पशुओं को गर्मियों से निजात दिलाने के लिए ज्यादातर पशुपालक जानकारी के अभाव में पशुओं को दोपहर में ही नहला देते है। इससे दूध उत्पादन की क्षमता पर तो असर पड़ता है साथ ही पशुओं को बुखार या लू की भी समस्या होती है।
लू से कैसे बचाएं
मौसम विभाग ने जून तक मानसून आने का अनुमान भी जताया है। यानी की मई के अंत तक गर्म लू चलने से पशुपालकों को मुश्किलें आ सकती हैं।
नहलाने का तो पशुपालकों को धयान रखना चाहिए साथ ही इस बात का भी ध्यान रखे कि अगर पशु को चराने के लिए ले जा रहे तो उसको सूखी चरी खिलाने से बचाएं इससे पशुओं की मौत भी हो जाती है।” गर्मी के मौसम में हवा के गर्म थपेड़ों और बढ़े हुए तापमान से पशुओं में लू लगने का खतरा और भी ज्यादा बढ़ जाता है।
कई बार पशुपालक पशु के चरने के आने के बाद उन पर पानी छिड़क देते हैं। जिससे पशुओं को बुखार आ जाता है। गर्मियों में भैंसों को तो दोपहर में नहलाया जा सकता है क्योंकि उनकी खाल काफी मोटी होती है। इससे उन पर खासा कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन गाय और बकरी के लिए यह नुकसानदायक बन जाता है। इससे सबसे बड़ा नुकसान पशुपालक को होता है क्योंकि दूध उत्पादन घट जाता है।
ऐसे में अगर पशुपालक अपने पशुओं को भरी दोपहर में नहलाएंगे तो पशुपालकों को आर्थिक नुकसान झेलना पड़ सकता है। पशुचिकित्सा अधिकारी डॉक्टर अजीत कुमार सिंह बताते हैं, अगर पशु ज़्यादा समय तक खुली धूप के संपर्क में रहता है और उस पर पानी डाल दिया जाए तो वह सन स्ट्रोक बीमारी की चपेट में आसानी से आ सकता है। इस बीमारी के कारण पशु के आंखों में लालपन हो जाता है और पतला मल त्याग करने लगता है।
किसान क्रेडिट कार्ड के लाभ, प्राप्त करने के लिए प्रकिया एवं विशेषताएं
किसान क्रेडिट कार्ड योजना के लाभ –
सरल वितरण प्रक्रिया
नकद आपूर्ति के लिए बहुत ही आसान प्रक्रिया
प्रत्येक फसल के लिए ऋण हेतु आवेदन की आवश्यकता नहीं
किसानों के लिए किसी भी समय ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित करना व किसानों के लिए ब्याज़ के बोझ को घटाना
किसानों की सुविधा और विकल्प के अनुसार खाद और उर्वरक की खरीद करना।
डीलर से नकद खरीद पर छूट
3 वर्षों तक ऋण सुविधा- हर मौसम में मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं
कृषि आय के आधार पर अधिकतम ऋण सीमा को बढ़ाना
ऋण सीमा के भीतर कई बार राशि का निकालना संभव
फसल कटाई के बाद अदायगी का प्रावधान
कृषि अग्रिम के अनुसार ब्याज़ दर लागू
कृषि अग्रिम के अनुसार प्रतिभूति, मार्जिन एवं प्रलेखन नियम होंगे
किसान क्रेडिट कार्ड प्राप्त करने की प्रक्रिया
अपने नज़दीकी सार्वज़निक क्षेत्र के बैंक से सम्पर्क कर ज़ानकारी हासिल करें।
योग्य किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड दिया जाएगा और उन्हें पासबुक दिया जाएगा। पासबुक पर किसान का नाम व पता, भूमि ज़ोत का विवरण, उधार सीमा, वैधता अवधि, एक पासपोर्ट आकार का फोटो होगा जो पहचान पत्र का काम करेगा और लेन-देन का लेखा-ज़ोखा रखेगा।
खाते का उपयोग करते समय उधारकर्त्ता को अपना कार्ड-सह-पासबुक दिखाना होगा।
योजना की विशेषताएँ
यह योजना देशभर के सभी किसान क्रेडिट कार्ड धारकों की मृत्यु या स्थायी अक्षमता को शामिल करती है।
शामिल किये जाने वाले लोगः 70 वर्ष आयु तक के सभी किसान क्रेडिट कार्ड धारक।
इस योजना के अंतर्गत शामिल लाभ इस प्रकार है-
दुर्घटना के कारण मृत्यु होना जो कि बाह्य, हिंसक तथा दृष्टिगत कारणों से हो: 50,000 रुपये
स्थायी पूर्ण अक्षमता: 50,000 रुपये
दो अंग या दोनों आँख या एक अंग तथा एक आँख खो जाने पर: 50,000 रुपये
एक अंग या एक आँख खोने पर: 25,000 रुपये
मास्टर पॉलिसी की अवधिः 3 वर्षों के लिए मान्य।
बीमे की समय अब्धि
जिन मामलों में वार्षिक प्रीमियम भरा जाना हों उनमें बीमा कवर हिस्सा लेने वाली बैंकों से प्रीमियम प्राप्त होने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के लिए प्रभावी होगा। तीन वर्ष की अवधि वाले बीमा के मामले में, बीमा काल प्रीमियम प्राप्ति की तिथि से तीन वर्षों तक होगा।
प्रीमियम एवं अन्य सम्बंधित जानकारी
प्रत्येक किसान क्रेडिट कार्ड धारक के लिए लागू 15 रुपये वार्षिक प्रीमियम में से 10 रुपये बैंक तथा 5 रुपये किसान क्रेडिट कार्ड धारक को देना होता है।
संचालन विधिः क्षेत्रवार आधार पर व्यवसाय की सेवा चार बीमा कम्पनियों द्वारा की जा रही है। युनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कंपनी, आँध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, अंडमान एवं निकोबार, पुड्डेचेरी, तमिलनाडु तथा लक्षद्वीप को कवर करेगी।
लागू करने वाली शाखाओं को बीमा प्रीमियम मासिक आधार पर जमा करना होगा एवं उसके साथ उन किसानों की सूची भी देना होगी जिन्हें उस महीने के दौरान किसान क्रेडिट कार्ड जारी किये गये हों।
भुगतान के दावा की प्रक्रियाः मृत्यु, अक्षमता के दावों के मामलों में तथा डूबने से मृत्यु होने पर:दावे का निपटारा बीमा कंपनियों द्वारा किया जाएगा। इसके लिए एक अलग प्रक्रिया का पालन करना होगा।
सबसे पहले यह सुनिश्चित करे की पशु किसी बीमारी से ग्रस्त नही है। इसकी जाच कराए, टीबी, जेडी एवं संक्रामक गर्भपात जैसी बीमारिया लाइलाज होती है। इनसे मुक्त होने पर ही पशुओ को खरीदने की सोचे।
बाजारों अथवा झुग्गियों से पशु खरीदने से बचे। इनमे बीमारी होने के जोखिम अधिक होते हैं।
पशुओ को परिवहन के दौरान तनाव से बचाएं क्योकि तनाव से रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
नए ख़रीदे गए पशु के संपर्क में आने के बाद अपने पशु झुंड से रहे।
नए ख़रीदे गए पशुओ को संगरोध (क्वारंटाइन) अवधि के बाद, तब ही में मिलाए जब वे सभी रोगों (टी बी , जे डी तथा ब्रुसलोसिस) से मुक्त हों तथा उनका टीकाकरण, कृमिनाश तथा चीचड़ मुक्त किया गया हो।
सभी अन्य पशुओ से दूध दुहने के बाद ही अलग से नए ख़रीदे गए का दूध दुहें।
संगरोध (क्वारंटाइन) के दौरान नए ख़रीदे गए पशु की उप-नैदानिक नैदानिक थनैला के लिए जांच कराए अगर रोग हो तो उसका उपचार कराए। रोग मुक्त होने पे हे उसे पशु झुंड में शामिल करे।
मिट्टी परीक्षण के लिए पहली आवश्यक बात है – खेतों से मिट्टी के सही नमूने लेना। न केवल अलग-अलग खेतों की मृदा की आपस में भिन्नता हो सकती है, बल्कि एक खेत में अलग-अलग स्थानों की मृदा में भी भिन्नता हो सकती है। परीक्षण के लिये खेत में मृदा का नमूना सही होना चाहिए।
मृदा का गलत नमूना होने से परिणाम भी गलत मिलेंगे। खेत की उर्वरा शक्ति की जानकारी के लिये ध्यान योग्य बात है कि परीक्षण के लिये मिट्टी का जो नमूना लिया गया है, वह आपके खेत के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व करता हो।
नमूना लेने का उद्देश्य
रासायनिक परीक्षण के लिए मिट्टी के नमूने एकत्रित करने के मुख्य तीन उद्देश्य हैं:
फसलों में रासायनिक खादों के प्रयोग की सही मात्रा निर्धारित करने के लिए।
ऊसर तथा अम्लिक भूमि के सुधार तथा उसे उपजाऊ बनाने का सही ढंग जानने के लिए।
बाग व पेड़ लगाने हेतु भूमि की अनुकूलता तय करने के लिए।
मिट्टी का सही नमूना लेने की विधि के बारे में तकनीकी
रासायनिक खादों के प्रयोग के लिये नमूना लेना
समान भूमि की निशानदेही :
जो भाग देखने में मृदा की किस्म तथा फसलों के आधार पर जल निकास व फसलों की उपज के दृष्टिकोण से भिन्न हों, उस प्रत्येक भाग की निशानदेही लगायें तथा प्रत्येक भाग को खेत मानें।
नमूना लेने के औजार:
मृदा का सफल नमूना लेने के लिये मृदा परीक्षण टयूब (soil tube), बर्मा फावड़ा तथा खुरपे का प्रयोग किया जा सकता है।
नमूना एकत्रित करने की विधि
मृदा के उपर की घास-फूस साफ करें।
भूमि की सतह से हल की गहराई (0-15 सें.मी.) तक मृदा हेतु टयूब या बर्मा द्वारा मृदा की एकसार टुकड़ी लें। यदि आपको फावड़े या खुरपे का प्रयोग करना हो तो ‘’v’’ आकार का 15 सें.मीं. गहरा गड्ढा बनायें। अब एक ओर से ऊपर से नीचे तक 10-12 अलग-अलग स्थानों (बेतरतीब ठिकानों) से मृदा की टुकड़ियाँ लें और उन पर सबको एक भगोने या साफ कपड़े में इकट्ठा करें।
अगर खड़ी फसल से नमूना लेना हो, तो मृदा का नमूना पौधों की कतारों के बीच खाली जगह से लें। जब खेत में क्यारियाँ बना दी गई हों या कतारों में खाद डाल दी गई हो तो मृदा का नमूना लेने के लिये विशेष सावधानी रखें।
रासायनिक खाद की पट्टी वाली जगह से नमूना न लें। जिन स्थानों पर पुरानी बाड़, सड़क हो और यहाँ गोबर खाद का पहले ढेर लगाया गया हो या गोबर खाद डाली गई हो, वहाँ से मृदा का नमूना न लें। ऐसे भाग से भी नमूना न लें, जो बाकी खेत से भिन्न हो। अगर ऐसा नमूना लेना हो, तो इसका नमूना अलग रखें।
मिट्टी को मिलाना और एक ठीक नमूना बनाना :
एक खेत में भिन्न-भिन्न स्थानों से तसले या कपड़े में इकट्ठे किये हुए नमूने को छाया में रखकर सूखा लें। एक खेत से एकत्रित की हुई मृदा को अच्छी तरह मिलाकर एक नमूना बनायें तथा उसमें से लगभग आधा किलो मृदा का नमूना लें जो समूचे खेत का प्रतिनिधित्व करता हो।
लेबल लगाना:
हर नमूने के साथ नाम, पता और खेत का नम्बर का लेबल लगायें। अपने रिकार्ड के लिये भी उसकी एक नकल रख लें। दो लेबल तैयार करें– एक थैली के अन्दर डालने के लिये और दूसरा बाहर लगाने के लिये। लेबल पर कभी भी स्याही से न लिखें। हमेशा बाल पेन या कॉपिंग पेंसिल से लिखें।
सूचना पर्चा:
खेत व खेत की फसलों का पूरा ब्योरा सूचना पर्चा में लिखें। यह सूचना आपकी मृदा की रिपोर्ट व सिफारिश को अधिक लाभकारी बनाने में सहायक होगी। सूचना पर्चा कृषि विभाग के अधिकारी से प्राप्त किया जा सकता है। मृदा के नमूने के साथ सूचना पर्चा में निम्नलिखित बातों की जानकारी अवश्य दें।
खेत का नम्बर या नाम :
अपना पता :
नमूने का प्रयोग (बीज वाली फसल और किस्म) :
मृदा का स्थानीय नाम :
भूमि की किस्म ( सिंचाई वाली या बारानी) :
सिंचाई का साधन :
प्राकृतिक निकास और भूमि के नीचे पानी की गहराई :
भूमि का ढलान :
फसलों की अदल-बदल :
खादों या रसायनों का ब्योरा, जिसका प्रयोग किया गया हो :
कोई और समस्या, जो भूमि से सम्बन्धित हो :
नमूने किस तरह बांधें
हर नमूने को एक साफ कपड़े की थैली में डालें। ऐसी थैलियों में नमूने न डालें जो पहले खाद आदि के लिए प्रयोग में लायी जा चुकी हो या किसी और कारण खराब हों जैसे ऊपर बताया जा चुका है। एक लेबल थैली के अन्दर भी डालें। थैली अच्छी तरह से बन्द करके उसके बाहर भी एक लेबल लगा दें।
मिट्टी परीक्षण दोबारा कितने समय के अंतराल पर करायें ?
कम से कम 3 या 5 साल के अन्तराल पर अपनी भूमि की मृदा का परीक्षण एक बार अवश्य करवा लें। एक पूरी फसल-चक्र के बाद मृदा का परीक्षण हो जाना अच्छा है। हल्की या नुकसानदेह भूमि की मृदा का परीक्षण की अधिक आवश्यकता है।
वर्ष में जब भी भूमि की स्थिति नमूने लेने योग्य हो, नमूने अवश्य एकत्रित कर लेना चाहिये। यह जरूरी नहीं कि मृदा का परीक्षण केवल फसल बोने के समय करवाया जाये।
मिट्टी परीक्षण कहाँ करायें ?
किसान के लिए विभिन्न स्थानों पर मिट्टी जाँच की सुविधा नि:शुल्क उपलब्ध है। अपने-अपने खेत का सही नमूना क्षेत्रों में एवं विश्वविद्यालय में कार्यरत मिट्टी जाँच प्रयोगशाला में भेजकर परीक्षण करवा सकते हैं एवं जाँच रिपोर्ट प्राप्त कर सकते हैं। ये स्थान है
मिट्टी के प्रकार
पी.एच
सुधारने के उपाय
अम्लीय मिट्टी झारखंड में
पाई जाती है। इस भाग में
ऊँची जमीन अधिक अम्लीय
होता है।
इस तरह की मिट्टियों की
रासायनिक प्रतिक्रिया पी.एच.
7 से कम होती है। परन्तु
उपयोग को ध्यान में रखते हुए
6.5 पी.एच. तक की मिट्टी को
ही सुधारने की आवश्यकता है।
चूने का महीन चूर्ण 3 से 4
क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से
बुआई के समय कतारों में डालकर
मिट्टी को पैर से मिला दें। उसके
बाद उर्वरकों का प्रयोग एवं बीज की
बुआई करें। जिस फसल में चूना की
आवश्यकता है। उसी में चूना दें, जैसे
दलहनी फसल, मूँगफली, मकई
इत्यादि। चूने की यह मात्रा प्रत्येक
फसल में बोआई के समय दें।
नाइट्रोजन की कमी के लक्षण
पौधों की बढ़वार रूक जाना। पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं। निचली पत्तियाँ पहले पीली पड़ती है तथा नयी पत्तियाँ हरी बनी रहती हैं। नाईट्रोजन की अत्यधिक कमी से पौधों की पत्तियाँ भूरी होकर मर जाती हैं।
फॉस्फोरस की कमी के लक्षण
पौधों का रंग गाढ़ा होना। पत्तों का लाल या बैंगनी होकर स्याहीयुक्त लाल हो जाना। कभी-कभी नीचे के पत्ते पीले होते हैं, आगे चलकर डंठल या तना का छोटा हो जाना। कल्लों की संख्या में कमी।
पोटाश की कमी के लक्षण
पत्तियों का नीचे की ओर लटक जाना। नीचे के पत्तों का मध्य भाग ऊपर से नीचे की ओर धीरे- धीरे पीला पड़ना। पत्तियों का किनारा पीला होकर सूख जाना और धीरे-धीरे बीच की ओर बढ़ना। कभी -कभी गाढ़े हरे रंग के बीच भूरे धब्बे का बनना। पत्तों का आकार छोटा होना।
मिट्टी जाँच के निष्कर्ष के आधार पर निम्न सारिणी से भूमि उर्वरता की व्याख्या की जा सकती है :
पोषक तत्त्व
उपलब्ध पोषक तत्त्व की मात्रा (कि./ हे.)
न्यून
मध्यम
अधिक
नाइट्रोजन
280 से कम
280 से 560
560 से अधिक
फॉस्फोरस
10 से कम
10 से 25
25 से अधिक
पोटाश
110 से कम
110 से 280
280 से अधिक
जैविक कार्बन
0.5% से कम
0.5 से 0.75%
0.75% से अधिक
जैविक खादों में पोषक तत्वों की मात्रा
पोषक तत्वों की प्रतिशत मात्रा
जैविक खाद का नाम नाइट्रोजन फॉस्फोरस पोटाश
गोबर की खाद
0.5
0.3
0.4
कम्पोस्ट
0.4
0.4
1.0
अंडी की खली
4.2
1.9
1.4
नीम की खली
5.4
1.1
1.5
करंज की खली
4.0
0.9
1.3
सरसो की खली
4.8
2.0
1.3
तिल की खली
5.5
2.1
1.3
कुसुम की खली
7.9
2.1
1.3
बादाम की खली
7.0
2.1
1.5
रासायनिक उर्वरक में पोषक तत्त्वों की मात्रा
पोषक तत्वों की प्रतिशत मात्रा
उर्वरक का नाम नाइट्रोजन फॉस्फोरस पोटाश
यूरिया
46.0
–
–
अमोनियम सल्फेट
20.6
–
–
अमोनियम सल्फेट नाइट्रेट
26.0
–
–
अमोनियम नाइट्रेट
35.0
–
–
कैल्सियम अमोनियम नाइट्रेट
25.0
–
–
अमोनियम क्लोराइड
25.0
–
–
सोडियम नाइट्रेट
16.0
–
–
सिंगल सुपर फॉस्फेट
–
16.0
–
ट्रिपल सुपर फॉस्फेट
–
48.0
–
डाई कैल्सियम फॉस्फेट
–
38.0
–
पोटैशियम सल्फेट
–
–
48.0
म्यूरिएट ऑफ पौटाश
–
–
60.0
पोटैशियम नाइट्रेट
13.0
–
40.0
मोनो अमोनियम फॉस्फेट
11.0
48.0
–
डाई अमोनियम फॉस्फेट
18.0
46.0
–
सुफला (भूरा)
20.0
20.0
–
सुफला (गुलाबी)
15.0
15.0
15.0
सुफला (पीला)
18.0
18.0
9.0
ग्रोमोर
20.0
28.0
–
एन.पी.के
12.0
32.0
16.0
पोषक तत्वों की अनुशंसित या वांछित मात्रा के लिए किसी जैविक खाद या उर्वरक की मात्रा उपर्युक्त तालिका से जानी जाती है।
फॉस्फोरस की कमी को दूर करने के लिए अम्लीय मिट्टी में रॉक फॉस्फेट का व्यवहार करें।
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के अन्तर्गत किये गये शोध के आधार पर रॉक फॉस्फेट के व्यवहार से निम्नलिखित लाभ मिला है :
रॉक फॉस्फेट से पौधों को धीरे-धीरे पूर्ण जीवनकाल तक फॉस्फोरस मिलता रहता है।
इसके लगातार व्यवहार से मिट्टी में फॉस्फेट की मात्रा बनी रहती है।
फॉस्फेट पर कम लागत आती है।
अगर मसूरी रॉक फॉस्फेट का व्यवहार लगातार 3-4 वर्षो तक किया जाता है तो अम्लीय मिट्टी की अम्लीयता में भी कुछ कमी आती है और पौधों को फॉस्फेट के आलावा कैल्शियम भी प्राप्त होती है।
रॉक फॉस्फेट का व्यवहार कैसे करें ?
मसूरी रॉक फॉस्फेट, जो बाजार में मसूरी फॉस के नाम से उपलब्ध है, का व्यवहार निम्नलिखित किन्हीं एक विधि से किया जा सकता है-
फॉस्फेट की अनुशंसित मात्रा का ढाई गुना रॉक फॉस्फेट खेत की अन्तिम तैयारी के समय भुरकाव करें। अथवा
बुआई के समय कतारों में फॉस्फेट की अनुशंसित मात्रा का एक तिहाई सुपर फॉस्फेट एवं दो तिहाई रॉक फॉस्फेट के रूप में मिश्रण बनाकर डाल दें। अथवा
खेत में नमी हो या कम्पोस्ट डालते हो तो बुआई के करीब 20-25 दिन पूर्व ही फॉस्फेट की अनुशंसित मात्रा रॉक फॉस्फेट के रूप में भुरकाव करके अच्छी तरह मिला दें।
मछली हेतु तालाब की तैयारी बरसात के पूर्व ही कर लेना उपयुक्त रहता है। मछलीपालन सभी प्रकार के छोटे-बड़े मौसमी तथा बारहमासी तालाबों में किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे तालाब जिनमें अन्य जलीय वानस्पतिक फसलें जैसे- सिंघाड़ा, कमलगट्टा, मुरार (ढ़से ) आदि ली जाती है, वे भी मत्स्यपालन हेतु सर्वथा उपयुक्त होते हैं।
मछलीपालन हेतु तालाब में जो खाद, उर्वरक, अन्य खाद्य पदार्थ इत्यादि डाले जाते हैं उनसे तालाब की मिट्टी तथा पानी की उर्वरकता बढ़ती है, परिणामस्वरूप फसल की पैदावार भी बढ़ती है। इन वानस्पतिक फसलों के कचरे जो तालाब के पानी में सड़ गल जाते हैं वह पानी व मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाता है जिससे मछली के लिए सर्वोत्तम प्राकृतिक आहार प्लैकटान (प्लवक) उत्पन्न होता है।
इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं और आपस में पैदावार बढ़ाने मे सहायक होते हैं। धान के खेतों में भी जहां जून जुलाई से अक्टूबर नवंबर तक पर्याप्त पानी भरा रहता है, मछली पालन किया कर अतिरिक्त आमदनी प्राप्त की जा सकती है। धान के खेतों में मछली पालन के लिए एक अलग प्रकार की तैयारी करने की आवश्यकता होती है।
किसान अपने खेत से अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए खेत जोते जाते है, खेतों की मेड़ों को यथा समय आवश्यकतानुसार मरम्मत करता है, खरपतवार निकालता है, जमीन को खाद एवं उर्वरक आदि देकर तैयार करता है एवं समय आने पर बीज बोता है। बीज अंकुरण पश्चात् उसकी अच्छी तरह देखभाल करते हुए निंदाई-गुड़ाई करता है, आवश्यकतानुसार नाइट्रोजन, स्फूर तथा पोटाश खाद का प्रयोग करता है। उचित समय पर पौधों की बीमारियों की रोकथाम हेतु दवाई आदि का प्रयोग करता है। ठीक इसी प्रकार मछली की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए मछली की खेती में भी इन क्रियाकलापों का किया जाना अत्यावश्यक होता है।
कैसें करें तालाब की तैयारी
मौसमी तालाबों में मांसाहारी तथा अवाछंनीय क्षुद्र प्रजातियों की मछली होने की आशंका नहीं रहती है तथापि बारहमासी तालाबों में ये मछलियां हो सकती है। अतः ऐसे तालाबों में जून माह में तालाब में निम्नतम जलस्तर होने पर बार-बार जाल चलाकर हानिकारक मछलियों व कीड़े मकोड़ों को निकाल देना चाहिए। यदि तालाब में मवेशी आदि पानी नहीं पीते हैं तो उसमें ऐसी मछलियों के मारने के लिए 2000 से 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टयर प्रति मीटर की दर से महुआ खली का प्रयोग करना चाहिए।
महुआ खली के प्रयोग से पानी में रहने वाले जीव मर जाते हैं। तथा मछलियां भी प्रभावित होकर मरने के बाद पहले ऊपर आती है। यदि इस समय इन्हें निकाल लिया जाये तो खाने तथा बेचने के काम में लाया जा सकता है। महुआ खली के प्रयागे करने पर यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इसके प्रयोग के बाद तालाब को 2 से 3 सप्ताह तक निस्तार हेतु उपयोग में न लाए जावें। महुआ खली डालने के 3 सप्ताह बाद तथा मौसमी तालाबों में पानी भरने के पूर्व 250 से 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से चूना डाला जाता है जिसमें पानी में रहने वाली कीड़े मकोड़े मर जाते हैं।
चूना पानी के पी.एच. को नियंत्रित कर क्षारीयता बढ़ाता है तथा पानी स्वच्छ रखता है। चूना डालने के एक सप्ताह बाद तालाब में 10,000 किलोग्राम प्रति हेक्टर प्रति वर्ष के मान से गोबर की खाद डालना चाहिए। जिन तालाबों में खेतों का पानी वर्षा में बहकर आता है उनमें गोबर खाद की मात्रा कम की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार के पानी में वैसे ही काफी मात्रा में खाद उपलब्ध रहता है। तालाब के पानी आवक-जावक द्वार मे जाली लगाने के समुचित व्यवस्था भी अवद्गय ही कर लेना चाहिए।
तालाब में मत्स्यबीज डालने के पहले इस बात की परख कर लेनी चाहिए कि उस तालाब में प्रचुर मात्रा में मछली का प्राकृतिक आहार (प्लैंकटान) उपलब्ध है। तालाब में प्लैंकटान की अच्छी मात्रा करने के उद्देश्य से यह आवश्यक है कि गोबर की खाद के साथ सुपरफास्फेट 300 किलोग्राम तथा यूरिया 180 किलोग्राम प्रतिवर्ष प्रति हेक्टयेर के मान से डाली जाये। अतः साल भर के लिए निर्धारित मात्रा (10000 किलो गोबर खाद, 300 किलो सुपरफास्फेट तथा 180 किलो यूरिया) की 10 मासिक किश्तों में बराबर-बराबर डालना चाहिए। इस प्रकार प्रतिमाह 1000 किला गोबर खाद, 30 किलो सुपर फास्फेट तथा 18 किलो यूरिया का प्रयोग तालाब में करने पर प्रचुर मात्रा में प्लैंकटान की उत्पत्ति होती है।
मत्स्य बीज संचयन किस प्रकार करें
सामान्यतः तालाब में 10000 फ्राई अथवा 5000 फिंगरलिंग प्रति हैक्टर की दर से संचय करना चाहिए। यह अनुभव किया गया है कि इससे कम मात्रा में संचय से पानी में उपलब्ध भोजन का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता तथा अधिक संचय से सभी मछलियों के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध नहीं होता। तालाब में उपलब्ध भोजन के समुचित उपयोग हेतु कतला सतह पर,रोहू मध्य में तथा म्रिगल मछली तालाब के तल में उपलब्ध भोजन ग्रहण करती है। इस प्रकार इन तीनों प्रजातियों के मछली बीज संचयन से तालाब के पानी के स्तर पर उपलब्ध भोजन का समुचित रूप से उपयोग होता है तथा इससे अधिकाधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है।
पालने योग्य देशी प्रमुख सफर मछलियों (कतला, रोहू, म्रिगल ) के अलावा कुछ विदेशी प्रजाति की मछलियां (ग्रास कार्प, सिल्वर कार्प कामन कार्प) भी आजकल बहुतायत में संचय की जाने लगी है। अतः देशी व विदेशी प्रजातियों की मछलियों का बीज मिश्रित मछलीपालन अंतर्गत संचय किया जा सकता है। विदेशी प्रजाति की ये मछलियां देशी प्रमुख सफर मछलियों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं करती है। सिल्वर कार्प मछली कतला के समान जल के ऊपरी सतह से, ग्रास कार्प रोहू की तरह स्तम्भ से तथा काँमन कार्प मृगल की तरह तालाब के तल से भाजे न ग्रहण करती है। अतः इस समस्त छः प्रजातियोंके मत्स्य बीज संचयन होने पर कतला, सिल्वरकार्प, रोहू, ग्रासकार्प, म्रिगल तथा कामन कार्प को 20:20:15:15:15:15 के अनुपात में संचयन किया जाना चाहिए। सामान्यतः मछलीबीज पाँलीथीन पैकट में पानी भरकर तथा आँक्सीजन हवा डालकर पैक की जाती है।तालाब मेंमत्स्यबीज छोड़ने के पूर्व उक्त पैकेट को थोड़ी देर के लिए तालाब के पानी में रखना चाहिए। तदुपरांत तालाब का कुछ पानी पैकेट के अन्दर प्रवेद्गा कराकर समतापन (एक्लिमेटाइजेद्गान) हेतु वातावरण तैयार कर लेनी चाहिए और तब पैकेट के छलीबीज को धीरे-धीरे तालाब के पानी में निकलने देना चाहिए। इससे मछली बीज की उत्तर जीविता बढ़ाने में मदद मिलती है।
ऊपरी आहार देने का समय एवं तरीका
मछली बीज संचय के उपरात यदि तालाब में मछली का भोजन कम है या मछली की बाढ़ कम है तो चांवल की भूसी (कनकी मिश्रित राईस पालिस) एवं सरसो या मूगं फली की खली लगभग 1800 से 2700 किलोग्राम प्रति हेक्टर प्रतिवर्ष के मान से देना चाहिए।
इसे प्रतिदिन एक निश्चित समय पर डालना चाहिए जिससे मछली उसे खाने का समय बांध लेती है एवं आहार व्यर्थ नहीं जाता है। उचित होगा कि खाद्य पदार्थ बारे को में भरकर डण्डों के सहारे तालाब में कई जगह बांध दें तथा बारे में में बारीक-बारीक छेद कर दें।यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि बोरे का अधिकांश भाग पानी के अन्दर डुबा रहे तथा कुछ भाग पानी के ऊपर रहे।
सामान्य परिस्थिति मेंप्रचलित पुराने तरीकों से मछलीपालन करने में जहां 500-600 किलो प्रति हेक्टेयरप्रतिवर्ष का उत्पादन प्राप्त होता है, वहीं आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से मछलीपालन करने से 3000 से 5000 किलो/हेक्टर /वर्ष मत्स्य उत्पादन कर सकते हैं। आंध्रप्रदेश में इसी पद्धति से मछलीपालन कर 7000 किलो/हेक्टर/वर्ष तक उत्पादन लिया जा रहा है।
जाल चलाकर संचित मछलियों की वृद्धि का निरीक्षण करते रहें जिससे मछलियों कोदिए जाने वाले परिपूरक आहार की मात्रा निर्धारित करने में आसानी होगी तथा संचित मछलियों की वृद्धि दर ज्ञात हो सके। यदि कोई बीमारी दिखे तो फौरन उपचार करना चाहिए।
खरीफ फसल की बुवाई से पहले खेत को एक बार गहरी जुताई की जरुरत परती है जिससे मिटटी हलकी हो जाती है तथा घास और खरपतवार नष्ट हो जाते है | इससे कीड़े, उनके अण्डे व बिमारियों के जीवाणु ऊपर आकर तेज धूप से नष्ट हो जाते हैं | मिट्टी में वायु का बेहतर संचार होता है तथा मिट्टी की जलधारा क्षमता भी बढ़ जाती है | गहरी जुताई मानसून आने से 15 दिन पहलें करें जिससे धुप में घास आसानी से सुख सके तथा वायु का प्रवाह मिटटी में आसानी से हो सके | इस लिए किसान जून माह में खेत की जुताई जरुर करें |
यह योजना किसके लिए है :-
यह योजना सम्पूर्ण प्रदेश में चलाई जा रही है इस योजना का लाभ प्रदेश के सभी वर्ग के कृषक ले सकते हैं | इस योजना में अनुसूचित जाती / अनुसूचित जनजाति के किसानों को 5 हेक्टेयर तक तथा समान्य वर्ग के किसानों को 2 हेक्टेयर तक की जुताई पर जुताई का लागत दिया जायेगा | इस योजना का लाभ उठाने के लिए किसान के पास आधार कार्ड, ऋण पुस्तिका, बैंक एकाउंट, भूमि का खसरा नंबर तथा जिस टैक्टर से जुताई हुआ है उसकी पंजीयन की कॉपी होना जरुरी है |
किसान कैसे प्राप्त कर सकते हैं :-
किसान अपने खेत को किसी भी टैक्टर से गहरी जुताई करा लें | उसके बाद अपने ग्राम सेवक या तहसील कार्यालय से गहरी जुताई कार्य योजना का फार्म लें | उस फार्म में भूमि का खसरा नंबर के साथ ऋण पुस्तिका, बैंक एकाउंट का फोटो कॉपी तथा टैक्टर का पंजीयन की कागज लगाकर अपने पंचायत के सरपंच से सत्यापित कराकर उस फॉर्म को ग्राम सेवक या तहसील कार्यालय में जमा करा दें |
अप्रैल मई माह में गेंहु की कटाई के बाद जमीन की सिंचाई कर लें | खेत में खड़े पानी में 50 की.ग्राम. प्रति है. की दर से ढेंचा का बीज छितरा लें |
जरुरत पड़ने पर 10 से 15 दिन में ढेंचा फसल की हल्की सिंचाई कर लें |
20 दिन की अवस्था पर नत्रजन खाद छितराने से नोड्यूल बनने में सहायता मिलती है |
55 से 60 दिन की अवस्था में हल चला कर हरी खाद को पुन: खेत में मिला दिया जाता है | इस तरह लगभग 10.15 टन प्रति हे. की दर से हरी खाद उपलब्ध हो जाती है |
जिससे 60 से 80 किलो ग्राम नाईट्रोजन प्रति हे. प्राप्त होता है | मिटटी में ढेंचे के पौधों के गलने – सड़ने से बैक्टीरिया द्वारा नियत सभी नाईट्रोजन जैविक रूप में लम्बे समय के लिए कार्बन के साथ मिटटी को वापिस मिल जाते है |
हरी खाद बनाने के लिए अनुकूल फसले –
ढेंचा, लोबिया, उड़द, मूंग, ग्वार बरसीम, कुच्छ मुख्य फसलें है | ढेंचा इनमें से अधिक लिया जाता है |
ढैचा की मुख्य किस्में सस्बेनीया एजिप्टिका, एस रोस्टेटा तथा एक्वेलेटा अपने त्वरित खनिज करण पैटर्न, उच्च नाईट्रोजन मात्र तथा अल्प C:N अनुपात के कारण बाद में बोई गई मुख्य फसल की उत्पादकता पर उल्लेखनीय प्रभाव डालने में सक्षम है |
आदर्श हरी खाद की निम्नलिखित गुण होनी चाहिए –
उगाने का न्यूनतम खर्च
न्यूनतम सिंचाई आवश्यकता
विपरीत परिस्थिति में भी उगने की क्षमता हो
खरपतवार विरोधी हो
जो उपलब्ध वातावरण का प्रयोग करते हुए अधिकतम उपज दे |
हरी खाद को मिटटी में मिलाने की अवस्था
हरी खाद के लिए बोई गयी फसल 55 से 60 दिन बाद जोत कर मिटटी में मिलाने के लिए तैयार हो जाती है |
इस अवस्था पर पौधों की लम्बाई व हरी शुष्क सामग्री अधिकतम होती है 55 से 60 दिन की फसल अवस्था पर तना नर्म व नाजुक होता है जो आसानी से मिटटी में कट कर मिल जाता है |
इस अवस्था में कार्बन नाईट्रोजन अनुपात कम होता है | पौधे रसीले और जैविक पदार्थ से भरे होते है इस अवस्था पर नाईट्रोजन की मात्र की उपलब्धता बहुत अधिक होती है |
जैसे – जैसे हरी खाद के लिए लगाई गयी फसल की अवस्था बढती है कार्बन – नाईट्रोजन अनुपात बढ़ जाता है | जीवाणु हरी खाद के पौधों को गलाने सडाने के लिए मिटटी की नाईट्रोजन इस्तेमाल करते है | जिससे मिटटी में अस्थाई रूप से नाईट्रोजन की कमी हो जाती है |
हरी खाद के लाभ
मिटटी में मिलाने से मिटटी की भौतिक शरीरिक स्थिति में सुधार होता है |
मृदा उर्वरता की भरपाई होती है
पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढाता है
सूक्ष्म जीवाणुओं की गतिविधियों को बढाता है
भूमि की संरचना में सुधार होने के कारण फसल की जड़ों का फैलाव अच्छा होता है |हरी खाद के लिए उपयोग किये गये फलीदार पौधे वातावरण से नाईट्रोजन व्यवस्थित करके नोड्यूल्ज में जमा करते है जिससे भूमि ककी नाईट्रोजन शक्ति बढती है |
जानें पत्तियों के रंग से फसलों में पोषक तत्वों की कमी
लाभदायक फसल उत्पादन के लिए पोषक तत्वों की कमी के चिन्हों को पहचान कर उन्हें सही करना प्रत्येक कृषक का कर्तब्य होना चाहिए |वैज्ञानिकों द्वारा कमी के लक्षणों को जो पहचान की पत्तियों / तना एवं पुष्पण में दिखाई देते है , कमी पहचान के तरीके बताये गये है | उनके आधार पर फसलों को देखकर उनकी कमी के लक्षणों को देखकर जानकारी की जा सकती है | पोषक तत्वों की कमी प्राय: पौधों की पत्तियों में रंग परिवर्तन से ज्ञात होता है |आवश्यक पोषक तत्वों के कमी के लक्षण निम्नवत है |
बोरान (B)
वर्धनशील भाग के पास की पत्तियों का रंग पीला हो जाता है | कलियाँ सफ़ेद या हलके भूरे मृत ऊतक की तरह दिखाई देती है |
कैल्शियम (Ca)
प्राथमिक पत्तियां पहले प्रभावित होती है तथा देर से निकलती है | शीर्ष कलियाँ खराब हो जाती है | मक्के की नोके चिपक जाती है |
गंधक (S)
पत्तियां, शीराओं सहित, गहरे हरे से पीले रंग में बदल जाती है तथा बाद में सफ़ेद हो जाती है | सबसे पहले नई पत्तियां प्रभावित होती है |
लोहा (Fe)
नई पत्तियों में तने के ऊपरी भाग पर सबसे पहले हरितिमहिन के लक्षण दिखाई देते है | शिराओं को छोड़कर पत्तियों का रंग एक साथ पीला हो जाता है | उक्त कमी होने पर भूरे रंग का धब्बा या मृत ऊतक के लक्षण प्रकट होते है |
मैगजीन (Mn)
पत्तियों का रंग पीला – धूसर या लाल – धूसर हो जाता है तथा शिराएँ हरी होती है | पत्तियों का किनारा और शिराओं का मध्य भाग हरितिमाहीन हो जाता है | हरितिमाहीन पत्तियां अपने सामान्य आकार में रहती है |
तांबा (Cu)
नई पत्तियां एक साथ गहरी पीले रंग की हो जाती है तथा सूख कर गिरने लगती है | खाद्यान्न वाली फसलों में गुच्छों में वृधि होती है तथा शीर्ष में दाने नहीं होते है |
जस्ता (Zn)
सामान्य तौर पर पत्तियों के शिराओं के मध्य हरितिमाहीन के लक्षण दिखाई देते है उर पत्तियों का रंग कांसा की तरह हो जाता है |
मालिब्ड़ेनम (Mo)
नई पत्तियां सुख जाती है , हल्के हरे रंग की हो जाती ही मध्य शिराओं को छोड़कर पूरी पत्तियों पर सूखे धब्बे दिखाई देते है | नाईट्रोजन के उचित ढंग से उपयोग न होने के कारण पुराणी पत्तियां हरितिमाहीन होने लगती है |
मैग्नीशियम (Mg)
पत्तियों के अग्रभाग का रंग गहरा हरा होकर शिराओं का मध्य भाग सुनहरा पीला हो जाता है अंत में किनारे से अन्दर की ओर लाल – बैंगनी रंग के धब्बे बन जाते है |
पोटैशियम (K)
पुरानी पत्तियों का रंग पीला / भूरा हो जाता है और बाहरी किनारे कट – फट जाते है | मोटे अनाज मक्का एवं ज्वर में ए लक्षण पत्तियों के अग्रभाग से प्राम्भ होते है |
फास्फोरस (P)
पौधों की पत्तियां फास्फोरस की कमी के कारण छोटी रह जाती है तथा पौधों का रंग गुलाबी होकर गहरा हरा हो जाती है |
नाईट्रोजन (N)
पौधे हल्के हरे रंग के या हलके पीले रंग के होकर बौने रह जाते है | पुराणी पत्तियां पहले पिली (हरितिमाहीन) हो जलती है | मोटे अनाज वाली फसलों में पत्तियों का पीलापन अग्रभाग से शुरू होकर मध्य शिराओं तक फैल जाता है |
संसार में बकरियों की कुल 102 प्रजातियाँ उपलब्ध है। जिसमें से 20 भारतवर्ष में है। अपने देश में पायी जाने वाली विभिन्न नस्लें मुख्य रूप से मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। यहाँ की बकरियाँ पश्चिमी देशों में पायी जाने वाली बकरियों की तुलना में कम मांस एवं दूध उत्पादित करती है क्योंकि वैज्ञानिक विधि से इसके पैत्रिकी विकास, पोषण एवं बीमारियों से बचाव पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है। बकरियों का पैत्रिकी विकास प्राकृतिक चुनाव एवं पैत्रिकी पृथकता से ही संभव हो पाया है। पिछले 25-30 वर्षों में बकरी पालन के विभिन्न पहलुओं पर काफी लाभकारी अनुसंधान हुए हैं फिर भी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर गहन शोध की आवश्यकता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली की ओर से भारत की विभिन्न जलवायु की उन्नत नस्लें जैसेः ब्लैक बंगला, बारबरी, जमनापारी, सिरोही, मारबारी, मालावारी, गंजम आदि के संरक्षण एवं विकास से संबंधित योजनाएँ चलायी जा रही है। इन कार्यक्रमों के विस्तार की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जलवायु एवं परिवेश में पायी जाने वाली अन्य उपयोगी नस्लों की विशेषता एवं उत्पादकता का समुचित जानकारी हो सके। इन जानकारियों के आधार पर ही क्षेत्र विशेष के लिए बकरियों से होने वाली आय में वृद्धि हेतु योजनाएँ सुचारू रूप से चलायी जा सकती है।
उपयोगी नस्लें
ब्लैक बंगालः
इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है। इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है। अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है। यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है। नर तथा मादा दोनों में 3-4 इंच का आगे की ओर सीधा निकला हुआ सींग पाया जाता है। इसका शरीर गठीला होने के साथ-साथ आगे से पीछे की ओर ज्यादा चौड़ा तथा बीच में अधिक मोटा होता है। इसका कान छोटा, खड़ा एवं आगे की ओर निकला रहता है।
इस नस्ल की प्रजनन क्षमता काफी अच्छी है। औसतन यह 2 वर्ष में 3 बार बच्चा देती है एवं एक वियान में 2-3 बच्चों को जन्म देती है। कुछ बकरियाँ एक वर्ष में दो बार बच्चे पैदा करती है तथा एक बार में 4-4 बच्चे देती है। इस नस्ल की मेमना 8-10 माह की उम्र में वयस्कता प्राप्त कर लेती है तथा औसतन 15-16 माह की उम्र में प्रथम बार बच्चे पैदा करती है।
प्रजनन क्षमता काफी अच्छी होने के कारण इसकी आबादी में वृद्धि दर अन्य नस्लों की तुलना में अधिक है। इस जाति के नर बच्चा का मांस काफी स्वादिष्ट होता है तथा खाल भी उत्तम कोटि का होता है। इन्हीं कारणों से ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियाँ मांस उत्पादन हेतु बहुत उपयोगी है। परन्तु इस जाति की बकरियाँ अल्प मात्रा (15-20 किलो ग्राम/वियान) में दूध उत्पादित करती है जो इसके बच्चों के लिए अपर्याप्त है। इसके बच्चों का जन्म के समय औसत् वजन 1.0-1.2 किलो ग्राम ही होता है। शारीरिक वजन एवं दूध उत्पादन क्षमता कम होने के कारण इस नस्ल की बकरियों से बकरी पालकों को सीमित लाभ ही प्राप्त होता है।
शारीरिक विशेषता
यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।
जमुनापारीः
जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है। यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है। एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है।
इसके नाक काफी उभरे रहते हैं। जिसे ‘रोमन’ नाक कहते हैं। सींग छोटा एवं चौड़ा होता है। कान 10-12 इंच लम्बा चौड़ा मुड़ा हुआ तथा लटकता रहता है। इसके जाँघ में पीछे की ओर काफी लम्बे घने बाल रहते हैं। इसके शरीर पर सफेद एवं लाल रंग के लम्बे बाल पाये जाते हैं। इसका शरीर बेलनाकार होता है। वयस्क नर का औसत वजन 70-90 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 50-60 किलो ग्राम होता है
इसके बच्चों का जन्म समय औसत वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्र में औसतन 1.5 से 2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध तथा मांस उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ सलाना बच्चों को जन्म देती है तथा एक बार में करीब 90 प्रतिशत एक ही बच्चा उत्पन्न करती है। इस जाति की बकरियाँ मुख्य रूप से झाड़ियाँ एवं वृक्ष के पत्तों पर निर्भर रहती है। जमुनापारी नस्ल के बकरों का प्रयोग अपने देश के विभिन्न जलवायु में पायी जाने वाली अन्य छोटे तथा मध्यम आकार की बकरियाँ के नस्ल सुधार हेतु किया गया। वैज्ञानिक अनुसंधान से यह पता चला कि जमनापारी सभी जलवायु के लिए उपयुक्त नही हैं।
बीटलः
बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है। पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है। इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता है। यह देखने में जमनापारी बकरियाँ जैसी लगती है परन्तु ऊँचाई एवं वजन की तुलना में जमुनापारी से छोटी होती है। इसका कान लम्बा, चौड़ा तथा लटकता हुआ होता है। नाक उभरा रहता है।
कान की लम्बाई एवं नाक का उभरापन जमुनापारी की तुलना में कम होता है। सींग बाहर एवं पीछे की ओर घुमा रहता है। वयस्क नर का वजन 55-65 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 45-55 किलो ग्राम होता है। इसके वच्चों का जन्म के समय वजन 2.5-3.0 किलो ग्राम होता है। इसका शरीर गठीला होता है। जाँघ के पिछले भाग में कम घना बाल रहता है। इस नस्ल की बकरियाँ औसतन 1.25-2.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है। इस नस्ल की बकरियाँ सलाना बच्चे पैदा करती है एवं एक बार में करीब 60% बकरियाँ एक ही बच्चा देती है।
बीटल नस्ल के बकरों का प्रयोग अन्य छोटे तथा मध्यम आकार के बकरियों के नस्ल सुधार हेतु किया जाता है। बीटल प्रायः सभी जलवायु हेतु उपयुक्त पाया गया है।
बारबरीः
बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है। इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया। अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है।
यह छोटे कद की होती है परन्तु इसका शरीर काफी गठीला होता है। शरीर पर छोटे-छोटे बाल पाये जाते हैं। शरीर पर सफेद के साथ भूरा या काला धब्बा पाया जाता है। यह देखने में हिरण के जैसा लगती है। कान बहुत ही छोटा होता है। थन अच्छा विकसित होता है। वयस्क नर का औसत वजन 35-40 किलो ग्राम तथा मादा का वजन 25-30 किलो ग्राम होता है। यह घर में बांध कर गाय की तरह रखी जा सकती है।
इसकी प्रजनन क्षमता भी काफी विकसित है। 2 वर्ष में तीन बार बच्चों को जन्म देती है तथा एक वियान में औसतन 1.5 बच्चों को जन्म देती है। इसका बच्चा करीब 8-10 माह की उम्र में वयस्क होता है। इस नस्ल की बकरियाँ मांस तथा दूध उत्पादन हेतु उपयुक्त है। बकरियाँ औसतन 1.0 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
सिरोहीः
सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है। यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है। इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है। इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है। इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है। कान लम्बा होता है। पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है। इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है। यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है। इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है।
विदेशी बकरियों की प्रमुख नस्लें
अल्पाइन –
यह स्विटजरलैंड की है। यह मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उपयुक्त है। इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्रों में औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
एंग्लोनुवियन –
यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है। यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है।
सानन –
यह स्विटजरलैंड की बकरी है। इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है। यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है।
टोगेनवर्ग –
टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है। इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है। यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है।
बकरी पालन से संबंधित आवश्यक बातें
ब्लैक बंगाल बकरी का प्रजनन बीटल या सिरोही नस्ल के बकरों से करावें।
पाठी का प्रथम प्रजनन 8-10 माह की उम्र के बाद ही करावें।
बीटल या सिरोही नस्ल से उत्पन्न संकर पाठी या बकरी का प्रजनन संकर बकरा से करावें।
बकरा और बकरी के बीच नजदीकी संबंध नहीं होनी चाहिए।
नर और मादा को अलग-अलग रखना चाहिए।पाठी अथवा बकरियों को गर्म होने के 10-12 एवं 24-26 घंटों के बीच 2 बार पाल दिलावें।
बच्चा देने के 30 दिनों के बाद ही गर्म होने पर पाल दिलावें।
गाभीन बकरियों को गर्भावस्था के अन्तिम डेढ़ महीने में चराने के अतिरिक्त कम से कम 200 ग्राम दाना का मिश्रण अवश्य दें।
बकरियों के आवास में प्रति बकरी 10-12 वर्गफीट का जगह दें तथा एक घर में एक साथ 20 बकरियों से ज्यादा नहीं रखें।
बच्चा जन्म के समय बकरियों को साफ-सुथरा जगह पर पुआल आदि पर रखें।
जन्म के समय अगर मदद की आवश्यकता हो तो साबुन से हाथ धोकर मदद करना चाहिए।
जन्म के उपरान्त नाभि को 3 इंच नीचे से नया ब्लेड से काट दें तथा डिटोल या टिन्चर आयोडिन या वोकांडिन लगा दें। यह दवा 2-3 दिनों तक लगावें।
व्यय
अनावर्तीव्यय
रुपये
10 वयस्क ब्लैक बंगाल बकरियों का क्रय मूल्य 800 रुपये प्रति बकरी की दर से
8000 रुपये
1 उन्नत बकरा का क्रय मूल्य 1500 रुपये प्रति बकरा की दर से
1500 रुपये
बकरा-बकरी के लिए आवास व्यवस्था
5000 रुपये
बर्त्तन
500 रुपये
कुल लागत
15,000 रुपये
आवर्ती व्ययः
रुपये
30 मेमनो के लिए 100 ग्राम दाना/दिन/ मेमना की दर 180 दिनों के लिए दाना मिश्रण कुल 5.5 क्विंटल, 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से
3300 रुपये
बकरा के लिए दाना मिश्रण(150 ग्राम/बकरा/दिन) तथा 10 बकरी के लिए (100 ग्राम/बकरी/दिन) की दर से दाना मिश्रण कुल 4.5 क्विंटल, 600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से दवा, टीका आदि पर सलाना खर्च
2700 रुपये
2000 रुपये
कुल खर्च
8000 रुपये
कुल खर्च (अनावर्ती व आवर्ती व्यय)
23,000 रुपये
आमदनी
आय की गणना यह मान कर की गई है कि 2 वर्ष में एक बकरी तीन बार बच्चों को जन्म देगी तथा एक-बार में 2 बच्चे उत्पन्न करेगी। बकरियों की देख-रेख घर की औरतों तथा बच्चें के द्वारा किया जायेगा। सभी बकरियों को 8-10 घंटे प्रति दिन चराया जायेगा।
आय की गणना करते समय यह माना गया कि चार बच्चे की मृत्यु हो जायेगी तथा 13 नर और 13 मादा बिक्री के लिए उपलब्ध होंगे। 1 नर और मादा को प्रजनन हेतु रखकर पुरानी 2 बकरियों की बिक्री की जायेगी।
12 संकर नर का 9-10 माह की उम्र में विक्रय से प्राप्त राशि 1000 रुपये प्रति बकरे की दर से – 12,000 रुपये
11 संकर नर का 9-10 माह की उम्र में विक्रय से प्राप्त राशि 1200 रुपये प्रति बकरे की दर से- 13,200 रुपये
2 ब्लैक बंगाल मादा की बिक्री से प्राप्त राशि 500 की प्रति बकरी की दर से- 1000 रुपये
कुल आमदनी- 26,200 रुपये
कुल आमदनीः आय आवर्ती खर्च –
ब्लैक बंगाल बकरी तथा बकरा के मूल्य का 20 प्रतिशत- आवास खर्च का 10 प्रतिशत-बर्त्तन खर्च का 20
= 26,200-8000- का 20 %- 5000 का 10% – 500 का 20 %
= 26,200 – 8000 – 1900 – 500 – 100
= 26,200 – 10,500
= 15,700 रुपये प्रतिवर्ष
= 1570 रुपये प्रति बकरी प्रति वर्ष
इस आय के अतिरिक्त बकरी पालक प्रतिवर्ष कुल 3400 रुपये मूल्य के बराबर एक संकर बकरा तथा दो बकरी का बिक्री नहीं कर प्रजनन हेतु खुद रखेगा। पांच वर्षों के बाद बकरी पालक के पास 10 संकर नस्ल की बकरियाँ एवं उपयुक्त संख्या में संकर बकरा उपलब्ध होगा तथा बकरी गृह एवं बर्त्तन का कुल खर्च भी निकल आयेगा।
स्त्रोत:बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, राँची – 834006 (झारखंड)
कुक्कुट पालन के लिए भारत में विकसित नस्लें कौन-कौन सी हैं और उनकी विशेषताएं क्या हैं | जानें कोन सी नस्ल आपके लिए उपयुक्त है ?
घर के पिछवाड़े में पाले जाने वाली नस्लें कारी निर्भीक (एसील क्रॉस)
एसील का शाब्दिक अर्थ वास्तविक या विशुद्ध है। एसील को अपनी तीक्ष्णता, शक्ति, मैजेस्टिक गेट या कुत्ते से लड़ने की गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। इस देसी नस्ल को एसील नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसमें लड़ाई की पैतृक गुणवत्ता होती है।
इस महत्वपूर्ण नस्ल का गृह आंध्र प्रदेश माना जाता है। यद्यपि, इस नस्ल के बेहतर नमूने बहुत मुश्किल से मिलते हैं। इन्हें शौकीन लोगों और पूरे देश में मुर्गे की लड़ाई-शो से जुड़े हुए लोगों द्वारा पाला जाता है।
एसील अपने आप में विशाल शरीर और अच्छी बनावट तथा उत्कृष्ट शरीर रचना वाला होता है।
इसका मानक वजन मुर्गों के मामले में 3 से 4 किलो ग्राम तथा मुर्गियों के मामले में 2 से 3 किलो ग्राम होता है।
यौन परिपक्वता की आयु (दिन) 196 दिन है।
वार्षिक अंडा उत्पादन (संख्या)- 92
40 सप्ताह में अंडों का वजन (ग्राम)- ५०
कारी श्यामा (कडाकानाथ क्रॉस)
इसे स्थानीय रूप से “कालामासी” नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ काले मांस (फ्लैश) वाला मुर्गा है। मध्य प्रदेश के झाबुआ और धार जिले तथा राजस्थान और गुजरात के निकटवर्ती जिले जो लगभग 800 वर्ग मील में फैला हुआ है, इन क्षेत्रों को इस नस्ल का मूल गृह माना गया है।
इनका पालन ज्यादातर जनजातीय, आदिवासी तथा ग्रामीण निर्धनों द्वारा किया जाता है। इसे पवित्र पक्षी के रूप में माना जाता है और दीवाली के बाद इसे देवी के लिए बलिदान देने वाला माना जाता है।
पुराने मुर्गे का रंग नीले से काले के बीच होता है जिसमें पीठ पर गहरी धारियां होती हैं।
इस नस्ल का मांस काला और देखने में विकर्षक (रीपल्सिव) होता है, इसे सिर्फ स्वाद के लिए ही नहीं बल्कि औषधीय गुणवत्ता के लिए भी जाना जाता है।
कडाकनाथ के रक्त का उपयोग आदिवासियों द्वारा मानव के गंभीर रोगों के उपचार में कामोत्तेजक के रूप में इसके मांस का उपयोग किया जाता है।
इसका मांस और अंडे प्रोटीन (मांस में 25-47 प्रतिशत) तथा लौह एक प्रचुर स्रोत माना जाता है।
20 सप्ताह में शरीर वजन (ग्राम)- 920
यौन परिपक्वता में आयु (दिन)- 180
वार्षिक अंडा उत्पादन (संख्या)- 105
40 सप्ताह में अंडे का वजन (ग्राम)- 49
जनन क्षमता (प्रतिशत)- 55
हैचेबिल्टी एफ ई एस (प्रतिशत)- ५२
हितकारी (नैक्ड नैक क्रॉस)
नैक्ड नैक परस्पर बड़े शरीर के साथ-साथ लम्बी गोलीय गर्दन वाला होता है। जैसे इसके नाम से पता लगता है कि पक्षी की गर्दन पूरी नंगी या गालथैली (क्रॉप) के ऊपर गर्दन के सामने पंखों के सिर्फ टफ दिखाई देते हैं।
इसके फलस्वरूप इनकी नंगी चमड़ी लाल हो जाती है विशेषरूप से नर में यह उस समय होता है जब ये यौन परिपक्वतारूपी कामुकता में होते है।
केरल का त्रिवेन्द्रम क्षेत्र नैक्ड नैक का मूल आवास माना जाता है।
20 सप्ताह में शरीर का वजन (ग्राम)- 1005
यौन परिपक्वता में आयु (दिन)- 201
वार्षिक अंडा उत्पादन (संख्या)- 99
40 सप्ताह में अंडे का वजन (ग्राम)- 54
जनन क्षमता (प्रतिशत)- 66
हैचेबिल्टी एफ ई एम (प्रतिशत)- ७१
उपकारी (फ्रिजल क्रॉस)
यह विशिष्ट मुरदार-खोर (स्कैवइजिंग) प्रकार का पक्षी है जो अपने मूल नस्ल आधार में विकसित होता है। यह महत्वपूर्ण देसी मुर्गे की तरह लगता है जिसमें बेहतर उपोष्ण अनुकूलता तथा रोग प्रतिरोधिता, अपवर्जन वृद्धि तथा उत्पादन निष्पादन शामिल है।
घर का पिछवाड़ा मुर्गी पालन के लिए उपयुक्त है।
उपकारी पक्षियों की चार किस्में उपलब्ध हैं जो विभिन्न कृषि मौसम स्थितियों के लिए अनुकूल है।
काडाकनाथ X देहलम रैड
असील X देहलम रैड
नैक्ड नैक X देहलम रैड
फ्रिजल X देहलम रैड
निष्पादन रूपरेखा
यौन परिपक्वता की आयु 170-180 दिन
वार्षिक अंडा उत्पादन 165-180 अंडे
अंडे का आकार 52-55 ग्राम
अंडे का रंग भूरा होता है
अंडे की गुणवत्ता, उत्कृष्ट आंतरिक गुणवत्ता
95 प्रतिशत से ज्यादा सहनीय
स्वभाविक प्रतिक्रिया तथा बेहतर चारा
कारी प्रिया लेयर
पहला अंडा 17 से 18 सप्ताह
150 दिन में 50 प्रतिशत उत्पादन
26 से 28 सप्ताह में व्यस्तम उत्पादन
उत्पादन की सहनीयता (96 प्रतिशत) तथा लेयर (94 प्रतिशत)
व्यस्तम अंडा उत्पादन 92 प्रतिशत
270 अंडों से ज्यादा 72 सप्ताह तक हेन हाउस
अंडे का औसत आकार
अंडे का वजन 54 ग्राम
कारी सोनाली लेयर (गोल्डन- 92)
18 से 19 सप्ताह में प्रथम अंडा
155 दिन में 50 प्रतिशत उत्पादन
व्यस्तम उत्पादन 27 से 29 सप्ताह
उत्पादन (96 प्रतिशत) तथा लेयर (94 प्रतिशत) की सहनीयता
व्यस्तम अंडा उत्पादन 90 प्रतिशत
265 अंडों से ज्यादा 72 सप्ताह तक हैन-हाउस
अंडे का औसत आकार
अंडे का वजन 54 ग्रा
कारीदेवेन्द्र
एक मध्यम आकार का दोहरे प्रयोजन वाला पक्षी
कुशल आहार रूपांतरण- आहार लागत से ज्यादा उच्च सकारात्मक आय
अन्य स्टॉक की तुलना में उत्कृष्ट- निम्न लाइंग हाउस मृत्युदर
8 सप्ताह में शरीर वजन- 1700-1800 ग्राम
यौन परिपक्वता पर आयु- 155-160 दिन
अंडे का वार्षिक उत्पादन- 190-200
कारीब्रो – विशाल( कारीब्रो-91)
दिवस होने पर वजन – 43 ग्राम
6 सप्ताह में वजन – 1650 से 1700 ग्राम
7 सप्ताह में वजन – 100 से 2200 ग्राम
ड्रैसिंग प्रतिशतः 75 प्रतिशत
सहनीय प्रतिशत – 97-98 प्रतिशत
6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.94 से 2.20
कारीरेनब्रो (बी-77)
दिवस होने पर वजन – 41 ग्राम
6 सप्ताह में वजन – 1300 ग्राम
7 सप्ताह में वजन – 160 ग्राम
सहनीय प्रतिशत – 98-99 प्रतिशत
ड्रैसिंग प्रतिशतः 73 प्रतिशत
6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.94 से 2.20
कारीब्रो–धनराजा (बहु–रंगीय)
दिवस होने पर वजन – 46 ग्राम
6 सप्ताह में वजन – 1600 से 1650 ग्राम
7 सप्ताह में वजन – 2000 से 2150 ग्राम
ड्रेसिंग प्रतिशतः 73 प्रतिशत
सहनीय प्रतिशत – 97-98 प्रतिशत
6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.90 से 2.10
कारीब्रो– मृत्युंजय (कारीनैक्डनैक)
दिवस होने पर वजन – 42 ग्राम
6 सप्ताह में वजन – 1650 से 1700 ग्राम
7 सप्ताह में वजन – 200 से 2150 ग्राम
ड्रैसिंग प्रतिशतः 77 प्रतिशत
सहनीय प्रतिशत – 97-98 प्रतिशत
6 सप्ताह में आहार रूपांतरण अनुपातः 1.9 से 2.0
कोयल
हाल ही के वर्षों में जैपनीज कोयल ने अपना व्यापक प्रभाव दिखाया है और अंडे तथा मांस उत्पादन के लिए पूरे देश में अनेक कोयला-फार्म स्थापित किये गये हैं। यह उपभोक्ताओं की गुणवत्ता वाले मांस के प्रति बढ़ती हुई जागरुकता के कारण हुआ है।
निम्नलिखित घटक कोयल पालन प्राणाली को किफायती और तकनीकी रुप से व्यवहारिक बनाते हैं।
लघु अवधि पीढ़ी अंतराल
कोयल रोग के प्रति काफी सशक्त होती
किसी तरह के टीकाकरण की जरूरत नहीं होती
कम जगह की जरूरत होती
रख-रखाव में आसानी होती
जल्दी परिपक्व होती
अंडे देने की उच्च तीव्रता – मादा 42 की आयु में अंडे देना आरंभ करती
कारीउत्तम
कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 60-76 प्रतिशत
4 सप्ताह में वजनः 150 ग्राम
5 सप्ताह में वजनः 170-190 ग्राम
4 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.51
5 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.80
दैनिक आहार खपतः 25-28 ग्राम
कारीउज्जवल
कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 60-76 प्रतिशत
4 सप्ताह में वजनः 140 ग्राम
5 सप्ताह में वजनः 170-175 ग्राम
5 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.93
दैनिक आहार खपतः 25-28 ग्राम
कारीस्वेता
कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 50-60 प्रतिशत
4 सप्ताह में वजनः 135 ग्राम
5 सप्ताह में वजनः 155-165 ग्राम
4 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.85
5 सप्ताह में आहार दक्षताः 2.90
दैनिक आहार खपतः 25 ग्राम
कारीपर्ल
कुल अंडे सैट पर हैचेबिल्टीः 65-70 प्रतिशत
4 सप्ताह में वजनः 120 ग्राम
दैनिक आहार खपतः 25 ग्राम
50 प्रतिशत अंडा उत्पादन की आयुः 8-10 सप्ताह
टैन-डे उत्पादनः 285-295 अंडे
गिनी कुक्कुट / गिनी मुर्गा
गिनी मुर्गा एक काफी स्वतंत्र घूमने वाला पक्षी है।
यह सीमांत और छोटे किसानों के लिए काफी उपयुक्त है।
उपलब्ध तीन किस्में हैं- कादम्बरी, चितम्बरी तथा श्वेताम्बरी
विशेषलक्षण
स्वस्थ पक्षी
किसी भी तरह के कृषि मौसम स्थिति के लिए अनुकूल
मुर्गे के अनेक सामान्य रोगों की प्रतिरोधी क्षमता
विशाल और महंगे घरों की जरुरत न होना
उत्कृष्ट चारा अनुकूलता
चिकन आहार में उपयोग न किये जाने वाले समस्त गैर पारंपरिक आहार की खपत
माइकोटोक्सीन तथा एफ्लाटोक्सीन के प्रति अधिक वहनीयता
अंडे का बाहर का छिलका सख्त होने की वजह से कम टूटता है और इसकी बेहतर गुणवत्ता बनी रहने की अवधि में वृद्धि होती है
गिनी मुर्गे का मांस विटामिन से भरपूर होता है तथा इसमें कोलेस्ट्रोल की मात्रा कम होती है।
उत्पादनलक्षणवर्गन
8 सप्ताह में वजन 500-550 ग्राम
12 सप्ताह में वजन 900-1000 ग्राम
प्रथम अंडे जनन में आयु 230-250 दिन
औसत अंडे का वजन 38-40 ग्राम
अंडा उत्पादन (मार्च से सितम्बर तक एक अंडे जनन चक्र में) 100-120 अंडे
जनन क्षमता 70-75 प्रतिशत
जनन शक्ति वाले अंडे सैट पर हैचेबिल्टी 70-80 प्रतिशत
कारी–विराट
चौड़ी छाती वाली सफेद प्रकार की
टर्की की बाजार में बिक्री लगभग 16 सप्ताह की आयु में ब्रायलर के रूप में उस समय होती है जब मुर्गियां सामान्यतः लगभग 8 किलो ग्राम के जीवित वजन में और टौम का वजन लगभग 12 किलो ग्राम होता है।
स्थानीय बाजार की मांग के अनुसार कम आयु में पशुवध द्वारा छोटे, फ्रायर रोस्टरों में इसे तैयार किया जा सकता है।
अन्य देसी नस्लें
नस्लें
गृह क्षेत्र
अंकलेश्वर
गुजरात
एसील
आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश
बुसरा
गुजरात और महाराष्ट्र
चिट्टागोंग
मेघालय और त्रिपुरा
पगंनकी
आंध्र प्रदेश
दाओथीगिर
असम
धागुस
आंध्र प्रदेश और कर्नाटक
हरिनघाटा ब्लैक
पश्चिम बंगाल
काडाकनाथ
मध्य प्रदेश
कालास्थी
आंध्र प्रदेश
कश्मीर फेवीरोल्ला
जम्मू व कश्मीर
मिरी
असम
निकोबारी
अंडमान एवं निकोबार
पंजाब ब्राउन
पंजाब व हरियाणा
टेल्लीचेरी
केरल
नस्ल संबंधी जानकारी के लिए कृपया निम्नलिखित से सम्पर्क करें –
निदेशक,
केन्द्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान,
इज्जतनगर, उत्तर प्रदेश