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मंगलवार, मार्च 19, 2024
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किसान अधिक पैदावार के लिए इस तरह करें बैंगन की वैज्ञानिक तरीके से खेती

बैंगन Brinjal की वैज्ञानिक खेती

देश में बैंगन आलू के बाद दूसरी सबसे अधिक खपत वाली सब्जी फसल है | विश्व में चीन के बाद भारत बैंगन की दूसरी सबसे अधिक पैदावार वाला देश है । बैंगन भारत का देशज है । प्राचीन काल से भारत में इसकी खेती होती आ रही है। ऊँचे भागों को छोड़कर समस्त भारत में यह उगाया जाता है। बैंगन का प्रयोग सब्जी, भुर्ता, कलौंजी तथा व्यंजन आदि बनाने के लिये किया जाता है | भारत मे तो छोटे बैंगन की प्रजाति का प्रयोग संभार बनाने में भी किया जाता है | देश में बैगन की मांग 12 बनी महीने रहती है | स्थानीय मांग के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों व प्रान्तों में बैंगन की अलग–अलग किस्में प्रयोग में लाई जाती है | कम लागत में अधिक उपज व आमदनी के लिये उन्नतशील किस्मों एवं वैज्ञानिक तरीकों से खेती करना आवश्यक है |

भूमि का चुनाव और उनकी तैयारी

भूमि की अच्छी उपज के लिये गहरी दोमट भूमि, जिसमें जीवांश की पर्याप्त मात्रा हो, सिंचाई और जल निकास के उचित प्रबंधन हो सबसे अच्छी समझी जाती है | बलुई दोमट भूमि में फलत तो शीघ्र मिलती है, लेकिन वानस्पतिक वृद्धी कम होती हैं, जिसके फल स्वरुप पैदावार कम मिलती है | साथ ही चिकनी भूमि में फल देर से मिलते है, परन्तु वानस्पतिक वृद्धी अधिक हो जाती है व पैदावार मध्यम होती है इसलिये दोमट भूमि का चुनाव अति आवश्यक है | भूमि की तैयारी के लिये पहली जुताई डिस्क हैरो से तथा 3-4 जुताईयां कल्टीवेटर से करके पाटा लगा देते है |

बैंगन की उन्नत किस्में

पंजाब सदाबहार :

इस किस्म के पौधें सीधे खड़े, 50-60 से.मी. ऊँचाई के, हरी शाखाओं और पत्तियों वाले होतें है | फल चमकदार, गहरे बैंगनी रंग के होतें है जो देखने मे काले रंग के प्रतीत होते है | फलों की लम्बाई 18 से 22 सें.मी. तथा चौड़ाई 3.5 से 4.0 सें.मी. होती है | समय से तुड़ाई करते रहने पर रोग व फल छेदक कीट का प्रकोप कम होता है | औसतन एक हैक्टेयर खेत से 300-400 कुन्तल पैदावार प्राप्त होती है |

स्वर्ण प्रतिभा:

बीज डालने का समय मध्य जून जुलाई, नवम्बर –जनवरी, अप्रैल-मई वहीँ पौधा लगाने का समय सही समय जुलाई-अगस्त, दिसम्बर-फरवरी, मई- जून, गर्मी के दिनो के लिये उपयुक्त है | पौधा लगाने के 60-65 दिनों के बाद पहला फल की तुड़ाई की जा सकती है | पौधा की लम्बाई 15-20 सेंमी तक, फल – बैगनी, चमकीला होता है एक फल का औसत वजन 150 से 200 ग्राम तक होता है |

स्वर्ण श्यामली:

भू-जनित जीवाणु मुरझा रोग प्रतिरोधी इस अगेती किस्म के फल बड़े आकार के गोल, हरे रंग के होते हैं। फलों के ऊपर सफेद रंग के धारियां होती है। इसकी पत्तियां एवं फलवृंतों पर कांटे होते हैं। रोपाई के 35-40 दिन बाद फलों की तुड़ाई प्रारंभ हो जाती है। इसके व्यजंन बहुत ही स्वादिष्ट होते हैं। इसकी लोकप्रियता छोटानागपुर के पठारी क्षेत्रों में अधिक है। इसकी उपज क्षमता 600-650 क्वि./हे. तक होती है।

काशी तरु:

फल लम्बें, चमकीले गहरे बैगनी रंग के होतें है | रोपाई के 75-80 दिन उपरान्त तुड़ाई के लिये उपलब्ध होते है और उपज 700 -750 कु./ हे. होती है |

काशी प्रकाश:

फल लम्बें पतलें और चमकीले हल्कें बैगनी रंग के होते है जिनका औसत वजन 190 ग्राम होता है | रोपाई के 80-85 दिन उपरान्त तुड़ाई के लिए उपलब्ध होते है और 600-650 कु./ हे. उपज प्राप्त की जा सकती है |

पूसा परपल लाँग:

इसके पौधे 40-50 सें.मी. ऊचाई के, पत्तियां व तने हरे रंग के होते है | पत्तियों के मध्य शिरा विन्यास पर काटें पाये जाते हैं | रोपण के लगभग 75 दिन बाद फलत मिलने लगती है | फल 20-25 सें.मी. लम्बे, बैगनी रंग के, चमकदार व मुलायम होते है | फलों का औसत वजन 100-150 ग्राम होता है | इसकी पैदावार 250-300 कु./ हे. |

पंत सम्राट:

पौधे 80-120 सें.मी. ऊँचाई के, फल लम्बे, मध्यम आकार के गहरे बैगनी रंग के होते है | यह किस्म फोमोप्सिस झुलसा व जीवाणु म्लानि के प्रति सहिष्णु है | रोपण के लगभग 70 दिनों बाद फल तुड़ाई योग्य हो जाते है | इसके फलों पर तना छेदक कीट का असर कम पड़ता है | वर्षा ऋतु में बुआई के लिए यह किस्म उपयुक्त है | प्रति हैक्टेयर औसतन 300 कुन्टल पैदावार होती है |

काशी संदेश :

पौधों की लम्बाई 71 सें.मी. पत्तियों में हलका बैंगनी रंग लिए होते है | फल गहरे बैंगनी रंग के गोलाकार और चमकीले होते है | फल का औसत वजन 225 ग्राम होता है रोपाई के 75 दिन बाद तुड़ाई कर 780-800 कु./ हे. की उपज प्राप्त की जा सकती है |

पंत ऋतुराज

इस किस्म के पौधे 60-70 से. मी. ऊँचे, तना सीधा खड़ा, थोडा झुकाव लिए हुए, फल मुलायम, आकर्षक, कम बीज वाले, गोलाकार तथा अच्छे स्वाद वाले होते है | यह किस्म रोपण के 60 दिन बाद तुड़ाई योग्य तैयार हो जाती है | यह किस्म जीवाणु उकठा रोग के प्रति सहिष्णु है तथा दोनों ऋतुओं (वर्षा व ग्रीष्म) में खेती योग्य किस्म है | इसकी औसत पैदावार 400 कु./ हे. होती है |

पूसा हाइब्रिड-6

यह किस्म लगाने का सही समय मध्य जून-जुलाई, नवम्बर –जनवरी, अप्रैल-मई, पौधा लगाने का समय- जुलाई-अगस्त, दिसम्बर- फरवरी, मई- जून, गर्मी के दिनों के लिये उपयुक्त है | पौधा लगाने के 60-65 दिनों के बाद पहली तुड़ाई की जा सकती है | सिंचाई  8-10 दिनों के अंतराल पर करने की आवश्यकता होती है | प्राप्त फल गोल, चमकदार, बैंगनी,  आकर्षक होता है। एक फल का ओसत वजन 200-250 ग्राम तक हो सकता है |

रामनगर जईंट

 वाराणसी और आस-पास के क्षेत्रों मे प्रचिलत इस किस्म के पौधे मजबूत, हल्के हरे रंग के शखाओं व पत्तियों वाले होते है | फल हरे-सफ़ेद रंग के औसतन 15-20 से. मी. लम्बे व 15-20 से.मी. व्यास के औसतन 1 कि.ग्रा. वजन के होते है | बैंगन का भर्ता बनाने के लिये यह किस्म बहुत उपयुक्त है | इसकी औसत उपज 400 कु./ हे. होती है |

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बीज बुआई एवं रोपण

पौधशाला में लगने वाली बीमारियों एवं कीटों के नियंत्रण हेतु पौधशाला की मिट्टी को सूर्य के प्रकाश से उपचारित करते हैं। इसके लिए 5-15 अप्रैल के बीच 3×1 मी. आकार की 20-30 सेंटीमीटर ऊँची क्यारियां बनाते हैं। प्रति क्यारी 20-25 कि.ग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 1.200 कि.ग्रा. करंज कि खली क्यारी में डालकर अच्छी तरह मिलाते हैं। तत्पश्चात क्यारियों की अच्छी तरह सिंचाई करके इन्हें पारदर्शी प्लास्टिक कि चादर से ढंक कर मिट्टी से दबा दिया जाता है। इस क्रिया से क्यारी से हवा एवं भाप बाहर नहीं निकलती और 40-50 दिन में मिट्टी में रोगजनक कवकों एवं हानिकारक कीटों कि उग्रता कम हो जाती है। एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई के लिए ऐसी 20-25 क्यारियों की आवश्यकता होती है।

बैगन कि शरदकालीन फसल के लिए जुलाई-अगस्त में, ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी-फरवरी में एवं वर्षाकालीन फसल के लिए अप्रैल में बीजों की बुआई की जानी चाहिए। एक हेक्टेयर खेत में बैगन की रोपाई के लिए समान्य किस्मों का 250-300 ग्रा. एवं संकर किस्मों का 200-250 ग्रा, बीज पर्याप्त होता है। पौधशाला में बुआई से पहले ट्राईकोडर्मा 2 ग्रा./कि. ग्रा. अथवा बाविस्टिन 2 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की  दर से उपचारित करें। बुआई 5 सेंटीमीटर की दूरी पर बनी लाइनों में की जानी चाहिए। बीज से बीज की दुरी एवं बीज की गहराई 0.5-1.0 सेंटीमीटर के बीच रखनी चाहिए। बीज को बुआई के बाद सौरीकृत मिट्टी से ढकना उचित रहता है। पौधशाला को अधिक वर्षा एवं कीटों के प्रभाव से बचाने के लिए नाइलोन की जाली (मच्छरदानी का कपड़ा) लगभग 1.0-1.5 फुट ऊंचाई पर लगाकर ढकना चाहिए एवं जाली को चारों ओर से मिट्टी से दबा देना चाहिए जिससे बाहर से कीट प्रवेश न कर सकें।

उत्तर भारत में बैंगन लगाने का मुख्य समय जून-जुलाई का महीना है | पौध 20 जून के आस-पास पौधशाला में डालना प्रारम्भ कर देते हें और रोपण जुलाई माह में करते हैं | अच्छी प्रकार से तैयार खेत में सिंचाई के साधन के अनुसार क्यारियाँ बना लें | क्यारियाँ में लम्बें फल वाली प्रजातियों के लिये 70-75 से.मी. और गोल फल वाली किस्मों के लिए 90 से.मी. की दुरी पर पौध रोपण करें | रोपण के समय यह ध्यान रखें कि पौधे कीट तथा रोग रहित हो | वर्षा के अनुसार रोपण मेड़ों या समतल क्यारियों में करें | रोपण जहाँ तक हो सके सायंकाल के समय ही करें |

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

बैंगन में खाद एवं उर्वरक की मात्रा इसकी किस्म, स्थानीय जलवायु व मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करती है | अच्छी फसल के लिये 8-10 टन सड़ी गोबर के खाद खेत के तैयार करते समय-समय तथा तत्व के रूप मे 80 किग्रा नाइट्रोजन, 50 किग्रा फास्फोरस व 50 किग्रा पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें | नाइट्रोजन की एक तिहाई व फास्फोरस व पोटाश की संपूर्ण मात्रा खेत की अंतिम जुताई के समय तथा नत्रजन को दो बराबर भागों में बांट कर 30 व 45 दिन बाद, खरपतवार नियंत्रण के पश्चात् खडी फसल में छिड़काव करें |

सिंचाई

रोपण के पश्चात फुहारें की सहायता से पौधों के थालों में 2-3 दिनों तक, सुबह और सायंकाल हल्का पानी दे, इसके बाद हल्की सिचाई करें ताकि पौंधे ज़मीन में अच्छी तरह पकड लें | बाद में आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें | साधारणतया गर्मी के मौसम में 10-15 दिन और सर्दी के मौसम में 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करें | यदि पौध मेड़ों पर लगाई गयी है तो सिंचाई आधी मेड तक करें और सिंचाई अंतराल कम रखें | वर्षा ऋतु में यदि वर्षा अधिक हो रही हो तो खेत से वर्षा का पानी निकालने के लिये निकास नाली के समुचित व्यवस्था होनी चाहिए |

बैंगन का पौधा काफी वृद्धी करता है | अतः फल लगने के बाद वह ज़मीन पर न गिर जाये या टूट न जाये इससे बचाव के लिए रोपण के 25-30 दिन बाद खेत की गुड़ाई करके जड़ों के पास मिट्टी चढ़ानी अत्यंत आवश्यक होता है | साथ ही साथ मिट्टी चढ़ाने से पानी देने के पश्चात उपर की मिट्टी सख्त नहीं हो पाती और वायु का संचार बना रहता है | गुड़ाई करते समय यह ध्यान रहे की पौधों की जड़ों को नुकसान न पहुचें अन्यथा पौधे सुख जायेगे | रोपण के 40-50 दिन तक बैंगन की फसल को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए क्योंकि यह पौधों को विकसित होने का उपयुक्त समय होता है | खरपतवार उगे होने से पौधें का विकास अच्छा नहीं हो पाता है क्योंकि उनकी खुराक खरपतवार ले लेते है |

बैंगन की फसल में लगने वाले कीट एवं रोग एवं उनका नियंत्रण

तना एवं फल वेधक कीट

बैंगन का यह प्रमुख एवं घातक कीट पुरें भारत में पाया जाता हैं | इसके द्वारा 50-93 प्रतिशत से ज्यादा क्षति हो जाती है | इस कीट का प्रकोप आमतौर पर पौध रोपाई के एक सप्ताह बाद शुरू हो जाता है | सुंडी अवस्था में ही यह कीट फसल को नुकसान पहुँचाता हैं | सूडी पौधों के प्ररोहों में छेदकर खाती हैं जिसके फलस्वरूप प्ररोह (शीर्ष) मुरझाकर लटक जाते हैं | पौधों में जब फल लगता है तो ये फल कुट (कैलिक्स) के उपर सुराख़ बनाकर फल के अंदर जाकर खाते है और सुराख़ को अपने मल से बन्द कर देते है | एक सुंडी 4-6 फलों को नुकसान पहुंचती है | सुंडी जब पूर्ण विकसित हो जाता है तो फल मे सुराख़ बनाकर बहार निकल आती है और फिर ज़मीन के अन्दर प्यूपा बनती हैं |

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नियंत्रण :

तना एवं फल वेधक कीट द्वारा ग्रसित तनों को उपर से सूडी सहित तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए | यह क्रिया हफ्ते में एक बार करनी चाहिए | दस मीटर के अन्तराल पर प्रति हे. में 100 फेरोमोन फंदा लगाकर वयस्क नर कीटों को सामूहिक रूप से आकर्षित कर नष्ट करने से खेत में अंडो की संख्या में काफी कमी हो जाती है | नीम गिरी 4 प्रतिशत (40 ग्राम नीम गिरी का चूरण एक लीटर पानी में ) का घोल बनाकर दस दिन के अन्तराल पर फसल में छिडकाव लाभकारी सिद्ध हुआ है | आवश्यकतानुसार रैनेक्सपयार 18.5 एस. सी. 0.2-0.4 मिली/ली. या इम्मामेक्तिन बेंजोएट 5 एस. सी. 0.35 ग्राम/ली. या फेनाप्रोपेथ्रिन 30 ई. सी. 0.75 मिली/ली. या लेम्डा साइहैलोथ्रिन 5 ई.सी. 0.65 मिली/ली. को वानस्पतिक अवस्था या पुष्पावस्था के दौरान 10-15 दिन के अन्तराल पर बदल–बदल कर छिडकाव करने से इस कीट के संक्रमण में कमी आती है |   

हरी फुदका (जैसिड) :

जैसिड बैगंन के प्रारम्बिक अवस्था में पत्तियों का रस चूसकर बहुत नुकसान पहुँचात है | वयस्क हरा फुदका 2 मिमी लम्बा हरे रंग का तथा पच्चर के आकर का होता है जबकि तरुण (निम्फ) हरे श्वेत रंग का होता है इसके अगले दोनों पंखो पर दो काले धब्बे पाए जाते है | तरुण और वयस्क दोनों ही हानिकारक होते हैं, तथा तिरछी चाल चलते हैं | तरुण और वयस्क दोनों ही बैगंन की पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं | साथ–साथ अपना जहरीला लार उसमें छोड़ते हैं | इनसे प्रभावित भाग पीला हो जाता है तथा पत्ती किनारे से अंदर की ओर मुड़ने लगती है जिससे प्याले के आकार की हो जाती है | धीरे–धीरे पूरी पत्ती पीले धब्बें से भर जाती है तथा सुखकर गिरने लगती है | इसके प्रकोप से पैदावार काफी घट जाती है |

नियंत्रण :

रोपाई से पहले बैंगन की पौध की जड़, इमिडाक्लोप्रिंड 17.8 एसएल दवा के घोल (1 मिली रसायन प्रति लीटर पानी मे घोलकर) में एक घंटे तक डुबोकर रोपाई करने से फसल को इस कीट से 30 दिन तक प्रभावित होने से बचाया जा सकता है | नीम गिरी 4 प्रतिशत का प्रयोग 10 दिन के अन्तराल पर भी लाभकारी देखा गया है   इमिडाक्लोप्रिंड 17.8 एस.एल. 0.35 मिली / ली. या थायोमेथोक्जाम 25 डब्लूजी 0.35 मिली / ली. को रोपण के 25 दिन बाद 10-15 दिन के अन्तराल पर छिड़कने से इस कीट के प्रकोप से फसल को बचाया जा सकता हैं |

लाल स्पाइडर माइट :

प्रायः गर्मी वाली बैंगन की फसल में इस माइट द्वारा फसल को काफी नुकसान पहुँचाता हैं | इनके शिशु तथा प्रोढ पत्तियों के निचली सतह पर रस चूसते हैं और वही अपने द्वारा बनाए गए सेल्कनुमा जाल से ढकें रहते है | इनके रस चूसने से पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीली चिक्तिया उभर आती हैं और धीरे–धीरे प्रभावित पत्तिया मुरझा कर सूख जाती हैं |

नियंत्रण :

माइट द्वारा ग्रासित पत्तियों को हटाना एवं नष्ट कर देना चाहिए | कोई भी मकड़ी नाशक जैसे स्पाइरोमेसीफेन 22.9 एससी. 0.8 मिली / ली. या डाइकोफाल 18.5 ईसी. 5 मिली/ली. या फेनप्रोपेथ्रिन 30 ईसी. 0.75 या फ्लूमईट/फ्लुफेंजिन 20 एससी. 1 मिली / ली. 10-15 दिन के अन्तराल पर बदल बदल कर छिडकाव करें |

प्रमुख रोग एवं नियंत्रण

फोमोप्सिस झुलसा एवं फामोप्सिस फल सडन

यह बैंगन की प्रमुख बीमारी है, जिसका प्रभाव पौधें के प्रत्येक भाग पर होता है |  पौधों की पत्तियों के निचली  सतह पर गोलाकार, हल्के भूरे धब्बे दिखाई पडतें हैं | धब्बे के बीच का हिस्सा हल्कें रंग का होता हैं | पुराने धब्बे के ऊपर बहुत छोटे–छोटे काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं | निचले तने की गाँठो के पास भूरी धँसी हुई सुखी सड़ने देखने को मिलती है | कुछ  टहनियाँ सुख जाती हैं | पुराने फलों के ऊपर हल्के भूरे धँसे हुए धब्बे बनते हैं, प्रभावित फल सड़ने लगता है और धीरे–धीरे सम्पूर्ण फसल नष्ट हो जाती है |

नियंत्रण :

रोगरहित बीज की बुआई करें, बीजों को कार्बेन्डाजिम से 2.5 ग्राम दवा प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करके बुआई करें | रोगरोधी किस्मों का चयन करें तथा फसल चक्र अपनाये | संक्रमित फसल अवशेष को इकट्ठा करके जला दें | बीज की फसल में पहली तुड़ाई करने के बाद ही फलों को बीज के लिये छोड़ें | बीज वाली फसल में एक बार कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत या 0.15 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम + मैंकोजेब (1.5 ग्रा./ली. पानी के साथ ) घोल बनाकर छिडकाव अवश्य करें |

जीवाणु उकठा रोग :

इसका प्रकोप पहले पुरे पौधे पर एक साथ मुरझान के रूप में दिखाई पडता है | तने को काटकर देखने पर एक भूरे रंग का जमा हुआ पदार्थ दिखाई देता है | इसमें से सफ़ेद लसलसेदार छोटी-छोटी बूंद उस पर आ जाती हैं |

नियंत्रण :

रोगरोधी किस्मों का चयन इस रोग का सबसे कारगर उपाय है | लम्बी अवधि का फसल चक्र अपनायें जिसमें सोलेनेसी कुल (टमाटर, बैंगन, मिर्च ) की फसल न हो | खेत का पी.एच. अम्लीय नहीं होना चाहिए | पौधों की जड़ों को रोपण से पूर्व स्ट्रेप्टोसाईक्लिन नामक दवा के 150 पी.पी.एम. (1 ग्राम दवा 6 लीटर पानी में ) के घोल में 30 मिनट तक डुबोने के पश्चात रोपण करें |

फलों की तुड़ाई एवं उपज

फलों की तुड़ाई एक निश्चित अंतराल पर करते रहना चाहिए अन्यथा फल कड़े हो जाते हैं और बाजार भाव घट जाता है | यह ध्यान रखे कि जब फलों की पूरी बढ़वार हो जाए और उनका रंग चमकदार हो और उनमें बीज मुलायम हो तभी तुड़ाई कर लेनी चाहिए | बैंगन की पैदावार उसकी किस्म, मिट्टी के प्रकार एवं मौसम के ऊपर निर्भर करती है | औसतन एक हेक्टेयर खेत में लगभग 400-600 कुन्तल उपज प्राप्त हो जाती है

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