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शनिवार, अप्रैल 27, 2024
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धान की खेती करने वाले किसान जुलाई महीने में करें यह काम, मिलेगी भरपूर पैदावार

धान की खेती के लिए सलाह

जुलाई महीना धान की खेती के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, इस महीने मानसून पूरे देश में आ चुका होता है इसलिए जरुरी है कि किसान सभी कार्यों को समय पर पूरा करें ताकि फसलों की अधिकतम पैदावार प्राप्त की जा सके। वैज्ञानिकों द्वारा अभी तक धान लगाने की कई नई तकनीकें विकसित की गई हैं जिससे कम लागत में अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

धान की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु एवं 20–35 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है। पौधे के विकास के लिए अच्छी वर्षा की जरुरत होती है। धान के लिए मृदा की उपयुक्तता उसकी उन्नत प्रजाति के अलावा फसल उगने की परिस्थिति पर भी निर्भर करती है। धान की खेती में जल की उपलब्धता एक प्रमुख कारक है। अच्छी जलधारण क्षमता वाली मटियार या मटियार दोमट व चिकनी मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है। धान की खेती के लिए मृदा का पीएच मान प्राय: 6.5–8.5 सर्वोत्तम होता है। सिंचाई की समुचित व्यवस्था तथा सही प्रबंधन से अधिकतर मृदाओं में धान की अच्छी पैदावार ली जा सकती है।

खेत की तैयारी कैसे करें ?

किसानों को धान की खेती करने के लिए गर्मी की जुताई के बाद 2–3  जुताइयां करके खेती की तैयार करनी चाहिए क्योंकि इसकी खेती के लिए खेत का समतल होना आवश्यक है। इसके साथ ही खेत की मजबूत मेड़बंदी भी कर देनी चाहिए, ताकि वर्षा का पानी अधिक मात्रा में संचित किया जा सके। धान की रोपाई के लिए एक सप्ताह पूर्व खेत की सिंचाई कर दें। रोपाई से पहले 2–3 जुताई हैरो से कर देनी चाहिए। बाद में पानी भरकर खेत में पड़लर और टिलर से जुताई करके व पाटा लगाकर मिट्टी को लेहयुक्त एवं समतल बना देना चाहिए।

प्रमाणित बीज से उत्पादन अधिक मिलाता है। 20 -25 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा को 60 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद या वर्मीकम्पोस्ट में मिलाकर हल्के पानी का छिंटा देकर एक सप्ताह तक छाया में सुखाने के बाद खेत में एक समान छिड़काव कर दें, जिससे मृदाजनित रोगों में कमी आयेगी।

धान की रोपाई के लिए पौधे की तैयारी

जब पौधे 20–25 दिनों पुराने हो जाए तथा उसमें 4–5 पत्तियाँ निकल जाए, तो यह रोपाई के लिए उपयुक्त होती है। यदि पोध की उम्र ज्यादा होगी, तो रोपाई के बाद कल्ले कम फुटते हैं और उपज में कमी आती है। मध्यम व देर से पकने वाली प्रजातियों की रोपाई माह के प्रथम पखवाड़े तक पूरी कर लेना चाहिए। धान की शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की रोपाई जुलाई के दूसरे पखवाड़े तक की जा सकती है। सुगन्धित प्रजातियों की रोपाई माह के अंत में प्रारम्भ करें। प्रत्येक वर्ष धानगेहूं लेने वाले क्षेत्रों में हरी खाद या 10–20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद का प्रयोग करें। पौध को उखाड़ने के पहले दिन क्यारियों की अच्छी तरह सिंचाई करें।

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पौध रोपण वाले दिन सुबह ही नवपौध को नर्सरी से कमजोर, रोगमुक्त तथा अन्य प्रजातियों की पौध से आलग कर देना चाहिए। पंक्ति से पंक्ति एवं पौध से पौध की दूरी 20–30 x 15 सें. मी. होनी चाहिये। पौध की खेत में रोपाई 3 सें.मी. की गहराई पर करते हैं, एक जगह पर 2–3 पौध ही लगायें। एक वर्गमीटर क्षेत्रफल में कम से कम 33 पौधे होने चाहिये। देर से रोपाई करने की दशा में अथवा ऊसर भूमि में रोपाई के लिए 15 x 10 सें.मी. की दुरी पर लगभग 35–40 दिनों पुरानी पौध तथा प्रत्येक स्थान पर 3–4 पौध की रोपाई करनी चाहिये।

धान में कितने खाद का छिड़काव करें?

धान की बौनी प्रजातियों के लिये 100–120 कि.ग्रा नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस, 60 कि.ग्रा. पोटाश एवं 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट/हैक्टर की दर से प्रयोग करें। बासमती प्रजातियों के लिए 80–100 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 50–60 कि. ग्रा. फास्फोरस, 40 – 50 कि. ग्रा. पोटाश एवं 20 – 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। सिंगल सुपर फास्फेट,  म्यूरेट आफ़ पोटाश एवं जिंक की पूरी मात्रा आखिरी जुताई के समय देनी चाहिये। पौधा अच्छी तरह से जड़ पकड़ ले, तो यूरिया की पहली तिहाई मात्रा रोपाई के 5–8 दिनों बाद समान रूप से छिड़क दें।

दूसरी एक तिहाई मात्रा कल्ले फूटते समय यानी रोपाई के 25–30 दिनों बाद तथा शेष एक तिहाई मात्रा का फूल आने से पहले यानी रोपाई के 50–60 दिनों बाद खड़ी फसल में छिड़काव करें। यदि हरी खाद या गोबर की खाद का प्रयोग किया गया हो, तो नाइट्रोजन की मात्रा 20–25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से कम कर देनी चाहिये।

नील हरित शैवाल के प्रयोग से लगभग प्रतिवर्ष प्रति हेक्टेयर 20–30 कि.ग्रा. नाइट्रोजन मृदा में स्थापित होती है, जिसका प्रयोग धान की फसल द्वारा होता है। इसे 10–15 कि.ग्रा. टीका रोपाई के एक हफ्ते बाद खड़े पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से बिखेर दें। शैवाल का प्रयोग कम से कम तीन वर्ष तक लगातार करें। शैवाल का प्रयोग कर रहे हों, तो इस बात का ध्यान रखें कि खेत में पानी सूखने नहीं पाये।

खरपतवारों का नियंत्रण कैसे करें?

धान की फसल में खरपतवारों से होने वाली हानि को 15–85 प्रतिशत तक आंकी गई है। रोपाई किये गये धान की तुलना में सीधे बोये गये धान में अधिक नुकसान होता है। पैदावर में कमी के साथसाथ खरपतवार धान में लगने वाले रोग एवं कीट व्याधियों को भी आश्रय देते हैं। कुछ खरपतवार के बीज धान के बीज के साथ मिलकर उसकी गुणवत्ता को ख़राब कर देते हैं। खेत में दानेदार रसायनों कर प्रयोग के समय 4 – 5 सें. मी. पानी अवश्य भरा रहना चाहिए।

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बुआई के 1-2 दिन बाद पायराजोसल्फ्यूरान 250 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पौध निकलने के पूर्व छिड़काव करें। इसके लिए शाकनाशी को रेट में (10-15 किलोग्राम/1000 वर्ग मीटर) मिलाकर उसे नर्सरी क्यारियों पर एक समान रूप से फैला दें तथा हल्का पानी (1-2 सेमी) क्यारियों में भरा रहने दें जिससे खरपतवारनाशी एक समान क्यारियों में फैल जाए। धान की फसल में खैरा रोग दिखाई देने पर प्रति हेक्टेयर 5 कि. ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 कि.ग्रा. चूने को  800 लीटर पानी घोलकर फसल पर छिड़काव करें। किसान नीचे दिये गये शाकनाशियों का उपयोग कर सकते हैं।

  • ब्यूटाक्लोर 50 ईसी 2.5- 4.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की मात्रा 600 से 800 लीटर मात्रा पानी की में मिलाकर प्रति हेक्टेयर फसल रोपने के दो से तीन दिन के बाद छिड़काव करें। अथवा
  • थायो बेनकार्ब 50 ईसी 2.0- 3.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की मात्रा 500 से 600 लीटर मात्रा पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर फसल रोपने के तीन से चार दिन के बाद छिड़काव करें। 
  • 10 एससी (नोमिनी गोल्ड) 250 मिली. प्रति हेक्टेयर के लिए 600-700 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर पानी में मिलाकर 20-30 दिनों के बाद छिड़काव करें। अथवा 
  • ईथोक्सीसल्फ्यूरान 15 डब्ल्यू.डी.जी. 30 ग्राम प्रति हेक्टेयर के लिए 600-700 लीटर प्रति हेक्टेयर पानी में मिलाकर 20-25 दिनों के बाद छिड़काव करें।

कोनोवीडर से खरपतवार नियंत्रण से लाभ

धान में कोनोवीडर द्वारा खरपतवार प्रबंधन करने से खरपतवार, खेत में ही पलटकर मिट्टी में दबने से सड़कर जैविक खाद का काम करते हैं। इससे पौधों को पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं। कोनोवीडर का प्रयोग करने से मृदा में वायु संचार बढ़ जाता है। वायु संचार में वृद्धि के फलस्वरूप मृदा में मौजूद लाभकारी सूक्ष्म जीवाणुओं की गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं, जो जैविक पदार्थों को शीघ्र सड़ाकर पौधों को पोषक तत्त्व के रूप में उपलब्ध करवाती है। स्थानीय विधि के अन्तर्गत जड़ में वायु संचार बढ़ने से जड़ों का विकास एवं फैलाव अधिक होता है।

पौध रोपण के 10 दिनों बाद से 10 दिनों के अंतराल पर 3-4 बार कोनोवीडर चलाकर खरपतवारों का प्रबंधन करना आवश्यक है। इसके साथ ही साथ कोनोवीडर के चलाने हेतु खेत में पर्याप्त मात्रा में नमी होनी चाहिए।

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