राजस्थान में दिसम्बर 2013 तक कृषि कनेक्शन हेतु लम्बित 3 व 5 एच.पी. के लगभग 70 हजार आवेदकों के कृषि पम्प सेटों को सौर ऊर्जा से ऊर्जीकृत करने एवं ग्रीन ऊर्जा को प्रोत्साहित करने हेतु सोलर पम्प कृषि कनेक्शन योजना आरम्भ की गई है। इस योजना से किसानों को दिन में बिजली मिलेगी और विद्युत बिल भी नही देना पड़ेगा। इस योजना हेतु पंजीकरण 1 जुलाई, 2017 से 31 जुलाई, 2017 तक किया जाएगा।
जयपुर विद्युत वितरण निगम के प्रबन्ध निदेशक श्री आर.जी.गुप्ता ने बताया की सोलर पम्प कृषि कनेक्शन योजना में सौर ऊर्जा पम्प कनेक्शन उन कृषि कनेक्शन आवेदको को देय होगा जो विद्युत वितरण निगमों की सामान्य कृषि श्रेणी में 3 एच.पी. व 5 एच.पी. के लिए 1 मार्च 2010 से 31 दिसम्बर 2013 तक पंजीकृत है।
सोलर पम्प कृषि कनेक्शन योजना
योजना पूर्णरूप से स्वैच्छिक है एवं प्रथम चरण में 10,000 सोलर पम्प स्थापित किये जायेंगे।
योजना में पंजीकरण हेतु सामान्य कृषि कनेक्शन आवेदक विद्युत निगम के सम्बन्धित सहायक अभियन्ता (पवस) कार्यालय में रूपये 1000/- जमा कराकर आवेदन कर सकेगें। इसके साथ ही मांग के अनुसार स्वेच्छा से पूर्व में आवेदित 3 एच.पी. पत्रावली को 5 एच.पी. विद्युत भार के लिए भी बदल सकेंगे।
योजना में आवेदन करने के पश्चात् कृषि कनेक्शन आवेदक की सौर ऊर्जा पम्प सेट स्थापित होने तक मूल प्राथमिकता निगम कार्यालय मे अप्रभावित रहेगीं। सौर ऊर्जा कृषि कनेक्शन जारी होने के पश्चात् कृषि कनेक्शन आवेदन की वरीयता, वरीयता सूची से स्वतः ही निरस्त हो जावेगी।
योजना में सरकार द्वारा 60 प्रतिशत राशि वहन की जावेगी एवं शेष 40 प्रतिशत राशि ही आवेदक द्वारा देय होगी।
आवेदक की निगम में निर्धारित मूल वरीयता अनुसार ही सौर ऊर्जा पम्प सेट स्थापित किये जावेंगे।
सौर ऊर्जा पम्प सेटों का रख-रखाव 7 वर्ष तक निःशुल्क निर्माता अथवा आपूर्तिकर्ता कम्पनी द्वारा किया जावेगा। जिसके लिए कंपनी द्वारा कॉल सेन्टर की भी व्यवस्था की जावेगी, जिस पर उपभोक्ता अपनी शिकायत दर्ज करा कर उसका तत्वरित समाधान करा सकेंगे।
सौर ऊर्जा पम्प सेटों का 7 वर्ष तक निःशुल्क बीमा आपूर्तिकर्ता/निर्माता कंपनी द्वारा किया जावेगा।
पशु टीकाकरण से पशुओं को आने वाले समय में बिमारियों से बचाया जा सकता है | यह दुधारू पशुओं के लिए अत्यंत आवश्यक है क्योकि इससे पशुओं से बिना किसी रुकाबट के दूध प्राप्त किया जा सकता है | आइये जानते हैं किस प्रकार दुधारू पशुओं को कोनसा एवं कब टीकाकरण करवाना चाहिए |
दुधारू पशुओं हेतु टीकाकरण कब करायें
क्रम संख्या
उम्र
टीका
1.
चार माह
2-4 सप्ताह बाद
साल में दो या तीन बार (उच्च रोग ग्रस्त क्षेत्रों में)
मुँह व खुर रोग टीका- पहला डोज मुँह व खुर रोग टीका- दूसरा डोज मुँह व खुर रोग टीका- बूस्टर
किसान भाई नकली एवं मिलावटी उर्वरकों की पहचान किस प्रकार करें I
खेती में प्रयोग में लाये जाने वाले कृषि निवेशों में सबसे मंहगी सामग्री रासायनिक उर्वरक है | उर्वरकों के शीर्ष उपयोग की अवधि हेतु खरीफ एवं रबी के पूर्व उर्वरक विर्निमाता फैक्ट्रियों तथा विक्रेताओं द्वारा नकली एवं मिलावटी उर्वरक बनाने एवं बाजार में उतारने की कोशिश होती है |
इसका सीधा प्रभाव किसानों पर पड़ता है | नकली एवं मिलावटी उर्वरकों की समस्या से निपटने के लिए यधपि सरकार प्रतिबद्ध है फिर भी यह आवश्यक है की खरीददारी करते समय किसान भाई उर्वरकों की शुद्धता मोटे तौर पर उसी तरह से परख लें, जैसे बीजों की शुद्धता बीज को दांतों से दबाने पर कटटी और किच्च की आवाज से, कपड़े की गुणवक्ता उसे छूकर या मसलकर तथा दूध की शुद्धता की जाँच उसे अंगुली से टपका कर लेते है |
कृषकों के बीच प्रचलित उर्वरक में से प्राय: डी.ए.पी. जिंक सल्फेट, यूरिया तथा एम.ओ.पी. नकली / मिलावटी रूप से बाजार में उतारे जाते है | खरीदारी करते समय कृषक इसकी प्रथम दृष्टया परख निम्न सरल विधि से कर सकते है और प्रथम दृष्टया उर्वरक नकली पाए जाए तो एसी स्थिति में विधिक कार्यवाही किए जाने हेतु इसकी सुचना जनपद के उप कृषि निदेशक / जिला कृषि आधिकारी एवं कृषि निदेशक, को दी जा सकती है |
उर्वरक का नाम : यूरिया :
1 पहचान विधि :
क सफ़ेद चमकदार, लगभग समान आकार के गोल दाने |
ख पानी में पूर्णतया घुल जाना तथा घोल छूने पर शीतल अनुभूति |
गर्म तवे पर रखने से पिघल जाता है और आंच तेज करने पर कोई अवशेष नहीं बचता |
उर्वरक का नाम – डी.ए.पी. :
पहचान विधि :
सख्त, दानेदार, भूरा, कला, बादामी, रंग नाखूनों से आसानी से नहीं छूटता |
डी.ए.पी. के कुछ दानों को लेकर तम्बाकू की तरह उसमें चूना मिलाकर मलने पर तीक्ष्ण गन्ध निकलती है, जिसे सूंघना असहाय हो जाता है |
तवे पर धीमी आंच में गर्म करने पर दाने फुल जाते है |
उर्वरक का नाम – सुपर फास्फेट :
पहचान विधि :
यह सख्त दाने दर, भूरा काला बादामी रंगों से युक्त तथा नाखूनों से आसानी से न टूटने वाला उर्वरक है | यह चूर्ण के रूप में भी उपलब्ध होता है | इस दानेदार उर्वरक की मिलावट बहुधा डी.ए.पी. व येन.प.के. मिक्चर उर्वरकों के साथ की जाने की सम्भावना बनी रहती है |
परीक्षण :
इस दानेदार उर्वरक को यदि गरम किया जाये तो इसके दाने फूलते नहीं है जबकि डी.ए.पी.. व अन्य कम्प्लेक्स के दाने फूल जाते है | इस प्रकार इसकी मिलावट की पहचान आसानी से कर सकते है |
उर्वरक का नाम – जिंक सल्फेट :
पहचान विधि :
जिंक सल्फेट में मैग्नीशियम सल्फेट प्रमुख मिलावटी रसायन है | भौतिक रूप से समानता के कारण नकली असली की पहचान कठिन होती है |
डी.ए.पी. के घोल में जिंक सल्फेट के घोल को मिलाने पर थक्केदार घना अवक्षेप बन जाता है | मैग्नीशियम सल्फेट के साथ एसा नहीं होता है |
जिंक सल्फेट के घोल में पतला कास्टिक का घोल मिलाने पर सफ़ेद, मटमैला मांड जैसे अवक्षेप बनता है, जिसमें गाढ़ा कास्टिक का घोल मिलाने पर अवक्षेप पूर्णतया घुल जाता है | यदि जिंक सल्फेट की जगह पर मैग्नीशियम सल्फेट है तो अवक्षेप नहीं घुलेगा |
उर्वरक का नाम – पोटाश खाद :
पहचान विधि :
सफ़ेद कणाकार, पिसे नमक तथा लाल मिर्च जैसा मिश्रण |
ए कण नम करने पर आपस में चिपकते नहीं |
पानी में घोलने पर खाद का लाल भाग पानी में ऊपर तैरता है |
किसान भाई जाने क्या है न्यूनतम समर्थन मूल्य और इसका निर्धारण कैसे होता है ?
केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य किस आधार पर निर्धारण करता है ?
अपने अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आनेवाली विभिन्न वस्तुओं के मूल्य – नीति की अनुशंसा करते समय आयोग, भूमि और जल जैसे राष्ट्रीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने के अलावा मांग और आपूर्ति, उत्पादन लागत, घरेलू एवं अंतराष्ट्रीय बाजार की कीमतों का ट्रेंड अंतरफसल मूल्यों में समता, कृषि और गैर – कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तें, उस वस्तु के एमएसपी का उपभोगताओं पर प्रभाव का भी ध्यान रखता है | यह बात ध्यान देने योग्य है की एमएसपी के निर्धारण में उत्पादन लागत एक महत्वपूर्ण निर्धारण है, परंतु विभिन्न फसलों का एमएसपी निर्धारण केवल लागत जोड़ के आधार पर नहीं होता है |
केंद्र सरकार कितने फसलों का मूल्य निर्धारण करता है ?
संतुलित और एकीकृत मूल्य संरचना मूल्य संरचना तैयार करने के उद्देश्य से कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की स्थापना की गई थी | इसे 23 फसलों की मूल्यनीति (एमएसपी) पर सलाह देनी है, जिनमें सात अनाज वाली फसलें (धान, गेंहू, ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी और जौ) पांच दलहन फसलें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), सात तिलहन (मूंगफली, सूरजमुखी बीज, सोयाबीन, रेपसीड – सरसों, कुकुम, नाइजर, बीज और मसूर), गिरी (सूखा नारियल), कच्चा जूट तथा गन्ना है |
इसे एमएसपी के बदलते उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) सुझाना है | एमएसपी/एफआरपी की अनुशंसा करते समय सीएसीपी से यह सुनिश्चित करते समय कहा जाता है कि उत्पादन का पैटर्न मोटे तौर पर अर्थव्यवस्था की समग्र जरूरतों (मांगों) के अनुरूप हो | सीएसीपी अपनी अनुशंसाएं प्रत्येक वर्ष सरकार को मूल्यनिधि रिपोर्ट के रूप में भेजती है | यह सामग्रियों के पांच समूह के लिए अलग – अलग होते है | ये – है – खरीफ फसल, रबी फसल, गन्ना, कच्चा जूट, और गरी | इन पांचों मूल्य नीति रिपोर्टों को तैयार करने से पहले आयोग विभिन्न राज्य सरकारों, संबंधित राष्ट्रीय संगठनों और मंत्रालयों से उनकी राय लेता है |
2017 – 18 मौसम की खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और बोनस |
सरकार ने 2017 – 18 मौसम की सभी खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में वृधि के लिए अनुमोदन प्रदान किया है | इसके आलावा देश में दलहन और तिलहन की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए, सरकार ने अरहर (तूर), उड़द, मूंग, छिलका सहित मूंगफली और सोयाबीन के लिए 200 रूपये प्रति किवंटल तथा सूरजमुखी बीज, तिल और रामतिल के लिए 100 रूपये प्रति किवंटल बोनस की घोषणा की है | यह बोनस अनुमोदित न्यूनतम समर्थन मूल्य के ऊपर और उसके आलावा डे है | 2017 – 18 मौसम के सभी खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और बोनस के ब्यौरा नीचे तालिका में दिये गये है |
(रूपये प्रति किवंटल)
जिन्स
किस्म
2017 – 18
न्यू.स.मू.
बोनस
कुल (न्यू.स.मु.+बोनस )
धान
सामान्य
1550
–
1550
ग्रेड ए
1590
–
1590
ज्वार
हईब्रिड
1700
–
1700
मालंदडी
1725
–
1725
बाजरा
–
1425
–
1425
मक्का
–
1425
–
1425
रागी
–
1900
–
1900
तूर (अरहर)
–
5250
200
5450
मूंग
–
5357
200
5575
उड़द
–
5200
200
5400
मूंगफली छिलके सहित
–
4250
200
4450
सोयाबीन
–
2850
200
3050
सूरजमुखी बीज
–
4000
100
4100
तिल
–
5200
100
5300
रामतिल
–
3950
100
4050
कपास
मध्यम रेशा
(रेशे की लम्बाई एमएम) 24.5 – 25.5 एवं 4.3 – 5.1 का मईक्रोनेयर मूल्य
4020
–
4020
लंबा रेशा
(रेशे की लम्बाई एमएम) 29.5 – 30.5 एवं 3.5 – 4.3 का मईक्रोनेयर मूल्य
4320
–
4320
नोट :- किसान भाई एमएसपी को ध्यान में रखते हुए अपने फसल का चुनाव करें |
नोट :- जनवरी माह में रबी फसलों का मूल्य निर्धारण किया जायेगा |
किसानों के लिए फसल ऋण हेतु ब्याज सहायता योजना मंजूर
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वर्ष 2017-18 के लिए किसानों के ब्याज हेतु अनुदान योजना (आईएसएस) को अपनी मंजूरी दे दी है। इससे किसानों को केवल 4% वार्षिक ब्याज दर पर 1 वर्ष के भीतर भुगतानयोग्य अधिकतम 3 लाख रुपये तक की लघुकालिक फसल ऋण प्राप्त करने में मदद मिलेगी। सरकार ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 20,339 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है।
अपनी निजी निधि के इस्तेमाल करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, निजी क्षेत्र के बैंक, सहकारी बैंक और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, सहकारी बैंक के वित्तपोषण के लिए नाबार्ड को ब्याज अनुदान दिया जाएगा।
ब्याज अनुदान योजना 1 वर्ष के लिए जारी रहेगी। नाबार्ड तथा भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा इसे कार्यान्वित किया जाएगा।
इस योजना का उद्देश्य देश में कृषि उत्पादकता और उत्पादन पर जोर देने के लिए किफायती दर पर लघुकालिक फसल ऋण के लिए कृषि ऋण उपलब्ध कराना है।
इस योजना की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार हैं:
केंद्र सरकार वर्ष 2017-18 के दौरान अधिकतम 1 वर्ष के लिए अधिकतम 3 लाख रुपये के लघुकालिक फसल ऋण का समय पर भुगतान करने वाले सभी किसानों को प्रतिवर्ष 5% ब्याज अनुदान देगी। इस तरह किसानों को केवल 4% ब्याज देना होगा। यदि किसान समय पर लघुकालिक फसल ऋण का भुगतान नहीं करता है तो वह उसे 2% ब्याज अनुदान ही मिलेगा।
केंद्र सरकार वर्ष 2017-18 के लिए ब्याज अनुदान के रूप में लगभग 20,339 करोड़ रुपए उपलब्ध कराएगी।
ऐसे लघु और सीमांत किसानों को राहत प्रदान करने के क्रम में, जिन्होंने अपने उत्पाद के फसल पश्चात भंडारण के लिए 9 प्रतिशत की दर पर कर्ज लिया है, केंद्र सरकार ने अधिकतम 6 माह के कर्जे के लिए 2 प्रतिशत ब्याज अनुदान, यानी 7% की प्रभावी ब्याज दर को मंजूरी दी है।
प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित किसानों को राहत प्रदान करने के लिए भुगतान राशि पर पहले वर्ष के लिए बैंकों को 2 प्रतिशत ब्याज अनुदान दिया जाएगा।
यदि किसान समय पर लघुकालिक फसल ऋण का भुगतान नहीं करते हैं तो वह उपर्युक्त के स्थान पर 2 प्रतिशत ब्याज अनुदान के लिए पात्र होंगे।
आवश्यकता
कृषि क्षेत्र में अधिक उत्पादकता और कुल उत्पादन के लक्ष्य तक पहुंचने में ऋण सुविधा एक महत्वपूर्ण घटक है। ब्याज अनुदान से उत्पन्न विभिन्न बाध्यताओं को पूरा करने के लिए मंत्रिमंडल की और से 20,339 करोड़ रुपए की मंजूरी मिलने से किसानों को लघुकालिक फसल ऋणों के साथ-साथ फसल –पश्चात भंडारण सुविधा को पूरा करके देश के किसानों को एक महत्वपूर्ण आवश्यकता को पूरा करने में मदद मिलेगी। इस संस्थागत ऋण सुविधा से किसानों को गैर- संस्थागत ऋण स्रोतों से कर्ज प्राप्त करने की बाध्यता से मुक्त करने में मदद मिलेगी, जहां से वह अत्यधिक दरों पर कर्ज लेने के लिए बाध्य है।
सरकार द्वारा अप्रैल 2016 में शुरु की गई इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार ( ई-नाम) का लक्ष्य किसानों को लाभांवित करने के लिए एक इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म उपलब्ध कराना और एक प्रतिस्पर्धी तरीके से कीमत संबंधी खोज में समर्थ बनाना है। जबकि किसानों को ऑनलाइन व्यापार के लिए सलाह दी जाती है, ऐसे में यह भी महत्वपूर्ण है कि उनके पास फसल पश्चात ऋण की उपलब्धता के भी विकल्प है, ताकि वे मान्यताप्राप्त भंडार गृहों में अपने उत्पादों का भंडारण कर सके।
किसान क्रेडिट कार्ड धारक लघु और सीमांत किसानों के लिए अधिकतम 6 माह की अवधि के लिए ऐसे भंडारण पर 2 प्रतिशत की दर से ब्याज अनुदान पर ऋण उपलब्ध है। इससे किसानों को बिक्री के लायक बाजार ढूंढ कर अपना उत्पाद बेचने और संकटापन्न विक्रय करने से बचने में मदद मिलेगी। इसलिए, लघु और सीमांत किसानों के लिए अपना किसान क्रेडिट कार्ड चालू रखना आवश्यक है।
पृष्टभूमि
यह योजना वर्ष 2006-07 से चल रही है। इसके तहत, किसानों को अधिकतम 3 लाख रुपये का रियायती फसल ऋण 7 प्रतिशत ब्याज पर उपलब्ध कराया जाता है। इसमें 3% अतिरिक्त अनुदान का प्रावधान भी है। शीघ्र भुगतान के लिए ऋण प्राप्त करने की तिथि से 1 वर्ष के भीतर की अवधि है। संकटापन्न विक्रय की रोकथाम के उपाय के रूप में, किसान क्रेडिट कार्ड धारक लघु और सीमांत किसानों के लिए अधिकतम 6 माह के लिए निगोशिएबल वेयरहाउस रिसीट के तहत मान्यताप्राप्त भंडारगृहों में भंडारण के लिए फसल पश्चात ऋण सुविधा उपलब्ध है। वर्ष 2016 -17 के दौरान, लघुकालिक फसल ऋण के लिए 6,15,000 करोड़ रुपए के निर्धारित लक्ष्य को पार करके 6,22,685 करोड़ रुपए के ऋण प्रदान किए गए।
सरकार की और से विभिन्न बैंकों और सहकारी संस्थाओं को उनके द्वारा किसानों को 7% की रियायती दर पर लघुकालिक फसल ऋण उपलब्ध कराया जाता है। समय पर भुगतान करने की स्थिति में उन्हें 3% अतिरिक्त अनुदान दिया जाता है। प्रभावी तौर पर किसानों के लिए 4% ब्याज दर पर फसल ऋण उपलब्ध है। इस योजना में भंडारण विकास नियामक प्राधिकरण द्वारा मान्यताप्राप्त भंडारगृहों में भंडारण के लिए अधिकतम 6 माह तक फसल पश्चात संकटापन्न विक्री से बचने के लिए 7% की रियायती ब्याज दर सहित अन्य प्रावधान शामिल है। इससे किसानों को संस्थागत ऋण प्राप्त होता है और वे ऋण के गैर-संस्थागत स्रोतों से बचने में समर्थ हो पाते हैं, जहां वे निजी कर्जदाताओं द्वारा शोषण का शिकार होते हैं। वर्तमान वर्ष से लघुकालिक फसल ऋण के सभी खाते आधार से जुड़े होंगे।
क्या आप जानना चाहते हैं की बैंक किसानों से ब्याज किस तरह लेता है |
देश के सभी राज्यों किसान कृषि कार्य के लिए लोन लेते है , यह लोन वार्षिक , अर्धवार्षिक या फसल के अनुसार लेते है | जिसे सरकारी या राष्ट्रीय बैक किसान को लोन देता है | लेकिन ज्यादा तर किसान को यह मालूम नहीं है की लोन पर ब्याज किस आधार पर लिया जाता है | आज आप सभी किसान भाई को लोन और उस पर ब्याज के बारे में पूरी जानकारी दिया जायेगा |
मान लेते है की देश के किसी भी राज्य के कोई भी किसान किसान क्रेडिट कार्ड से 5 लाख रूपये का कर्ज किसी भी राष्ट्रीय बैंक से लेता है | तो अब यह जानना होगा की वह किसान एक साल में कितना रुपया बैंक को लौटना पड़ेगा | इस पर किसान को दो तरह का ब्याज लगेगा | एक 3 लाख रूपये तक के लोन पर 7 प्रतिशत तथा 2 लाख लोन पर 9 प्रतिशत का ब्याज लगेगा | अगर वह किसान जिस तारीख से लोन लिया है अगर उसी तारीख को लोन वापस कर देता है तो 3 लाख रूपये पर 3 प्रतिशत का सब्सिडी मिलेगा | बाकि 2 लाख रूपये पर 9 प्रतिशत का ही ब्याज लगेगा |
अब यह जानना होगा की किसान को एक साल में कितना रुपया बैंक को वापस करना होगा | जैसा की ऊपर बताया की एक साल में लौटने पर 3 लाख रूपये पर 3 प्रतिशत का सब्सिडी मिलेगा | इसका मतलब यह हुआ की 3 लाख रूपये पर 4 प्रतिशत का ब्याज लगेगा | 12000 रुपया 3 लाख पर एक साल का ब्याज होगा | बचे हुए 2 लाख पर 9 प्रतिशत का ब्याज लगेगा | 18000 रुपया 2 लाख रूपये का ब्याज होगा | कुल एक साल में किसान को ब्याज सहित रुपया होगा
(3 लाख लोन + 12000 ब्याज ) + (2 लाख लोन + 18000 ब्याज ) = 5 लाख 30 हजार रुपया |
इसके बाद केंद्र सरकार ने 2016 में प्रधानमंत्री फसल बीमा लागू किया था , जिसमें यह नियम है की देश के कोई भी किसान अगर किसान क्रेडिट कार्ड या किसी और माध्यम से भी फसल के लिए कर्ज लेता है तो लिए हुए कर्ज का 2 प्रतिशत प्रधान मंत्री फसल बीमा के लिए काटा जायेगा |
इसका मतलब यह हुआ की किसान ने 5 लाख रूपये का कर्ज लिया था तो उसका राशि का 2 प्रतिशत काट लिया जायेगा | 5 लाख रूपये का 2 प्रतिशत 10,000 रुपया होता है | इसमें आप को ध्यान देने वाली बात यह है की किसान लोन तो 5 लाख रूपये का लेगा लेकिन उसे 2 प्रतिशत काट कर 4 लाख 90,000 रुपया ही मिलेगा | लेकिन ब्याज 5 लाख रूपये पर लगेगा |तो किसान को एक साल में 5 लाख रूपये लोन लेने पर 4 लाख 90,000 रुपया मिलेगा और 5 लाख 30,000 रुपया एक साल में लौटान पड़ेगा |
अब यह जानते है की किसान ने किसी कारण से एक साल में बैंक को पैसा नहीं लौटा पाया तो किसान पर कितना कर्ज रहेगा |
अगर किसान 5 लाख रुपया लेकर किसी कारण से एक साल में कर्ज नहीं लौटा पाया तो किसान को मिलने वाला 3 प्रतिशत की सब्सिडी नहीं मिलेगी | इसका मतलब यह हुआ की 3 लाख पर 7 प्रतिशत का ही ब्याज चलेगा | किसान जितना देर करेगा किसान पर बोझ उतना ही बढेगा |
यह योजना पिछले 10 साल से लागू है प्रतेक साल मार्च महीने में इसकी समय पूरा हो जाता है , सरकार प्रतेक साल इस योजना को अगले साल के लिए बढ़ा देती है | इस वर्ष देर से लेकिन 14 जून को इस योजना को वर्ष 2017 – 18 के लिए लागू किया गया है | इसके लिए केंद्र सरकार 20339 कड़ोर रुपया स्वीकृत किया है | जिसका आप लोग लाभ उठा सकते है |
अब आप सभी किसान भाई अगर कर्ज लिए हैं या लेने के बारे में सोच रहे हैं तो अपनी कर्ज पर लगने वाला ब्याज को आप इस नियम से जोड़ सकते है |
किसान समाधान ने अपने तरफ से आप लोगों के लिए यह जरुरी जानकारी लेकर आयी है | आप को किसी भी तरह की कृषि से जुड़ी जानकर चाहिए तो हमें जरुर बताएं |
भारत में मवेशियों की नस्ल जो अक्सर पहुपालन में डेयरी के लिए या अन्य कार्यों के लिए पाली जाती हैं | नीचे कुछ मवेशियों की नस्लें उनकी विशेषताओं के साथ दी गई है, आप अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल इनमें से पशुपालन के लिए चुमाव कर सकते हैं |
दुधारू नस्ल
सहिवाल
मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार व मध्य प्रदेश में पाया जाता है।
दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में 1350 किलोग्राम
व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 2100 किलो ग्राम
प्रथम प्रजनन की उम्र – 32-36 महीने
प्रजनन की अवधि में अंतराल – 15 महीने
गीर
दक्षिण काठियावाड क़े गीर जंगलों में पाये जाते हैं।
दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 900 किलोग्राम
व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 1600 किलोग्राम
थारपकर
मुख्यतः जोधपुर, कच्छ व जैसलमेर में पाये जाते हैं
दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 1660 किलोग्राम
व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 2500 किलोग्राम
करन फ्राइ
करण फ्राइ का विकास राजस्थान में पाई जाने वाली थारपारकर नस्ल की गाय को होल्स्टीन फ्रीज़ियन नस्ल के सांड के वीर्याधान द्वारा किया गया। यद्यपि थारपारकर गाय की दुग्ध उत्पादकता औसत होती है, लेकिन गर्म और आर्द्र जलवायु को सहन करने की अपनी क्षमता के कारण वे भारतीय पशुपालकों के लिए महत्वपूर्ण होती हैं।
नस्ल की विशेषताएं
इस नस्ल की गायों के शरीर, ललाट और पूंछ पर काले और सफेद धब्बे होते हैं। थन का रंग गहरा होता है और उभरी हुई दुग्ध शिराओं वाले स्तनाग्र पर सफेद चित्तियां होती है।
करन फ्राइ गायें बहुत ही सीधी होती हैं। इसके मादा बच्चे नर बच्चों की तुलना में जल्दी वयस्क होते हैं और 32-34 महीने की उम्र में ही गर्भधारण की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं।
गर्भावधि 280 दिनों की होती है। एक बार बच्चे देने के बाद 3-4 महीनों में यह पुन: गर्भधारण कर सकती है। इस मामले में यह स्थानीय नस्ल की गायों की तुलना में अधिक लाभकारी सिद्ध होती हैं क्योंकि वे प्राय: बच्चे देने के 5-6 महीने बाद ही दुबारा गर्भधारण कर सकती हैं।
दुग्ध उत्पादन : करन फ्राइ नस्ल की गायें साल भर में लगभग 3000 से 3400 लीटर तक दूध देने की क्षमता रखती हैं। संस्थान के फार्म में इन गायों की औसत दुग्ध उत्पादन क्षमता 3700 लीटर होती है, जिसमें वसा की मात्रा 4.2% होती है। इनके दूध उत्पादन की अवधि साल में 320 दिन की होती है।
अच्छी तरह और पर्याप्त मात्रा में हरा चारा और संतुलित सांद्र मिश्रित आहार उपलब्ध होने पर इस नस्ल की गायें प्रतिदिन 15-20 लीटर दूध देती हैं। दूध का उत्पादन बच्चे देने के 3-4 महीने की अवधि के दौरान प्रतिदिन 25-30 लीटर तक होता है।
उच्च दुग्ध उत्पादन क्षमता के कारण ऐसी गायों में थन का संक्रमण अधिक होता है और साथ ही उनमें खनिज पदार्थों की भी कमी पाई जाती है। समय पर पता चल जाने से ऐसे संक्रमणों का इलाज आसानी से हो जाता है।
बछड़े की कीमत : तुरंत ब्यायी हुई गाय की कीमत दूध देने की इसकी क्षमता के अनुसार 20,000 रुपये से 25,000 रुपए तक हो सकती है।
लालसिंधी
मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, तमिल नाडु, केरल व उडीसा में पाये जाते हैं।
दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 1100 किलोग्राम
व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 1900 किलोग्राम
दुधारूवजुताईकार्यमेंप्रयुक्तनस्ल
ओन्गोले
मुख्यतः आन्ध्र प्रदेश के नेल्लोर कृष्णा, गोदावरी व गुन्टूर जिलों में मिलते है।
दुग्ध उत्पादन- 1500 किलोग्राम
बैल शक्तिशाली होते है व बैलगाडी ख़ींचने व भारी हल चलाने के काम में उपयोगी होते है।
हरियाणा
मुख्यतः हरियाणा के करनाल, हिसार व गुडगांव जिलों में व दिल्ली तथा पश्चिमी मध्य प्रदेश में मिलते है।
दुग्ध उत्पादन- 1140 से 4500 किलोग्राम
बैल शक्तिशाली होते हैं व सडक़ परिवहन तथा भारी हल चलाने के काम में उपयोगी होते है।
कांकरेज
मुख्यतः गुजरात में मिलते हैं।
दुग्ध उत्पादन- ग्रामीण स्थितियों में- 1300 किलोग्राम
व्यावसायिक फार्म की स्थिति में- 3600 किलोग्राम
प्रथम बार प्रजनन की उम्र- 36 से 42 महीने
प्रजनन की अवधि में अंतराल – 15 से 16 महीने
बैल शक्तिशाली, सक्रिय व तेज़ होते है। हल चलाने व परिवहन के लिये उपयोग किये जा सकते है।
देओनी
मुख्यतः आंध्र प्रदेश के उत्तर दक्षिणी व दक्षिणी भागों में मिलता है।
गाय दुग्ध उत्पादन के लिये अच्छी होती है व बैल काम के लिये सही होते हैं।
डेयरी नस्लें
जर्सी
प्रथम बार प्रजनन की उम्र- 26-30 महीने
प्रजनन की अवधि में अंतराल- 13-14 महीने
दुग्ध उत्पादन- 5000-8000 किलोग्राम
डेयरी दुग्ध की नस्ल रोज़ाना 20 लीटर दूध देती है जबकि संकर नस्ल की जर्सी 8 से 10 लीटर प्रतिदिन दूध देती है।
भारत में इस नस्ल को मुख्यतः गर्म व आर्द्र क्षेत्रों में सही पाया गया है।
होल्स्टेनफेशियन
यह नस्ल हॉलैंड क़ी है।
दुग्ध उत्पादन- 7200-9000 किलो ग्राम
यह नस्ल दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में सबसे उम्दा नस्ल मानी गई है। औसतन यह प्रतिदिन 25 लीटर दूध देती है जबकि एक संकर नस्ल की गाय 10 से 15 लीटर दूध देती है।
यह तटीय व डेल्टा भागों में भी अच्छी तरह से रह सकती है।
भैंसों की नस्लें
मुर्रा
हरियाणा, दिल्ली व पंजाब में मुख्यतः पाई जाती है।
दुग्ध उत्पादन- 1560 किलोग्राम
इसका औसतन दुग्ध उत्पादन 8 से 10 लीटर प्रतिदिन होता है जबकि संकर मुर्रा एक दिन में 6 से 8 लीटर दूध देती है।
ये तटीय व कम तापमान वाले क्षेत्रों में भी आसानी से रह लेती है।
सुरती
गुजरात
1700 से 2500 किलोग्राम
ज़फराबादी
गुजरात का काठियावाड जिला
1800 से 2700 किलोग्राम
दुधारू नस्लों के चुनाव के लिये सामान्य प्रक्रिया
बछड़ो के झुंड से बछड़ा चुनना व मवेशी मेला से गाय चुनना भी कला है। एक दुधारू किसान को अपना गल्ला बनाकर काम करना चाहिये। दुधारू गाय को चुनने के लिये निम्न बिंदुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिये-
जब भी किसी पशु मेले से कोई मवेशी खरीदा जाता है तो उसे उसकी नस्ल की विशेषताओं और दुग्ध उत्पादन की क्षमता के आधार पर परखा जाना चाहिये।
इतिहास और वंशावली देखी जानी चाहिये क्योंकि अच्छे कृषि फार्मों द्वारा ये हिसाब रखा जाता है।
दुधारू गायों का अधिकतम उत्पादन प्रथम पांच बार प्रजनन के दौरान होता है। इसके चलते आपका चुनाव एक या दो बार प्रजनन के पश्चात् का होना चाहिये, वह भी प्रजनन के एक महीने बाद।
उनका लगातार दूध निकाला जाना चाहिये जिससे औसत के आधार पर उसकी दूध देने की क्षमता का आकलन किया जा सके।
कोई भी आदमी गाय से दूध निकालने में सक्षम हो जाये और उस दौरान गाय नियंत्रण में रहे।
कोई भी जानवर अक्टूबर व नवंबर माह में खरीदा जाना सही होता है।
अधिकतम उत्पादन प्रजनन के 90 दिनों तक नापा जाता है।
अधिक उत्पादन देने वाली गाय नस्ल की विशेषताएं
आकर्षक व्यक्तित्व मादाजनित गुण, ऊर्जा, सभी अंगों में समानता व सामंजस्य, सही उठान।
जानवर के शरीर का आकार खूँटा या रूखानी के समान होनी चाहिये।
उसकी आंखें चमकदार व गर्दन पतली होनी चाहिये।
थन पेट से सही तरीके से जुडे हुए होने चाहिये।
थनों की त्वचा पर रक्त वाहिनियों की बुनावट सही होनी चाहिये।
चारो थनों का अलग-अलग होना व सभी चूचक सही होनी चाहिये।
व्यावसायिक डेयरी फार्म के लिये सही नस्ल का चुनाव- सुझाव
भारतीय स्थिति के अनुसार किसी व्यावसायिक डेयरी फार्म में न्यूनतम 20 जानवर होने चाहिये जिनमें 10 भैंसें हो व 10 गायें। यही संख्या 50:50 अथवा 40:60 के अनुपात से 100 तक जा सकती है। इसके पश्चात् आपको अपने पशुधन का आकलन करने के बाद बाज़ार मूल्य के आधार पर आगे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिये।
मध्य वर्गीय, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक भारतीय जनमानस सामन्यतः कम वसा वाला दूध ही लेना पसंद करते है। इसके चलते व्यावसायिक दार्म का मिश्रित स्वरूप उत्तम होता है। इसमें संकर नस्ल, गायें और भेंसे एक ही छप्पर के नीचे अलग अलग पंक्तियों में रखी जाती है।
जितना जल्दी हो सके, बाज़ार की स्थिति देखकर तय कर लें कि आप दूध को मिश्रित दूध के व्यापार के लिये किस से स्थान का चुनाव करेंगे। होटल भी आपके ग्राहकी का 30 प्रतिशत हो सकते है जिन्हे भैंस का शुद्ध दूध चाहिये होता है जबकि अस्पताल व स्वास्थ्य संस्थान शुद्ध गाय का दूध लेने को प्राथमिकता देते है।
व्यावसायिक फार्म के लिये गाय अथवा भैंस की नस्ल का चुनाव करना
गाय
बाज़ार में अच्छी नस्ल व गुणवत्ता की गायें उपलब्ध है व इनकी कीमत प्रतिदिन के दूध के हिसाब से 1200 से 1500 रूपये प्रति लीटर होती है। उदाहरण के लिये 10 लीटर प्रतिदिन दूध देनेवाली गाय की कीमत 12000 से 15000 तक होगी।
यदि सही तरीके से देखभाल की जाए तो एक गाय 13 – 14 महीनों के अंतराल पर एक बछडे क़ो जन्म दे सकती है।
ये जानवर आज्ञाकारी होते है व इनकी देखभाल भी आसानी से हो सकती है। भारतीय मौसम की स्थितियों के अनुसार होलेस्टिन व जर्सी का संकर नस्ल सही दुग्ध उत्पादन के लिये उत्तम साबित हुए है।
गाय के दूध में वसा की मात्रा 3.5 से 5 प्रतिशत के मध्य होता है व यह भैंस के दूध से कम होता है।
भैंस
भारत में हमारे पास सही भैंसों की नस्लें है, जैसे मुर्रा और मेहसाणा जो कि व्यावसायिक फार्म की दृष्टि से उत्तम है।
भैंस का दूध बाज़ार में मक्खन व घी के उत्पादन के लिये मांग में रहता है क्योंकि इस दूध में गाय की दूध की अपेक्षा वसा की मात्रा अधिक होती है। भैंस का दूध, आम भारतीय परिवार में पारंपरिक पेय, चाय बनाने के लिये भी इस्तेमाल होता है।
भैंसों को फसलों के बाकी रेशों पर भी पोषित किया जा सकता है जिससे उनकी पोषणलागत कम होती है।
भैंस में परिपक्वता की उम्र देरी से होती है और ये 16-18 माह के अंतर से प्रजनन करती है। नर भैंसे की कीमत कम होती है।
भैंसो को ठन्डा रखने के साधनों की आवश्यकता होती है, जैसे ठन्डे पानी की टंकी, फुहारा या फिर पंखा आदि।
बुआई हेतु बीज खरीदने से पूर्व जाने बीजों के विषय में महत्वपूर्ण बातें
किसानों को कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए हमेशा उत्तम गुणों वाले बीज ही उपयोग करना चाहिए I भारत में भारत सरकार की राष्ट्रीय बीज निगम लिमिटेड, राज्य बीज एवं फार्म विकास निगम द्वारा एवं अन्य कंपनियों एवं किसानों के द्वारा उत्तम कोटि के बीजों का उत्पादन किया जाता है I सभी किसान भाई बीज खरीदते समय निम्न बातों का ध्यान रखें I
उत्तम बीज को निम्न तीन समूहों में रखा गया है- प्रजनक बीज आधार बीज और प्रमाणित बीज।
प्रजनक बीज वह वर्ग है जो आनुवांशिक रूप से शुद्ध रहता है तथा इसको प्रजनक (ब्रीडर) की देखरेख में तैयार किया जाता है ताकि उसकी गुणवत्ता ठीक रहे। इन बीजों की थैलियों पर पीले रंग का टैग (लेबिल) लगा होता है।
आधार बीज को बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा प्रजनक बीज से तैयार किया जाता है। इस बीज की थैलियों पर सफेद रंग का टैग लगा रहता है।
प्रमाणित बीज को भी बीज प्रमाणीकरण संस्था द्वारा आधार बीज से पैदा कराया जाता है। यह कार्य प्रत्येक बीज एवं फार्म विकास निगम या उन्नतशील किसानों द्वारा बीज पैदा करने की मानक विधियों के अनुसार किया जाता है। प्रमाणित बीज के थैलों पर नीले रंग का लेबिल लगा रहता है। प्रमाणित बीज को किसानों द्वारा व्यावसायिक फसल के उत्पादन के लिये उपयोग में लाया जाता है।
किसान भाई स्वयं ही बीजों का परीक्षण निम्न तरीकों से कर सकते हैं
बीज शुद्धता व अंकुरण परीक्षण
अच्छे उत्पादन के लिये आवश्यक है कि बीज शुद्ध हो और उसका अंकुरण प्रतिशत मानक स्तर से कम न हो। बोने के काम में लाने वाला बीज एक ही प्रजाति का हो, इसके लिए उपलब्ध बीज में से 4-5 अलग-अलग जगह से नमूने लेकर यह सुनिश्चित करें कि इसमें किसी दूसरी फसल के बीज घास चारा आदि न मिलें हों साथ ही यह भी देखें कि उसी किस्म के अपरिपक्व, टूटे हुये बीज न हों। बीजों की अंकुरण क्षमता मानक स्तर की है या नहीं इसके लिये अंकुरण परीक्षण आवश्यक है। अंकुरण परीक्षण के लिये कम से कम 400 बीजों का 3-4 आवृत्ति में परीक्षण करना चाहिए। अंकुरण परीक्षण निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
पेपर द्वारा
3-4 पेपर एक के ऊपर एक रखकर सतह बनायें और उन्हें पानी से भिगोये। फिर सतह पर सौ-सौ बीज गिनकर लाइन में रखें तथा पेपर को मोड़कर रख दें। पेपर को समय-समय पर पानी डालकर नम बनाये रखें। तीन-चार दिन बाद अंकुरित बीजों को गिन लें।
बीजोपचार क्या होता है एवं बीजोपचार किस प्रकार करें
बीज शुद्धता व अंकुरण परीक्षण के पश्चात् बोनी से पूर्व बीजोपचार अति आवश्यक है। यह फसलों को रोगों से होने वाली हानि को रोककर अंकुरण क्षमता भी बढ़ाता है। बीज की बुवाई के बाद रोगजनक अपनी प्रकृति के अनुसार बीज को खेत में अंकुरण के पहले या उसके तुरंत बाद आक्रमण कर हानि पहुंचाते हंै या बाद में पक्षियों पर पर्ण दाग जड़ पर सडऩ एवं बालियों पर कंडवा रोग पैदा करते हैं। अगर हम बीजोपचार द्वारा बीजोढ़ रोगजनक को खेत में जाने से रोक दें तो रोग से होने वाली हानि को काफी हद तक कम किया जा सकता है। बीजोपचार में प्रयुक्त कारकों के आधार पर बीजोपचार के तरीकों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है।
भौतिक बीजोपचार
इसके अंतर्गत गर्म पानी सूर्य ऊर्जा तथा विकिरणों द्वारा बीजोपचार किया जाता है। बीज के अंदर रहने वाले रोग जनकों जैसे गेहंू के कण्डवा के लिये सूर्य के ताप से बीजों को उपचारित करते है। इसके लिये बीज को 4 घंटे पानी में भिगोने के बाद दोपहर की गर्मी में पक्के फर्श या टीन पर पतली तह में डालकर सुखाते हैं।
रोग पृथककरण विधि से बीज या पौध अवशेषों को बीज से अलग करके नष्ट करते है। इसके लिये बीज को 5 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोते हैं जिससे रोगी बीज ऊपर तैर आते है इनको जाली की सहायता से निकाल कर नष्ट कर देते हैं और शेष बीज को साफ पानी से धोकर व सुखाकर बोने के काम में लेते हैं। यह विधि ज्वार, वाजरा के अर्गट एवं गेहूं के सेहू रोग को रोकने में सहायक होती है। विकिरण विधि में विभिन्न तीव्रता की एक्स किरणों या अल्ट्रावायलेट किरणों को अलग-अलग समय तक बीजों पर से गुजारा जाता है जिससे बीज की सतह या उसके अंदर पाये जाने वाले रोगजनक नष्ट हो जाते हैं।
रसायनिक बीजोपचार
यह बीज जन्य रोगों की रोकथाम की सबसे आसान, सस्ती और लाभकारी विधि है। फफूंदनाशी रसायन बीज जन्य रोगाणुओं को मार डालता है अथवा उन्हे फैलने से रोकता है। यह एक संरक्षण कवच के रूप में बीज के चारों ओर एक घेरा बना लेता है जिससे बीज को रोगजनक के आक्रमण एवं सडऩे से रोका जा सकता है। सन् 1968 में बेनोमिल की सर्वांगी फफूंदनाशक के रूप में खोज के पश्चात् इस क्षेत्र में एक नये युग की शुरूआत हुई। तत्पश्चात् कार्बोक्सिन, मेटालेक्सिन व दूसरे सर्वांगी फफूंदनाशक बाजार में आये।
अदैहिक फफूंदनाशक जैसे- थायरम, कैप्टान, डायथेन एम-45, की 2.5 से 3.0 ग्राम मात्रा जबकि दैहिक फफूंदनाशकों जैसे- कार्बेन्डाजिम, वीटावैक्स की 1.5 से 2.0 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज के उपचार के लिए पर्याप्त होती है। ऐसी फसलों में किया जाता है जिनके कंद, तना आदि बीज के रूप मे प्रयोग किये जाते है जैसे गन्ना, आलू, अदरक, हल्दी, लहसुन, अरबी आदि। इनको लगाने के पूर्व दवा के निश्चित संाद्रता वाले घोल में फसल एवं रोग की प्रकृति के अनुसार 10 से 30 मिनट तक डुबाकर रखते हैं।
पादप रोगों के नियंत्रण हेतु जैविक बीजोपचार
जैविक पौध रोग नियंत्रण कवकीय या जीवाणुवीय उत्पत्ति के होते है जो मृदा फफूंदों जैसे – फ्यूजेरियम, राइजोक्टोनिया, स्क्लेरोशियम, मैक्रोफोमिना इत्यादि के द्वारा होने वाली बीमारियों जैसे- जड़ सडऩ, आद्र्रगलन, उक्ठा, बीजसडऩ, अंगमारी आदि को नियंत्रित करते है। ट्राइकोडर्मा विरिडी, ट्राइकोडर्मा हारिजिनेयम, पेनिसिलीन, ग्लोमस प्रजाति आदि प्रमुख कवकीय प्रकृति के रोग नियंत्रक है जबकि बेसिलस सबटिलिस, स्यूडोमोनास, एग्रोवैक्टिीरियम आदि जीवाणुवीय प्रकृति के जैव नियंत्रण है जिनको बीज उपचारक के रूप में उपयोग किया जा रहा है।
जैव नियंत्रक हानिकारक फफूंदियों के लिये या तो स्थान, पोषक पदार्थ, जल, हवा आदि की कमी कर देते है या इनके द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रतिजैविक पदार्थो का स्त्रावण होता है जो रोगजनक की वृद्धि को कम करते है अथवा उसे नष्ट करते है जबकि कुछ जैव नियंत्रक रोगकारक के शरीर से चिपककर उसकी बाहरी परत को गलाकर उसके अंदर का सारा पदार्थ उपयोग कर लेते है जिससे रोगकारक जीव नष्ट हो जाता है। जैविक फफूंदनाशियों की 5-10 ग्राम मात्रा द्वारा प्रति कि.ग्रा. बीज का उपचार करने से यदि मृदा में रोगजनक का प्राथमिक निवेश द्रव्य अधिक है तथा रोग का प्रकोप पूर्व में अधिक तीव्रता से हुआ है ऐसी स्थिति में मृदा उपचार अधिक कारगार रहता है।
मृदा उपचार हेतु 50 कि.ग्रा. गोबर की पकी खाद में एक कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा अथवा बेसिलस सवटिलस या स्यूडोमोनास को मिलाकर छाया में 10 दिनों तक नम अवस्था में रखते है। तत्पश्चात् एक एकड़ क्षेत्र में फैलाकर जमीन में मिलाते हैं।
सीड बॉक्स विधि
इस विधि में लकड़ी के बॉक्स में रेत बिछाकर उस पर दानों को लाइन में रखें और फिर भुरभुरी मिट्टी की 1.5 सेमी. की तह लगा दें। रेत को नम बनाये रखने के लिये समय-समय पर पानी डालते रहें। लगभग 4-5 दिनों में अंकुर मिट्टी की सतह पर आ जाते हैं। अंकुरित दानों की संख्या X 100 अंकुरण प्रतिशत =
अंकुरण के लिये रखे गये कुल दानों की संख्या
बीज अंकुुरण क्षमता कम से कम 80-90 प्रतिशत होनी चाहिए। परीक्षण के समय तापक्रम फसल के अनुसार होनी चाहिए। अंकुरण क्षमता परीक्षण में पहले सामान्य पौधे और फिर असामान्य पौधे फिर बीज तत्पश्चात् उन अंकुरित बीजों की गिनती की जाती है। अंकुरित दानों की संख्या X 100 अंकुरण प्रतिशत के आधार पर = प्रति हे. बीज की मात्रा अंकुरण प्रतिशत
राष्ट्रीय बोवाईन उत्पादकता मिशन :-किसानों के लिए दुग्ध उत्पादन को और भी लाभदायक बनाने के लिए भारत सरकार ने एक नई योजना राष्ट्रीय बोवाईन उत्पादकता मिशन को 825 करोड़ रुपए के आबंटन के साथ अनुमोदित किया है
विश्व दुग्ध दिवस पर आयोजित समारोह
भारत 15 वर्षों से दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में विश्व अग्रणी हैं और यह सफलता छोटे डेयरी किसानों, दुग्ध उत्पादकों, प्रसंस्करणकर्ताओं, नियोजकों, संस्थानों तथा अन्य सभी पणधारियों के कारण है। उन्होंने आगे कहा कि दूध उत्पादन में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन अभी भी मीलों का सफर तय करना है ताकि हम देश के हर बच्चे को दूध सहित पर्याप्त पोषण दे सकें। कृषि मंत्री ने यह बात आज पूसा, नई दिल्ली में विश्व दुग्ध दिवस पर आयोजित समारोह में कही।
कृषि मंत्री ने कहा कि पिछले वर्षों में 2011-14 में 398 मिलियन टन दूध का उत्पादन हुआ था लेकिन 2014-17 में यह 465.5 मिलियन टन हो गया जो कि 16.9% की वृद्धि है। इसी तरह 2011-14 में किसानों की आमदनी रु. 29 प्रति लीटर थी जो 2014-17 में रु. 33 प्रति लीटर हो गयी जो कि 13.79% की वृद्धि है।
आंध्र प्रदेश का राष्ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्र लगभग तैयार है। कृषि मंत्री ने देशी नस्लों के बारे में बताया कि उष्मा–साध्य तथा रोग प्रतिरोधी होने के अलावा गायों की देशी नस्लें ए 2 टाइप का दूध उत्पादित करने के लिए जानी जाती हैं जो विभिन्न पुरानी स्वास्थ्य समस्याओं, जैसे ह्दय तथा रक्त वाहिकाओं संबंधी मधुमेह तथा स्नायु संबंधी विकारों से बचाने के अलावा कई अन्य स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्रदान करता है। उन्होंने कहा देश में ए 2 ए 2 दूध को अलग से बेचे जाने की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय गौकुल मिशन
गोपशुओं की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए देशी नस्लों के विकास और संरक्षण हेतु आबंटन को कई गुना बढ़ाया गया है। देश में पहली बार “राष्ट्रीय गौकुल मिशन” नामक एक नई पहल की गई। इसका उद्देश्य देशी बोवाईन नस्लों का संरक्षण तथा विकास करना है। इस मिशन के अंतर्गत मुख्यतः गोकुल ग्रामो की स्थापना करना, फील्ड परफॉरमेंस रिकॉर्डिंग करना, गोपालको एवं गौपालन से संबंधित संस्थानों को प्रति वर्ष सम्मानित करना, बुलमदर फर्म्स को सुदृढ़ करना, देसी नस्ल के उच्च अनुवांशिक गुणवता के साँड़ को वीर्य उत्पादन केन्द्रों में अधिक संख्या में शामिल करना इत्यादि है ।
देशी नस्लों का समग्र और वैज्ञानिक रूप से विकसित तथा संरक्षित करने के लिए उत्कृष्टता केंद्र के रूप में कार्य करने हेतु दो “राष्ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्रों” की स्थापना की जा रही है। राष्ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्र देशी जर्मप्लाज्म का भण्डार होने के अलावा देश में प्रमाणित जेनेटिक्स के स्रोत भी होंगे। मध्य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश दोनों राज्यों को क्रमश: उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्रों में एक-एक राष्ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्र की स्थापना हेतु 25- 25 करोड़ रुपए की राशि जारी की गई है।
दूध की लगातार बढ़ती मांग पूरा करने तथा किसानों के लिए दुग्ध उत्पादन को और भी लाभदायक बनाने के लिए भारत सरकार ने एक नई योजना राष्ट्रीय बोवाईन उत्पादकता मिशन को 825 करोड़ रुपए के आबंटन के साथ अनुमोदित किया है। देश में पहली बार राष्ट्रीय गौकुल मिशन के अंतर्गत ई पशु हाट पोर्टल स्थापित किया गया है।
टपक सिंचाई पद्धति वह विधि है जिसमें जल को मंद गति से बूँद-बूँद के रूप में फसलों के जड़ क्षेत्र में एक छोटी व्यास की प्लास्टिक पाइप से प्रदान किया जाता है। इस सिंचाई विधि का आविष्कार सर्वप्रथम इसराइल में हुआ था जिसका प्रयोग आज दुनिया के अनेक देशों में हो रहा है। इस विधि में जल का उपयोग अल्पव्ययी तरीके से होता है जिससे सतह वाष्पन एवं भूमि रिसाव से जल की हानि कम से कम होती है।
सिंचाई की यह विधि शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त होती है जहाँ इसका उपयोग फल बगीचों की सिंचाई हेतु किया जाता है। टपक सिंचाई ने लवणीय भूमि पर फल बगीचों को सफलतापूर्वक उगाने को संभव कर दिखाया है। इस सिंचाई विधि में उर्वरकों को घोल के रूप में भी प्रदान किया जाता है। टपक सिंचाई उन क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त है जहाँ जल की कमी होती है, खेती की जमीन असमतल होती है और सिंचाई प्रक्रिया खर्चीली होती है।
टपक सिंचाई से क्या लाभ होते हें
पारम्परिक सिंचाई की तुलना में टपक सिंचाई के अनेकों लाभ हैं जो निम्नलिखित हैं:
जल उपयोग दक्षता 95 प्रतिशत तक होती है जबकि पारम्परिक सिंचाई प्रणाली में जल उपयोग दक्षता लगभग 50 प्रतिशत तक ही होती है।
इस सिंचाई विधि में जल के साथ-साथ उर्वरकों को अनावश्यक बर्बादी से रोका जा सकता है।
विधि से सिंचित फसल की तीव्र वृद्धि होती है फलस्वरूप फसल शीघ्र परिपक्व होती है।
खर-पतवार नियंत्रण में अत्यन्त ही सहायक होती है क्योंकि सीमित सतह नमी के कारण खर-पतवार कम उगते हैं।
टपक सिंचाई विधि अच्छी फसल विकास हेतु आदर्श मृदा नमी स्तर प्रदान करती है।
इस सिंचाई विधि में कीटनाशकों एवं कवकनाशकों के धुलने की संभावना कम होती है।
लवणीय जल को इस सिंचाई विधि से सिंचाई हेतु उपयोग में लाया जा सकता है।
इस सिंचाई विधि में फसलों की पैदावार 150 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
पारम्परिक सिंचाई की तुलना में टपक सिंचाई में 70 प्रतिशत तक जल की बचत की जा सकती है।
इस सिंचाई विधि के माध्यम से लवणीय, बलुई एवं पहाड़ी भूमियों को भी सफलतापूर्वक खेती के काम में लाया जा सकता है।
टपक सिंचाई में मृदा अपरदन की संभावना नहीं के बराबर होती है, जिससे मृदा संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।
भारत में टपक सिंचाई
पिछले 15 से 20 वर्षों में टपक सिंचाई विधि की भारत के विभिन्न राज्यों में लोकप्रियता बढ़ी है। आज देश में 3.51 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल टपक सिंचाई के अन्तर्गत आता है जो कि 1960 में मात्र 40 हेक्टेयर था। भारत में टपक सिंचाई के अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल वाले मुख्य राज्य महाराष्ट्र (94 हजार हेक्टेयर), कर्नाटक (66 हजार हेक्टेयर) और तमिलनाडु (55 हजार हेक्टेयर) हैं।
टपक सिंचाई प्रणाली
एक आदर्श टपक सिंचाई प्रणाली, पम्प ईकाई , नियन्त्रण प्रधान, प्रधान एवं उप-प्रधान नली , पार्श्विक एवं निकास से बनी होती है।पम्प ईकाई जल स्रोत से जल को लेकर के पाइप प्रणाली में जल के रिहाई हेतु उचित दबाव बनाती है। नियन्त्रण प्रधान में कपाट होता है जो पाइप प्रणाली में जल की मुक्ति एवं दबाव को नियन्त्रित करता है। इसमें जल की सफाई हेतु छननी भी होती है। कुछ नियन्त्रण प्रधान में उर्वरक अथवा पोषक जलकुंड भी होता है। यह सिंचाई के दौरान नपी मात्रा में उर्वरक को जल में छोड़ता है। अन्य सिंचाई विधियों की तुलना में टपक सिंचाई का यह एक प्रमुख लाभ है।
प्रधान नली, उप-प्रधान नली एवं पार्श्विक, नियन्त्रण प्रधान से जल की पूर्ति खेत में करते हैं। प्रधान नली, उप-प्रधान नली एवं पार्श्विक आमतौर से पालिथीन की बनी होती हैं अतः इन्हें प्रत्यक्ष सौर ऊर्जा से नष्ट होने से बचाने हेतु जमीन में दबाया जाता है। आमतौर से पार्श्विक नलीयों का व्यास 13-32 मीलीमीटर होता है।निकास वह युक्ति होती है जिसका उपयोग पार्श्विक से पौधों को जल की पूर्ति हेतु नियन्त्रण में किया जाता है।
टपक सिंचाई हेतु उपयुक्त फसलें:
कतार वाली फसलों (फल एवं सब्जी), वृक्ष एवं लता फसलों हेतु टपक सिंचाई अत्यन्त ही उपयुक्त होती है जहाँ एक या उससे अधिक निकास को प्रत्येक पौधे तक पहुँचाया जाता है। टपक सिंचाई को आमतौर से अधिक मूल्य वाली फसलों के लिए अपनाया जाता है क्योंकि इस सिंचाई विधि की संस्थापन कीमत अधिक होती है। टपक सिंचाई का प्रयोग आमतौर से फार्म, व्यवसायिक हरित गृहों तथा आवासीय बगीचों में होता है।
यह लम्बी दूरी वाली फसलों के लिए उपयुक्त होती है। सेब, अंगूर, संतरा, नीम्बू, केला, अमरूद, शहतूत, खजूर, अनार, नारियल, बेर, आम आदि जैसी फल वाली फसलों की सिंचाई टपक सिंचाई विधि द्वारा की जा सकती है। इनके अतिरिक्त टमाटर, बैंगन, खीरा, लौकी, कद्दू, फूलगोभी, बन्दगोभी, भिण्डी, आलू, प्याज आदि जैसी सब्जी फसलों की सिंचाई भी टपक सिंचाई विधि से की जा सकती है। अन्य फसलों जैसे कपास, गन्ना, मक्का, मूंगफली, गुलाब एवं रजनीगंधा आदि को भी इस सिंचाई विधि द्वारा सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि टपक सिंचाई तकनीक में जल का उपयोग अल्पव्ययी तरीके से पौधों की सिंचाई हेतु होता है। सिंचाई की यह तकनीक न सिर्फ जल एवं मृदा संरक्षण को सुनिश्चित करती है अपितु इससे फसल पैदावार भी अधिक होती है। अतः संपोषित विकास के लक्ष्य प्राप्ति हेतु टपक सिंचाई आज समय की आवश्यकता है।