमड़ी लाल हो जाती है विशेषरूप से नर में यह उस समय होता है जब ये यौन परिपक्वतारूपी कामुकता में होते है।
  • केरल का त्रिवेन्द्रम क्षेत्र नैक्ड नैक का मूल आवास माना जाता है।
  • 20 सप्ताह में शरीर का वजन (ग्राम)- 1005
  • यौन परिपक्वता में आयु (दिन)- 201
  • वार्षिक अंडा उत्पादन (संख्या)- 99
  • 40 सप्ताह में अंडे का वजन (ग्राम)- 54
  • जनन क्षमता (प्रतिशत)- 66
  • हैचेबिल्टी एफ ई एम (प्रतिशत)- ७१

उपकारी (फ्रिजल क्रॉस)

  • यह विशिष्ट मुरदार-खोर (स्कैवइजिंग) प्रकार का पक्षी है जो अपने मूल नस्ल आधार में विकसित होता है। यह महत्वपूर्ण देसी मुर्गे की तरह लगता है जिसमें  बेहतर उपोष्ण अनुकूलता तथा रोग प्रतिरोधिता, अपवर्जन वृद्धि तथा उत्पादन निष्पादन शामिल है।
  • घर का पिछवाड़ा मुर्गी पालन के लिए उपयुक्त है।
  • उपकारी पक्षियों की चार किस्में उपलब्ध हैं जो विभिन्न कृषि मौसम स्थितियों के लिए अनुकूल है।
  • काडाकनाथ  X  देहलम रैड
  • असील     X   देहलम रैड
  • नैक्ड नैक  X   देहलम रैड
  • फ्रिजल    X   देहलम रैड

निष्पादन रूपरेखा

  • यौन परिपक्वता की आयु 170-180 दिन
  • वार्षिक अंडा उत्पादन 165-180 अंडे
  • अंडे का आकार 52-55 ग्राम
  • अंडे का रंग भूरा होता है
  • अंडे की गुणवत्ता, उत्कृष्ट आंतरिक गुणवत्ता
  • 95 प्रतिशत से ज्यादा सहनीय
  • स्वभाविक प्रतिक्रिया तथा बेहतर चारा

कारी प्रिया लेयर

  • पहला अंडा 17 से 18 सप्ताह
  • 150 दिन में 50 प्रतिशत उत्पादन
  • 26 से 28 सप्ताह में व्यस्तम उत्पादन
  • उत्पादन की सहनीयता (96 प्रतिशत) तथा लेयर (94 प्रतिशत)
  • व्यस्तम अंडा उत्पादन 92 प्रतिशत
  • 270 अंडों से ज्यादा 72 सप्ताह तक हेन हाउस
  • अंडे का औसत आकार
  • अंडे का वजन 54 ग्राम

कारी सोनाली लेयर (गोल्डन- 92)

  • 18 से 19 सप्ताह में प्रथम अंडा
  • 155 दिन में 50 प्रतिशत उत्पादन
  • व्यस्तम उत्पादन 27 से 29 सप्ताह
  • उत्पादन (96 प्रतिशत) तथा लेयर (94 प्रतिशत) की सहनीयता
  • व्यस्तम अंडा उत्पादन 90 प्रतिशत
  • 265 अंडों से ज्यादा 72 सप्ताह तक हैन-हाउस
  • अंडे का औसत आकार
  • अंडे का वजन 54 ग्रा

कारी देवेन्द्र

  • एक मध्यम आकार का दोहरे प्रयोजन वाला पक्षी
  • कुशल आहार रूपांतरण- आहार लागत से ज्यादा उच्च सकारात्मक आय
  • अन्य स्टॉक की तुलना में उत्कृष्ट- निम्न लाइंग हाउस मृत्युदर
  • 8 सप्ताह में शरीर वजन- 1700-1800 ग्राम
  • यौन परिपक्वता पर आयु- 155-160 दिन
  • अंडे का वार्षिक उत्पादन- 190-200

कारीब्रो विशाल( कारीब्रो-91)

  • दिवस होने पर वजन – 43 ग्राम
  • 6 सप्ताह में वजन – 1650 से 1700 ग्राम
  • 7 सप्ताह में वजन – 100 से 2200 ग्राम
  • ड्रैसिंग प्रतिशतः   75 प्रतिशत
  • सहनीय प्रतिशत – 97-98 प्रतिशत
  • 6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.94 से 2.20

कारी रेनब्रो (बी-77)

  • दिवस होने पर वजन – 41 ग्राम
  • 6 सप्ताह में वजन – 1300 ग्राम
  • 7 सप्ताह में वजन – 160 ग्राम
  • सहनीय प्रतिशत – 98-99 प्रतिशत
  • ड्रैसिंग प्रतिशतः   73 प्रतिशत
  • 6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.94 से 2.20

कारीब्रोधनराजा (बहुरंगीय)

  • दिवस होने पर वजन – 46 ग्राम
  • 6 सप्ताह में वजन – 1600 से 1650 ग्राम
  • 7 सप्ताह में वजन – 2000 से 2150 ग्राम
  • ड्रेसिंग प्रतिशतः   73 प्रतिशत
  • सहनीय प्रतिशत – 97-98 प्रतिशत
  • 6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.90 से 2.10

कारीब्रो– मृत्युंजय (कारी नैक्ड नैक)

  • दिवस होने पर वजन – 42 ग्राम
  • 6 सप्ताह में वजन – 1650 से 1700 ग्राम
  • 7 सप्ताह में वजन – 200 से 2150 ग्राम
  • ड्रैसिंग प्रतिशतः   77 प्रतिशत
  • सहनीय प्रतिशत – 97-98 प्रतिशत
  • 6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.9 से 2.0

कोयल

  • हाल ही के वर्षों में जैपनीज कोयल ने अपना व्यापक प्रभाव दिखाया है और अंडे तथा मांस उत्पादन के लिए पूरे देश में अनेक कोयला-फार्म स्थापित किये गये हैं। यह उपभोक्ताओं की गुणवत्ता वाले मांस के प्रति बढ़ती हुई जागरुकता के कारण हुआ है।
  • निम्नलिखित घटक कोयल पालन प्राणाली को किफायती और तकनीकी रुप से व्यवहारिक बनाते हैं।
  1. लघु अवधि पीढ़ी अंतराल
  2. कोयल रोग के प्रति काफी सशक्त होती
  3. किसी तरह के टीकाकरण की जरूरत नहीं होती
  4. कम जगह की जरूरत होती
  5. रख-रखाव में आसानी होती
  6. जल्दी परिपक्व होती
  7. अंडे देने की उच्च तीव्रता – मादा 42 की आयु में अंडे देना आरंभ करती

कारी उत्तम

  • कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 60-76 प्रतिशत
  • 4 सप्ताह में वजनः 150 ग्राम
  • 5 सप्ताह में वजनः 170-190 ग्राम
  • 4 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.51
  • 5 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.80
  • दैनिक आहार खपतः 25-28 ग्राम

कारी उज्जवल

  • कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 60-76 प्रतिशत
  • 4 सप्ताह में वजनः 140 ग्राम
  • 5 सप्ताह में वजनः 170-175 ग्राम
  • 5 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.93
  • दैनिक आहार खपतः 25-28 ग्राम

कारी स्वेता

  • कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 50-60 प्रतिशत
  • 4 सप्ताह में वजनः 135 ग्राम
  • 5 सप्ताह में वजनः 155-165 ग्राम
  • 4 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.85
  • 5 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.90
  • दैनिक आहार खपतः 25 ग्राम

कारी पर्ल

  • कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 65-70 प्रतिशत
  • 4 सप्ताह में वजनः 120 ग्राम
  • दैनिक आहार खपतः 25 ग्राम
  • 50 प्रतिशत अंडा उत्पादन की आयुः 8-10 सप्ताह
  • टैन-डे उत्पादनः 285-295 अंडे

गिनी कुक्कुट / गिनी मुर्गा

  • गिनी मुर्गा एक काफी स्वतंत्र घूमने वाला पक्षी है।
  • यह सीमांत और छोटे किसानों के लिए काफी उपयुक्त है।
  • उपलब्ध तीन किस्में हैं- कादम्बरी, चितम्बरी तथा श्वेताम्बरी

विशेष लक्षण

  • स्वस्थ पक्षी
  • किसी भी तरह के कृषि मौसम स्थिति के लिए अनुकूल
  • मुर्गे के अनेक सामान्य रोगों की प्रतिरोधी क्षमता
  • विशाल और महंगे घरों की जरुरत न होना
  • उत्कृष्ट चारा अनुकूलता
  • चिकन आहार में उपयोग न किये जाने वाले समस्त गैर पारंपरिक आहार की खपत
  • माइकोटोक्सीन तथा एफ्लाटोक्सीन के प्रति अधिक वहनीयता
  • अंडे का बाहर का छिलका सख्त होने की वजह से कम टूटता है और इसकी बेहतर गुणवत्ता बनी रहने की अवधि में वृद्धि होती है
  • गिनी मुर्गे का मांस विटामिन से भरपूर होता है तथा इसमें कोलेस्ट्रोल की मात्रा कम होती है।

उत्पादन लक्षण वर्गन

  • 8 सप्ताह में वजन 500-550 ग्राम
  • 12 सप्ताह में वजन 900-1000 ग्राम
  • प्रथम अंडे जनन में आयु 230-250 दिन
  • औसत अंडे का वजन 38-40 ग्राम
  • अंडा उत्पादन (मार्च से सितम्बर तक एक अंडे जनन चक्र में) 100-120 अंडे
  • जनन क्षमता 70-75 प्रतिशत
  • जनन शक्ति वाले अंडे सैट पर हैचेबिल्टी 70-80 प्रतिशत

कारीविराट

  • चौड़ी छाती वाली सफेद प्रकार की
  • टर्की की बाजार में बिक्री लगभग 16 सप्ताह की आयु में ब्रायलर के रूप में उस समय होती है जब मुर्गियां सामान्यतः लगभग 8 किलो ग्राम के जीवित वजन में और टौम का वजन लगभग 12 किलो ग्राम होता है।
  • स्थानीय बाजार की मांग के अनुसार कम आयु में पशुवध द्वारा छोटे, फ्रायर रोस्टरों में इसे तैयार किया जा सकता है।

अन्य देसी नस्लें

नस्लें गृह क्षेत्र
अंकलेश्वर गुजरात
एसील आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश
बुसरा गुजरात और महाराष्ट्र
चिट्टागोंग मेघालय और त्रिपुरा
पगंनकी आंध्र प्रदेश
दाओथीगिर असम
धागुस आंध्र प्रदेश और कर्नाटक
हरिनघाटा ब्लैक पश्चिम बंगाल
काडाकनाथ मध्य प्रदेश
कालास्थी आंध्र प्रदेश
कश्मीर फेवीरोल्ला जम्मू व कश्मीर
मिरी असम
निकोबारी अंडमान एवं निकोबार
पंजाब ब्राउन पंजाब व हरियाणा
टेल्लीचेरी केरल

 

नस्ल संबंधी जानकारी के लिए कृपया निम्नलिखित से सम्पर्क करें –
निदेशक,
केन्द्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान,
इज्जतनगर, उत्तर प्रदेश

 

अगर बकरी पालन का सोच रहें है तो जरुर जानें

बकरी पालन की शुरुआत

खेती और पशु दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। कृषकों की आजीविका इन्हीं दो के इर्द-गिर्द अधिकांशतः घूमती रहती है। खेती कम होने की दशा में लोगों की आजीविका का मुख्य साधन पशुपालन हो जाता है। गरीब की गाय के नाम से मशहूर बकरी हमेशा ही आजीविका के सुरक्षित स्रोत के रूप में पहचानी जाती रही है।

बकरी छोटा जानवर होने के कारण इसके रख-रखाव का खर्च भी न्यूनतम होता है। सूखे के दौरान भी इसके खाने का इंतज़ाम आसानी से हो सकता है, इसके साज-संभाल का कार्य महिलाएं एवं बच्चे भी कर सकते हैं और साथ ही आवश्यकता पड़ने पर इसे आसानी से बेचकर अपनी जरूरत भी पूरी की जा सकती है। बुंदेलखंड क्षेत्र में अधिकतर लघु एवं सीमांत किसान होने के कारण यहां पर सभी परिवार एक या दो जानवर अवश्य पालते हैं, ताकि उनके लिए दूध की व्यवस्था होती रहे। इनमें गाय, भैंस, बकरी आदि होती हैं।

नस्लें

वैसे तो बकरी की जमुनापारी, बरबरी एवं ब्लेक बंगाल इत्यादि नस्लें होती हैं। लेकिन यहां पर लोग सूखा की स्थिति में देशी एवं बरबरी नस्ल की बकरियों का पालन करते हैं, जिनकी देख-रेख आसानी से हो जाती है।

प्रक्रिया

बकरी को पालने के लिए अलग से किसी आश्रय स्थल की आश्यकता नहीं पड़ती। उन्हें अपने घर पर ही रखते हैं। बड़े पैमाने पर यदि बकरी पालन का कार्य किया जाए, तब उसके लिए अलग से बाड़ा बनाने की आवश्यकता पड़ती है। अधिकतर लोग खेती किसानी के साथ बकरी पालन का कार्य करते हैं। ऐसी स्थिति में ये बकरियां खेतों और जंगलों में घूम-फिर कर अपना भोजन आसानी से प्राप्त कर लेती है। अतः इनके लिए अलग से दाना-भूसा आदि की व्यवस्था बहुत न्यून मात्रा में करनी पड़ती है।

देशी बकरियों के अलावा यदि बरबरी, जमुनापारी इत्यादि नस्ल की बकरियां होंगी तो उनके लिए दाना, भूसी, चारा की व्यवस्था करनी पड़ती है, पर वह भी सस्ते में हो जाता है। दो से पांच बकरी तक एक परिवार बिना किसी अतिरिक्त व्यवस्था के आसानी से पाल लेता है। घर की महिलाएं बकरी की देख-रेख करती हैं और खाने के बाद बचे जूठन से इनके भूसा की सानी कर दी जाती है। ऊपर से थोड़ा बेझर का दाना मिलाने से इनका खाना स्वादिष्ट हो जाता है। बकरियों के रहने के लिए साफ-सुथरी एवं सूखी जगह की आवश्यकता होती है।

प्रजनन क्षमता

एक बकरी लगभग डेढ़ वर्ष की अवस्था में बच्चा देने की स्थिति में आ जाती है और 6-7 माह में बच्चा देती है। प्रायः एक बकरी एक बार में दो से तीन बच्चा देती है और एक साल में दो बार बच्चा देने से इनकी संख्या में वृद्धि होती है। बच्चे को एक वर्ष तक पालने के बाद ही बेचते हैं।

प्रमुख रोग

देशी बकरियों में मुख्यतः मुंहपका, खुरपका, पेट के कीड़ों के साथ-साथ खुजली की बीमारियाँ होती हैं। ये बीमारियाँ प्रायः बरसात के मौसम में होती हैं।

उपचार

बकरियों में रोग का प्रसार आसानी से और तेजी से होता है। अतः रोग के लक्षण दिखते ही इन्हें तुरंत पशु डाक्टर से दिखाना चाहिए। कभी-कभी देशी उपचार से भी रोग ठीक हो जाते हैं।

सावधानियां

बकरी पालन करते समय निम्न सावधानियां बरतनी पड़ती हैं-

आबादी क्षेत्र जंगल से सटे होने के कारण जंगली जानवरों का भय बना रहता है, क्योंकि बकरी जिस जगह पर रहती है, वहां उसकी महक आती है और उस महक को सूंघकर जंगली जानवर गांव की तरफ आने लगते हैं।

बकरी के छोटे बच्चों को कुत्तों से बचाकर रखना पड़ता है।

बकरी एक ऐसा जानवर है, जो फ़सलों को अधिक नुकसान पहुँचाती है। इसलिए खेत में फसल होने की स्थिति में विशेष रखवाली करनी पड़ती है। वरना खेत खाने के चक्कर में आपसी दुश्मनी भी बढ़ने लगती है।

समस्याएं

हालांकि बकरी गरीब की गाय होती है, फिर भी इसके पालन में कई दिक्कतें भी आती हैं –

  • बरसात के मौसम में बकरी की देख-भाल करना सबसे कठिन होता है। क्योंकि बकरी गीले स्थान पर बैठती नहीं है और उसी समय इनमें रोग भी बहुत अधिक होता है।
  • बकरी का दूध पौष्टिक होने के बावजूद उसमें महक आने के कारण कोई उसे खरीदना नहीं चाहता। इसलिए उसका कोई मूल्य नहीं मिल पाता है।
  • बकरी को रोज़ाना चराने के लिए ले जाना पड़ता है। इसलिए एक व्यक्ति को उसी की देख-रेख के लिए रहना पड़ता है।

फायदे

  • इनके लिए बाजार आसानी पर ही उपलब्ध है।
  • सूखा प्रभावित क्षेत्र में खेती के साथ आसानी से किया जा सकने वाला यह एक कम लागत का अच्छा व्यवसाय है, जिससे मोटे तौर पर निम्न लाभ होते हैं-
  • जरूरत के समय बकरियों को बेचकर आसानी से नकद पैसा प्राप्त किया जा सकता है।
  • इस व्यवसाय को करने के लिए किसी प्रकार के तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  • यह व्यवसाय बहुत तेजी से फैलता है। इसलिए यह व्यवसाय कम लागत में अधिक मुनाफा देना वाला है।

छाया घर (शेड हाउस)

शेड नेट हाउस

शेड नेट हाउस या छाया घर एग्रो जालों या अन्य बुनी हुई सामग्री से बना हुआ ऐसा ढांचा होता है जिसमे खुली जगहों से आवश्यक धूप, नमी व वायु के प्रवेश के दार होते है। यह पौधे के विकास के लिये सहायक उचित सूक्ष्म वातावरण बनाता है। इसे शेडनेट घर या नेट घर भी कहा जाता है।

छाया घर के उपयोग

  •     यह फूलों, बेलबूटेदार, जडी-बूटी, सब्ज़ियों एवं मसालों के पौधों की खेती में मदद करता है।
  • फलों व सब्ज़ियों की नर्सरियों तथा जंगली प्रजातियों आदि के लिये उपयोग किया जाता है।
  •     विभिन्न कृषि उत्पादों की गुणवत्तापूर्ण सुखाई में मदद करता है।
  •     कीट प्रकोप के विरुद्ध सुरक्षा के लिये उपयोग किया जाता है।
  •     आंधी , वर्षा, ओले व पाले जैसे मौसम के प्राकृतिक प्रकोपों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है।
  •     कलम की कोपलों के उत्पादन तथा गर्मियों के दिनों में उनकी मृत्यु दर कम करने के लिये उपयोग किया    जाता है।
  •     टिशू कल्चर के पौधों की मज़बूती के लिये उपयोग किया जाता है।

छाया घर के लिये नियोजन

छाया घर के ढांचे का नियोजन फसल के प्रकार, स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री व स्थानीय मौसमी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये। भविष्य की आकार वृद्धि के लिये प्रावधान होना चाहिये।

स्थल का चयन

छाया घर ऐसी जगह बनाया जाना चाहिये कि वह सामग्री लाने एवं उपज के विक्रय के लिये बाज़ार से आसानी से जुडा हो। यह ढांचा भवनों एवं पेड़ों से दूर लगाया जाना चाहिये एवं औद्योगिक या वाहनगत प्रदूषण से भी दूर। स्थल पर पानी के निकास की समस्या नहीं होनी चाहिये। बिजली तथा अच्छी गुणवत्ता के पानी का प्रावधान होना चाहिये। लेकिन, वायु कि गति कम करने के उपाय (विंड ब्रेकर) ढांचे से ३० मीटर दूर लगाये जा सकते हैं।

अभिविन्यास

छाया घर के अभिविन्यास के लिये मुख्य रूप से दो पैमाने हैं। वे हैं, छाया घर में अपरिवर्तनशील प्रकाश की तीव्रता व हवा की दिशा। एक मेहराब के ढांचे का पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण दिशा में अभिविन्यास किया जा सकता है लेकिन बहु-मेहराब के ढांचे को अपरिवर्तनशील प्रकाश की तीव्रता के लिये उत्तर-दक्षिण दिशा में अभिविन्याशित किया जाना चाहिये।

संरचना की सामग्री

छाया घर के अभिविन्यास के लिये मुख्य रूप से दो पैमाने हैं। वे हैं, छाया घर में अपरिवर्तनशील प्रकाश की तीव्रता व हवा की दिशा। एक मेहराब के ढांचे का पूर्व-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण दिशा में अभिविन्यास किया जा सकता है लेकिन बहु-मेहराब के ढांचे को अपरिवर्तनशील प्रकाश की तीव्रता के लिये उत्तर-दक्षिण दिशा में अभिविन्याशित किया जाना चाहिये।

संरचना की सामग्री

छाया घर के ढांचे में मूल रूप से दो भाग होते हैं यानि फ्रेम तथा आवरण की सामग्री। छाया घर फ्रेम आवरण सामग्री को सहारा देती है और उसे हवा, बारिश तथा फसल के भार से बचाव के लिये डिज़ाइन किया जाता है। यदि जंगरोधी उपचार नियमित अंतराल पर किया जाये तो छाया घर की लोहे के एंगल की फ्रेम २० से २५ साल तक बरकरार रहती है, जबकि बांस का ढांचा ३ साल तक रह सकता है।

एग्रो शेडनेट ३ से ५ साल तक रहता है जो मौसम की परिस्थिति पर निर्भर होता है। शेडनेट विभिन्न रंगों में उपलब्ध होते हैं और उनमें शेड के प्रतिशत की विस्तृत श्रंखला होती है यानि २५%, ३०%, ३५%, ५०%, ६०%, ७५% एवं ९०%।

छाया घर की फ्रेमों की डिज़ाइन आवश्यकता तथा इंजीनियरिंग कौशल पर निर्भर होती है। उडीसा जैसे भारी बारिश के क्षेत्रों में कोंसेट, गेबल या गॉथिक आकार की संरचनात्मक फ्रेमें या स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल मामूली संशोधन के साथ फ्रेमों की अनुशंसा की जाती है।

छाया घर की डिज़ाइन व संरचना

प्रिसिज़न फार्मिंग डेवलपमेंट सेंटर, कृषि व प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर में दो प्रकार के छाया घर डिज़ाइन विकसित किये गये हैं। इन छाया घरो का मुख्य लाभ यह है कि इन संरचनाओं में निर्माणश्तल पर किसी वेल्डिंग की आवश्यकता नहीं होती है। अन्य लाभ यह है कि इन दीमक के प्रकोप से संरचनाओं की सुरक्षा के लिये आधार के खम्भों का चयन किया गया है। इन शेडहाउसों के विवरण नीचे दिये गये हैं:

छाया घर I :

इस डिज़ाइन (चित्र १) में लोहे के एंगल (३५ मिमी x ३५ मिमी x ६ मिमी) तथा बांस का संरचनात्मक फ्रेम के लिये उपयोग होता है। लोहे के एंगल का उपयोग आधार स्तम्भ के रूप में होता है जिसमें पकड़ के लिये नीचे व बांस को पकड़ने के लिये ऊपर ‘यू’ क्लिप का प्रावधान होता है। बांस का उपयोग कडी तथा छज्जे की संरचना, दोनों के लिये होता है। छाया घर साइट के समतल करने के बाद जमाव की योजना बनायी जाती है। आधार स्तम्भों के लिये गड्ढे खोदे जाते हैं, गड्ढों का एक हिस्सा रेत से भरा जाता है और अच्छी तरह से

जमा दिया जाता है। उसके बाद आधार स्तम्भों को तीन समांतर पंक्तियों मेंShed House बराबर दूरी सुनिश्चित करते हुए सीमेंट कॉंक्रीट से पक्का किया जाता है। उचित उपचार के बाद उचित माप के बांस को कड़ी, छज्जे की गोलाई की संरचना के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और उचित तरीके से बांध दिया जाता है।

पहले से तैयार सिरे की फ्रेम व दरवाज़े की फ्रेम को नट-बोल्ट के ज़रिए ढांचे से कस दिया जाता है। उसके बाद ५०%-७५% की एग्रो शेडनेट को छज्जे से कस दिया जाता है तथा ३०% की नेट को साइड फ्रेम से कस दिया जाता है। अन्दरूनी फ्रेमें व दरवाज़े भी शेडनेट से ढक दिये जाते हैं। अंत में बीच की फर्श और बाउंड्री रिज लाइन को ईंट की जुडाई से बनाया जाता है।

इस प्रकार की छाया घर संरचना का इकाई मूल्य लगभग रु.२२५/स्क्वे.मी. होता है। इस प्रकार के छाया घर में इस्तेमाल किये जाने वाली सामग्री नीचे तालिका १ में दर्शायी गयी है।

सामग्री की सूची (छाया घर – I)

क्रमांक विवरण आइटम विवरण मात्रा
१. “U” के साथ नींव के खम्भे लोहे का एंगल ३५मिमी x ३५ मिमी x ६ मिमी २०९ किलोग्राम
लोहे की पट्टी २५ मिमी x ६ मिमी ७ किलोग्राम
२. दरवाज़े की प्रणाली एवं सिरे की फ्रेम लोहे का एंगल ३५मिमी x ३५मिमी x६ मिमी ७१ किलोग्राम
३. छत का ढांचा बांस ७५मिमी – १००मिमी व्यास २० की संख्या में
४. छत एवं साइड के कवर एग्रोशेडनेट ५०% – ७०% एवं ३०% ३२८ स्क्वे.मी.
५. नींव की ग्राउटिंग सीमेंट कॉंक्रीट १:२:४, १२मिमी चिप्स के साथ १.३क्यू.मी.
६. जंगरोधी उपचार एनेमल पेंट व थिनर ४ लिटर
७. ढांचा खडा करना (i) नट एवम बोल्ट ३/८”x१” १ किलोग्राम
(ii) जी.आइ. का तार ४मिमी २ किलोग्राम
८. फर्श ईंट की जुडाई सीमेंट मोर्टार (१:६) २.४क्यू.मी.

शेड हाउस II :

इस डिज़ाइन (चित्र २) में छाया घर की संरचना के लिये आधार स्तम्भों, कड़ियों, सिरे की फ्रेम तथा दरवाज़े के लिये लोहे के एंगल (४० मिमी x ४० मिमी x ६ मिमी) का उपयोग होता है। लोहे की पट्टी का उपयोग आवरण साम्ग्री के हूप्स के लिये होता है। आधार स्तम्भों में कडियों वा हूप्स के साथ कसने के लिये नट-बोल्ट का प्रावधान होता है। इसी तरह से हूप्स के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली लोहे की पट्टियों में कडियों के साथ कसने का प्रावधान होता है।

निर्माण स्थल पर लेवलिंग तथा जमाय की योजना पिछले मामले की तरह किये जाते हैं। आधार स्तम्भों को गड्ढों में सीमेंट कॉंक्रीट से पक्का किया जाता है और उपचारसात दिनों तक किया जाता है। कडियों, हूप्स, सिरे की फ्रेम व दरवाज़े की फ्रेम को नट-बोल्ट के ज़रिए ढांचे से कस दिया जाता है। इसके बाद नेट को संरचना पर लगाया जाता है। अंत में बीच का फर्श तथा बाउंड्री रिज लाइन को ईंट की जुडाई से बनाया जाता है।

इस प्रकार की छाया घर संरचना का इकाई मूल्य लगभग रु.५००/स्क्वे.मी. होता है। इस प्रकार के छाया घर में इस्तेमाल किये जाने वाली सामग्री नीचे तालिका २ में दर्शायी गयी है।

सामग्री की सूची (शेड हाउस – II)

क्रमांक विवरण आइटम विवरण मात्रा
१. नींव के खम्भे लोहे का एंगल ४०mm x ४०mm x ६mm 3३६ किलोग्राम
२. कडी तथा सिरे की फ्रेम लोहे का एंगल ४०mm x ४०mm x ६mm ३०५ किलोग्राम
3. दरवाज़े की फ्रेम लोहे का एंगल ४०mm x ४०mm x ६mm ४१ किलोग्राम
४. छल्ले लोहे की पट्टी ३०mm x ६mm १५९ किलोग्राम
५. छत एवं साइड के कवर एग्रोशेडनेट ५०% – ७०% & ३०% ३२८ स्क्वे.मीटर
६. नींव की ग्राउटिंग सीमेंट कॉंक्रीट १:२:४, १२mm चिप्स के साथ १.८ क्यू.मीटर
७. रास्ते की फर्श ईंट की जुडाई सीमेंट मोर्टार (१:६) २.४ क्यू.मीटर
८. ढांचा खडा करना (i) नट एवं बोल्ट ३/८”x१” ४ किलोग्राम
(ii) जीआइ का तार ४mm ४ किलोग्राम
९. जंगरोधी उपचार एनेमल पेंट व थिनर ८ लिटर

अच्छी पैदावार के लिए जाने बीजों के बारे मे महत्वपूर्ण बातें

अच्छी उपज के लिए बीजों की जानकारी होना आवश्यक है इससे न केवल उत्पादकता बढती है बल्कि लागत में भी कमी आती है, आइये जानते हैं बीजों के विषय में महत्वपूर्ण बातें |

उत्तम कोटि का बीज क्या है।

अनुवॉंशिक रूप से शतप्रतिशत शुद्ध बीज को उत्तम बीज कहते है।

बुवाई के लिए कौन से बीज का प्रयोग करें।

प्रमाणित बीज बुवाई के लिए उपयुक्त होता है। किसान भाई आधारीय बीज-1 एवं आधारीय बीज-2 से भी अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।

बीज शोधन कैसे करें तथा क्या लाभ है।

प्रमाणित बीज शोधित बीज होता है, किन्तु जिन बीजों का शोधन नहीं हुआ हो उन्हें थीरम अथवा कार्बेन्डाजिम से शोधित करें, जिससे बीमारियों एवं रोगों से मुक्ति मिल सके।

बीज उत्पादन में रोगिंग क्या है।

बीज उत्पादन की प्रक्रिया में नियत प्रजाति के उत्पादन में अन्य प्रजाति के पौधे को उखाड़कर खेत से बाहर करना रोगिंग कहलाता है, जिससे बीज/प्रजाति की शुद्धता बनी रहती है।

क्या कई प्रकार के बीज होते है।

जी हॉं मुख्यतया चार प्रकार के बीज होते है।

  1. प्रजनक बीज
  2. आधारीय बीज
  3. प्रमाणित बीज
  4. सत्यापित बीज।

बीजों की गुणवत्ता कहॉं जॉंची जाती है।

बीज विश्लेषण केन्द्र जहॉं से बीजों की गुणवत्ता की जॉंच की जाती है।

बीज खरीदते समय किस बात का ध्यान रखें।

बीज क्रय करते समय रसीद जरूर प्राप्त करें तथा बीज के बैग पर टैगिंग को जरूर देखें

बीजोत्पादन क्या किसान कर सकता है।

जी हॉं, सर्वप्रथम बीजोत्पादन हेतु पंजीकरण करायें तत्पश्चात बोये जाने वाली फसल की प्रजाति सुनिश्चित करते हुए बीज उत्पादन तकनीकी प्रक्रिया को अपनायें।

हाइब्रिड बीज क्या है।

अधिक उत्पादन प्राप्त करने हेतु शोध द्वारा बीजों के गुणो में विकास कर तैयार किये गये बीज को हाइब्रिड बीज या संकर बीज कहते है।

हाइब्रिड बीज को अगले वर्ष के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

प्रयास करें कि हाइब्रिड का भण्डारण कृषक अपने स्तर पर न करें क्योंकि इनमें अंकुरण क्षमता वाहय कारणों के कारण प्रभावित हो जाता है, जिससे जमाव घट जाता है। अतः किसान भाई प्रत्येक वर्ष नये हाइब्रिड बीज का उपयोग करें।

क्या सभी फसलों के हाइब्रिड बीज उपलब्ध है।

मुख्य रूप से धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, सरसों के हाइब्रिड बीज उपलब्ध है।

संस्तुत प्रजातियॉं क्या हैं।

शोध के उपरान्त सरकारी तन्त्र से अनुमोदित प्रजातियॉं ही संस्तुत प्रजातियॉं कहलाती है।

सत्यापित बीज (टी0एल0) का प्रयोग लाभदायी है अथवा नहीं।

सत्यापित बीज अथवा टी0एल0 का उत्पादन भी प्रमाणित बीज की तरह किया जाता है तथा बीज के बैग पर संस्था का टैग लगा होता है, इसलिए सत्यापित बीज अथवा टी0एल0 का प्रयोग लाभदायी होता है।

बीज का जमाव कम हो अथवा बीज खराब हो इसकी सूचना किसे दें।

जिला कृषि अधिकारी/उप कृषि निदेशक को खराब बीज की सूचना अवश्य दें, जिससे उचित कार्यवाही की जा सके।

ब्रायलर मुर्गीपालन में ध्यान देने योग्य बातें

ब्रॉयलर उत्पादन के विषय मे महत्वपूर्ण जानकारी

ब्रायलर मुर्गीपालन में ध्यान देने योग्य बातें

  1. ब्रायलर के चूजे की खरीदारी में ध्यान दें कि जो चूजे आप खरीद रहें हैं उनका वजन 6 सप्ताह में 3 किलो दाना खाने के बाद कम से कम 1.5 किलो हो जाये तथा मृतयु दर 3 प्रतिशत से अधिक ना हो ।
  2. अच्छे  चूजे की खरीद  कि लिए  पशुचिकित्सा महाविद्यालय के कुक्कुट से विशेषज्ञ या राज्य के संयुक्त निदेशक, कुक्कुट से संम्पर्क कर लें । उनसे आपको इस बात की जानकारी मिल जायेगी कि किस हैचरी का चूजा खरीदना अच्छा होगा ।
  3. चूजा के आते ही उसे बक्सा समेत कमरे के अन्दर ले जायें, जहाँ ब्रूडर रखा हो । फिर बक्से का ढक्कन खोल दें। अब एक एक करके सारे चूजों को इलेक्ट्रल पाउडर या ग्लूकोज मिला पानी पिलाकर ब्रूडर के निचे छोड़ते जायें। बक्से में अगर बीमार चूजा है तो उसे हटा दें।
  4. चूजों के जीवन के लिए पहला तथा दूसरा सप्ताह संकटमय होता है । इस लिए इन दिनों में अधिक देखभाल की आवश्यकता होती है। अच्छी देखभाल से मृत्यु संख्या कम की जा सकती है।
  5. पहले  सप्ताह में ब्रूडर में तापमान 90 0 एफ. होना चाहिए। प्रत्येक सप्ताह 5 एफ. कम करते जायें तथा 70  एफ. से नीचे ले जाना चाहिए। यदि चूजे ब्रूडर के नीचे बल्ब के नजदीक एक साथ जमा हो जायें । तो समझना चाहिए के ब्रूडर में तापमान कम हैं। तापमान बढ़ाने के लिए अतिरिक्त बल्ब का इन्तजाम करें या जो बल्ब ब्रूडर में लगा है। यदि चूजे बल्ब से काफी दूर किनारे में जाकर जमा हो तो समझना चाहिए ब्रूडर में तापमान ज्यादा हैं। ऐसी स्थिति में तापमान कम करें।

दैनिक विवरण 

  1. पहले दिन जो पानी पीने के लिए चूजे को दें, उसमें इलेक्ट्रल पाउडर या ग्लूकोज मिलायें। इसके अलावा 5 मि.ली. विटामिन ए., डी. 3 एवं बी.12 तथा 20 मि.ली. बी काम्प्लेक्स प्रति 100 चूजों के हिसाब से दें। इलेक्ट्रल पाउडर या ग्लूकोज दूसरे दिन से बन्द कर दें। बाकी दवा सात दिनों तक दें । वैसे बी- काम्प्लेक्स या कैल्सियम युक्त दवा 10 मि.ली. प्रति 100 मुर्गियों के हिसाब से हमेशा दे सकते हैं।
  2. जब चूजे पानी पी लें तो उसके 5-6 घंटे बाद अखबार पर मकई का दर्रा छीट दें, चूजे इसे खाना शुरु कर देंगे। इस दर्रे को 12 घंटे तक खाने के लिए देना चाहिए।
  3. तीसरे दिन से फीडर में प्री-स्टार्टर दाना दें। दाना फीडर में देने के साथ – साथ अखबार पर भी छीटें । प्री-स्टार्टर दाना 7 दिनों तक दें। चौथे या पाँचवें दिन से दाना केवल फीडर में ही दें। अखबार पर न छीटें।
  4. आठवें रोज से 28 दिन तक ब्रायलर को स्टार्टर दाना दें। 29 से 42 दिन या बेचने तक फिनिशर दाना खिलायें।
  5. दूसरे दिन से पाँच दिन के लिए कोई एन्टी बायोटिकस दवा पशुचिकित्सक से पूछकर आधा ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर दें। ताकि चूजों को बीमारियों से बचाया जा सके।
  6. शुरु के दिनों में विछाली (लीटर) को रोजाना साफ करें। विछाली रख दें। पानी बर्त्तन रखने की जगह हमेशा बदलते रहें।
  7. पाँचवें या छठे दिन चूजे को रानीखेत का टीका एफ –आँख तथा नाक में एक –एक बूँद दें।
  8. 14 वें या 15 वें दिन गम्बोरो का टीका आई.वी.डी. आँख तथा नाक में एक –एक बूँद दें।

सावधानियां 

  1. मरे हुए चूजे को कमरे से तुरन्त बाहर निकाल दें। नजदीक के अस्पताल या पशुचिकित्सा महाविद्यालय या पशुचिकित्सक से पोस्टमार्टम करा लें। पोस्टमार्टम कराने से यह मालूम हो जायेगा की मौत किस बीमारी या कारण से हई है।
  2. मुर्गी घर के दरवाजे पर एक बर्त्तन या नाद में फिनाइल का पानी रखें। मुर्गीघर में जाते या आते समय पैर धो लें। यह पानी रोज बदल दें।

मुर्गियों को खिलाने के लिए दाना-मिश्रण

अवयव चूजे प्रतिशत
बढ़ने वाली
अण्डा देन
वाली मुर्गी
मकई 22 25 40
चावल का कण 35 45 30
चोकर 5 5 5
चिनिया बादाम की
खली
25 16 15
मछली का चूरा 10 6 5
चूने का पत्थर 1.0 1.5 3
हड्डी का चूण 1.0 1.0 1.5
नमक 0.5 0.5 0.5
मैगनीज सल्फेट
ग्राम 100 कि.
0.5 25 25
विटामिन
अपोषक खाद्य सप्लीमेंट
  • प्रति 100 ग्राम दानों में विटामिन की निम्नांकित मात्रा डालनी चाहिए -10 ग्राम रोमीमिक्स ए.वी. 2 डी. 3 के या वीटाब्लेड के 20 ग्राम (ए.वी.2डी.3) या अलग-अलग विटामिन ए के इंटरनेशनल यूनिट्स 10,000 विटामिन डी 3 के आई.सी.यू एवं 500 मि.ग्राम रीबोफ्लोविन । इसके अतिरिक्त प्रजनन वाले मुर्गे – मुर्गीयों के लिए 15,000 आई.यूविटामिन ई. 1 मि. ग्राम विटामिन बी. 12 (10 ग्राम ए.पी.एफ100) एवं वायोटीन 6 मि.ग्राम प्रजनन के लिए दिये जाने वाले मिश्रण में कुछ अन्य विटामिन एवं ट्रेस मिनरल मिलाये जाते हैं।
  • 50 ग्राम एम्प्रोल या बाईफ्यूरान एवं 100 ग्राम टी.एम. 5 या औरोफेक प्रति क्विंटल दाना में मिलाया जाता है।

नोटः

(अ) पीली मकई, चावल के कण एवं टूटे गेहुँ को ऊर्जा के स्त्रोत के रुप में दाना में मिलाया जाता है। दाना में यह एक दूसरे की जगह प्रयुक्त हो सकते हैं।
(ब) चिनिया बादाम की खली के 8.5 प्रतिशत भाग में रेपसीड खली या सरसों की खली से पुरा किया जा सकता है।
(स) मछली का चूरा या मास की बुकनी को भी एक दूसरे से पूरा किया जा सकता है, लिकिन अच्छे दाना-मिश्रण में 2.3 प्रतिशत अच्छी तरह का मछली का चूरा अवश्य देना चाहिए।

मांस के लिए पाली जाने वाली मुर्गी का दाना

दाना मिश्रणप्रतिशत में
अवयव 1 2 3 4
अनाज का दर्रा (मकई ,गेहूँ बाजरा,ज्वर, मडुआ आदि) । 56 52 57 55
चिनिया बादाम की खली 20 25 15 20
चोकर चावल का कुंडा, चावल
ब्रान आदि ।
10 11 18 15
मछली का चूरा 12 10 8 8
हड्डी का चूण 2.5 2.5 2.5 2.5
लवण मिश्रण 1.5 1.5 1.5 1.5
साधारण नमक 0.5 0.5 0.5 0.5

दाना मिश्रण सं.1 एवं 2 को छः सप्ताह तक एवं उसके बाद 3 एवं 4 नं. खिलायें । प्रति 100 कि. दाना मिश्रण में विटामिन सप्लीमेंट 25 ग्राम खिलायें।

जानें फव्वारा सिंचाई के बारे मै

जानें फव्वारा सिंचाई के बारे मै

फव्वारा सिंचाई एक ऐसी पद्धति है जिसके द्वारा पानी का हवा में छिड़काव किया जाता है और यह पानी भूमि की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। पानी का छिड़काव दबाव द्वारा छोटी नोजल या ओरीफिस में प्राप्त किया जाता है। पानी का दबाव पम्प द्वारा भी प्राप्त किया जाता है। कृत्रिम वर्षा चूंकि धीमें-धीमें की जाती है, इसलिए न तो कहीं पर पानी का जमाव होता है और न ही मिट्टी दबती है। इससे जमीन और हवा का सबसे सही अनुपात बना रहता है और बीजों में अंकुर भी जल्दी फूटते हैं।

यह एक बहुत ही प्रचलित विधि है जिसके द्वारा पानी की लगभग 30-50 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। देश में लगभग सात लाख हैक्टर भूमि में इसका प्रयोग हो रहा है। यह विधि बलुई मिट्टी, ऊंची-नीची जमीन तथा जहां पर पानी कम उपलब्ध है वहां पर प्रयोग की जाती है। इस विधि के द्वारा गेहूँ, कपास, मूंगफली, तम्बाकू तथा अन्य फसलों में सिंचाई की जा सकती है। इस विधि के द्वारा सिंचाई करने पर पौधों की देखरेख पर खर्च कम लगता है तथा रोग भी कम लगते हैं।

फव्वारा और सतही सिंचाई पद्धतियों की तुलना

सिंचाई प्रणाली उत्पादन
(
क्विं./है.)
जलोपयोग दक्षता
(
क्विं./है.सें.मी.)
मूंगफली
बॉर्डर (सीमान्त पट्टी) 23.2 25.85
चैक (क्यारी) 23.8 26.45
फव्वारा 28.9 46.80
मिर्च
कूँड़ 18.87 45.03
फव्वारा 25.23 81.57
  • सतही सिंचाई की अपेक्षा छिड़काव सिंचाई द्वारा जल प्रबन्धन आसान होता है।
  • छिड़काव सिंचाई पद्धति में फसल उत्पादन के लिए लगभग 10 प्रतिशत अधिक क्षेत्रफल उपलब्ध होता है क्योंकि इसमें नालियां बनाने की आवश्यकता नहीं होता।
  • छिड़काव सिंचाई विधि में पानी का लगभग 80 प्रतिशत भाग पौधों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है, जबकि पारम्परिक विधि में सिर्फ 30 प्रतिशत पानी का ही उपयोग होता है।

इस विधि में पम्प यूनिट, रेणु छत्रक, दाबमापी, मुख्य लाइन, उप-मुख्य लाइन, दाव नियंत्रक पेंच, राइजर लाइन, फव्वारा शीर्ष तथा अन्तिम पेंच प्रयोग किए जाते हैं।

जहां पर सिंचाई के लिए खारा जल ही उपलब्ध हो, वहां पर इस प्रणाली द्वारा ज्यादा पैदावार ली जा सकती है।

फव्वारा सिंचाई के फायदे

  • सिंचाई के परम्परागत तरीकों के मुकाबले इस विधि से सिंचाई करने पर मात्र 50-70 प्रतिशत पानी की आवश्यकता होती है।
  • जमीन को सममतल करने की जरूरत नहीं होती। ऊंचे-नीचे और मुश्किल माने जाने वाले भू-भागों में भी खेती की जा सकती है।
  • बजाय इस बात के इंतजार में बैठे रहने के कि स्वाभाविक वर्षा या फिर सतही सिंचाई के बाद जमीन ठीक से नम हो तो जुताई की जाए, फव्वारा पद्धति से उचित समय पर जुताई और पौध रोपाई का काम किया जा सकता है।
  • पाले और अत्यधिक गर्मी से फसल की गुणवत्ता कम हो जाती है। इस सिंचाई से फसल को बचाया जा सकता है।
  • पौधों की रक्षा पर होने वाला खर्च कम हो जाता है क्योंकि कीड़े-मकोड़े और बीमारियां जैसी समस्याएं कम पैदा होती हैं। छिड़काव की पद्धति के जरिए कीटनाशकों अथवा पौधों को पौष्टिकता देने वाली दवाएं बेहतर ढंग से छिड़की जा सकती हैं।
  • फव्वारा के जरिए की जाने वाली सिंचाई का लाभ लगभग हर किस्म की फसल को पहुँचाया जा सकता हैं।
  • नालियों या बांध बनाने की जरूरत नहीं पड़ती जिससे खेती के लिए ज्यादा जमीन उपलब्ध हो जाती है।
  • इस विधि के द्वारा घुलनशील खाद भी लगाई जा सकती है, जिससे खाद की बचत होती है।

फव्वारा सिंचाई की सीमाएं

  • अधिक हवा होने पर पानी का वितरण समान नहीं रह पाता है।
  • पके हुए फलों को फुहारे से बचाना चहिए।
  • पद्धति के सही उपयोग के लिए लगातार जलापूर्ति की आवश्यकता होती है।
  • पानी साफ हो, उसमें रेत, कूड़ा करकट न हो और पानी खारा नहीं होना चाहिए।
  • इस पद्धति को चलाने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
  • चिकनी मिट्टी और गर्म हवा वाले क्षेत्रों में इस पद्धति के द्वारा सिंचाई नहीं की जा सकती।

उपयुक्तता

यह विधि सभी प्रकार की फसलों की सिंचाई के लिए उपयुक्त है। कपास, मूंगफली तम्बाकू, कॉफी, चाय, इलायची, गेहूँ व चना आदि फसलों के लिए यह विधि अधिक लाभदायक हैं।

यह विधि बलुई मिट्टी, उथली मिट्टी ऊंची-नीची जमीन, मिट्टी के कटाव की समस्या वाली जमीन तथा जहां पानी की उपलब्धता कम हो, वहां अधिक उपयोगी है।

छिड़काव सिंचाई पद्धति की अभिकल्पना एवं रूपरेखा के लिए सामान्य नियम

  • पानी का स्त्रोत सिंचित क्षेत्रफल के मध्य में स्थित होनी चाहिए जिससे कि कम से कम पानी खर्च हो।
  • ढलाऊ भूमि पर मुख्य नाली ढलान की दिशा में स्थित होनी चाहिए।
  • पद्धति की अभिकल्पना और रूप रेखा इस प्रकार होनी चाहिए जिससे कि दूसरे कृषि कार्यों में बाधा न पड़े।
  • असमतल भूमि में अभिकल्पित जल वितरण पूरे क्षेत्रफल पर समान रहना चाहिए, अन्यथा फसल वृद्धि असमान ही रहेगी।

जानें जीरो बजट खेती के बारे मे

जानें जीरो बजट खेती अर्थात कम लागत या न के बराबर लागत में खेती करना जो आसानी से की जा सकती है | साथ ही इसके लिए किसान को बाजार के ऊपर निर्भर नहीं होना पढता एवं यह पर्यावरणीय दृष्टी से भी उपयुक्त है| आइये जानते हैं आखिर क्या है यह जीरो बजट खेती:

परिचय

धरती में इतनी क्षमता है कि वह सब की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने में वह सक्षम नहीं हैI महात्मा गांधी के सोलह आना सच्चे इस वाक्य को ध्यान में रखकर जीरो बजट प्राकृतिक खेती की जाये, तो किसान को न तो अपने उत्पाद को औने-पौने दाम में बेचना पड़े और न ही पैदावार कम होने की शिकायत रहे।

लेकिन सोना उगलने वाली हमारी धरती पर खेती करने वाला किसान लालच का शिकार हो रहा है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले इस देश में रासायनिक खेती के बाद अब जैविक खेती सहित पर्यावरण हितैषी खेती,एग्रो इकोलोजीकल फार्मिंग,बायोडायनामिक फार्मिंग, वैकल्पिक खेती,शाश्वत कृषि,सावयव कृषि, सजीव खेती, सांद्रिय खेती, पंचगव्य, दशगव्य कृषि तथा नडेप कृषि जैसी अनेक प्रकार की विधियां अपनाई जा रही हैं और संबंधित जानकार इसकी सफलता के दावे करते आ रहे हैं।

परन्तु किसान भ्रमित है। परिस्थितियां उसे लालच की ओर धकेलती जा रही हैं। उसे नहीं मालूम उसके लिये सही क्या है ? रासायनिक खेती के बाद उसे अब जैविक कृषि दिखाई दे रही है। किन्तु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती,सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग (पृथ्वी के बढ़ते तापमान) का मुकाबला करने वाली “जीरो बजट प्राकृतिक खेती“ मानी जा रही है।

जीरो बजट प्राकृतिक खेती क्या है?

जीरो बजट प्राकृतिक खेती देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र पर आधारित है। एक देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से एक किसान तीस एकड़ जमीन पर जीरो बजट खेती कर सकता है। देसी प्रजाति के गौवंश के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत तथा जामन बीजामृत बनाया जाता है। इनका खेत में उपयोग करने से मिट्टी में पोषक तत्वों की वृद्धि के साथ-साथ जैविक गतिविधियों का विस्तार होता है।

जीवामृत का महीने में एक अथवा दो बार खेत में छिड़काव किया जा सकता है।जबकि बीजामृत का इस्तेमाल बीजों को उपचारित करने में किया जाता है। इस विधि से खेती करने वाले किसान को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। फसलों की सिंचाई के लिये पानी एवं बिजली भी मौजूदा खेती-बाड़ी की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है ।

पर्यावरण पर असर

कृषि वैज्ञानिकों एवं इसके जानकारों के अनुसार फसल की बुवाई से पहले वर्मीकम्पोस्ट और गोबर खाद खेत में डाली जाती है और इसमें निहित 46 प्रतिशत उड़नशील कार्बन हमारे देश में पड़ने वाली 36 से 48 डिग्री सेल्सियस तापमान के दौरान खाद से मुक्त हो वायुमंडल में निकल जाता है। इसके अलावा नायट्रस, ऑक्साइड और मिथेन भी निकल जाती है और वायुमंडल में हरितगृह निर्माण में सहायक बनती है। हमारे देश में दिसम्बर से फरवरी केवल तीन महीने ही ऐसे है, जब तापमान उक्त खाद के उपयोग के लिये अनुकूल रहता है।

आयातित केंचुआ या देसी केंचुआ?

वर्मी कम्पोस्ट खाद बनाने में इस्तेमाल किये जाने वाले आयातित केंचुओं को भूमि के उपजाऊपन के लिये हानिकारक मानने वाले श्री पालेकर बताते है कि दरअसल इनमें देसी केचुओं का एक भी लक्षण दिखाई नहीं देता। आयात किया गया यह जीव केंचुआ न होकर आयसेनिया फिटिडा नामक जन्तु है, जो भूमि पर स्थित काष्ट पदार्थ और गोबर को खाता है।

जबकि हमारे यहां पाया जाने वाला देशी केंचुआ मिट्टी एवं इसके साथ जमीन में मौजूद कीटाणु एवं जीवाणु जो फसलों एवं पेड़- पौधों को नुकसान पहुंचाते है, उन्हें खाकर खाद में रूपान्तरित करता है। साथ ही जमीन में अंदर बाहर ऊपर नीचे होता रहता है, जिससे भूमि में असंख्यक छिद्र होते हैं, जिससे वायु का संचार एवं बरसात के जल का पुर्नभरण हो जाता है । इस तरह देसी केचुआ जल प्रबंधन का सबसे अच्छा वाहक है । साथ ही खेत की जुताई करने वाले “हल “ का काम भी करता है ।

सफलता की शुरुआत

जीरो बजट प्राकृतिक खेती जैविक खेती से भिन्न है तथा ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में आने वाले बदलाव का मुकाबला एवं उसे रोकने में सक्षम है । इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज के झंझट से भी मुक्त रहता है । प्राप्त जानकारी के अनुसार अब तक देश में करीब 40 लाख किसान इस विधि से जुड़े हुये आयातित ।

पशुओं में बांझपन के कारण और उनका उपचार

पशुओं में बांझपन के कारण और उनका उपचार

भारत में डेयरी फार्मिंग और डेयरी उद्योग में बड़े नुकसान के लिए पशुओं का बांझपन ज़िम्मेदार है. बांझ पशु को पालना एक आर्थिक बोझ होता है और ज्यादातर देशों में ऐसे जानवरों को बूचड़खानों में भेज दिया जाता है.

पशुओं में, दूध देने के 10-30 प्रतिशत मामले बांझपन और प्रजनन विकारों से प्रभावित हो सकते हैं. अच्छा प्रजनन या बछड़े प्राप्त होने की उच्च दर हासिल करने के लिए नर और मादा दोनों पशुओं को अच्छी तरह से खिलाया-पिलाया जाना चाहिए और रोगों से मुक्त रखा जाना चाहिए.

बांझपन के कारण

बांझपन के कारण कई हैं और वे जटिल हो सकते हैं. बांझपन या गर्भ धारण कर एक बच्चे को जन्म देने में विफलता, मादा में कुपोषण, संक्रमण, जन्मजात दोषों, प्रबंधन त्रुटियों और अंडाणुओं या हार्मोनों के असंतुलन के कारण हो सकती है.

यौन चक्र

गायों और भैंसों दोनों का  यौन (कामोत्तेजना) 18-21 दिन में एक बार 18-24 घंटे के लिए होता है. लेकिन भैंस में, चक्र गुपचुप तरीके से होता है और  किसानों के लिए एक बड़ी समस्या प्रस्तुत करता है. किसानों के अल-सुबह से देर रात तक 4-5 बार जानवरों  की सघन निगरानी करनी चाहिए. उत्तेजना का गलत अनुमान बांझपन के स्तर में वृद्धि कर सकता है. उत्तेजित पशुओं में दृश्य लक्षणों का अनुमान लगाना  काफी कौशलपूर्ण  बात है. जो किसान अच्छा रिकॉर्ड बनाए रखते हैं और जानवरों के हरकतें देखने में अधिक समय बिताते हैं, बेहतर परिणाम प्राप्त करते हैं.

बांझपन से बचने के लिए युक्तियाँ

  • ब्रीडिंग कामोत्तेजना अवधि के दौरान की जानी चाहिए.
  • जो पशु कामोत्तेजना नहीं दिखाते हैं या जिन्हें चक्र नहीं आ रहा हो, उनकी जाँच कर इलाज किया जाना चाहिए.
  • कीड़ों से प्रभावित होने पर छः महीने में एक बार पशुओं का डीवर्मिंग के उनका स्वास्थ्य ठीक रखा जाना चाहिए. सर्वाधिक डीवर्मिंग में एक छोटा सा निवेश, डेरी उत्पाद प्राप्त करने में अधिक लाभ ला सकता है.
  • पशुओं को  ऊर्जा के साथ प्रोटीन, खनिज और विटामिन की आपूर्ति करने वाला एक अच्छी तरह से संतुलित आहार दिया जाना चाहिए. यह  गर्भाधान की दर में  वृद्धि  करता है, स्वस्थ गर्भावस्था, सुरक्षित प्रसव सुनिश्चित करता है, संक्रमण की घटनाओं को कम और एक स्वस्थ बछड़ा होने में मदद करता है.
  • अच्छे पोषण के साथ युवा मादा बछड़ों की देखभाल उन्हें 230-250 किलोग्राम इष्टतम शरीर के वजन के साथ सही समय में यौवन प्राप्त करने में मदद करता है, जो प्रजनन और इस तरह बेहतर गर्भाधान के लिए उपयुक्त होता है.
  • गर्भावस्था के दौरान हरे चारे की पर्याप्त मात्रा  देने से नवजात बछड़ों को अंधेपन से बचाया जा सकता है और (जन्म के बाद)  नाल को बरकरार रखा जा सकता है.
  • बछड़े के जन्मजात दोष और संक्रमण से बचने के लिए सामान्य रूप से सेवा लेते समय सांड के प्रजनन इतिहास की जानकारी  बहुत महत्वपूर्ण है.
  • स्वास्थ्यकर परिस्थितियों में गायों की सेवा करने और बछड़े पैदा करने से गर्भाशय के संक्रमण से बड़े पैमाने पर  बचा जा सकता है.
  • गर्भाधान के 60-90 दिनों के बाद गर्भावस्था की पुष्टि के लिए जानवरों की जाँच योग्य पशु चिकित्सकों द्वारा  कराई जानी चाहिए.
  • जब गर्भाधान होता है, तो गर्भावस्था के दौरान मादा यौन उदासीनता की अवधि में प्रवेश करती है (नियमित कामोत्तेजना का प्रदर्शन नहीं करती). गाय के लिए गर्भावस्था  अवधि लगभग 285 दिनों की होती है और भैंसों के लिए, 300 दिनों की.
  • गर्भावस्था के अंतिम चरण के दौरान अनुचित तनाव और परिवहन से परहेज किया जाना चाहिए.
  • गर्भवती पशु को  बेहतर खिलाई-पिलाई प्रबंधन और प्रसव देखभाल के लिए सामान्य झुंड से दूर रखना चाहिए.
  • गर्भवती जानवरों का प्रसव से दो महीने पहले पूरी तरह से दूध निकाल लेना चाहिए और उन्हें पर्याप्त पोषण और व्यायाम दिया जाना चाहिए. इससे माँ के स्वास्थ्य में सुधार करने में मदद मिलती है,  औसत वजन के साथ एक स्वस्थ बछड़े का प्रजनन होता है, रोगों में कमी होती है और यौन चक्र की शीघ्र वापसी होती है.
डॉ.टी.सेंथिलकुमार, विस्तार शिक्षा निदेशालय, तनुवास, चेन्नई – 600 051