गेहूं की असिंचित क्षेत्रों में खेती
देश में खरीफ फसलों में धान तो रबी फसलों में गेहूं सबसे मुख्य फसल है। विश्व भर में, भोजन के लिए उगाई जाने वाली धान्य फसलों मे मक्का के बाद गेहूं दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने वाले फसल है, धान का स्थान गेहूं के ठीक बाद तीसरे स्थान पर आता है। देश में गेहूं का सबसे अधिक उत्पादन छह राज्यों हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार में होता है । देश के कुल खाद्यान उत्पादन में गेहूं का योगदान लगभग 37 प्रतिशत है। गेहूं में प्रोटीन की मात्रा अन्य आनाजों की तुलना में सबसे अधिक होती है इसलिए खाद्यान के रूप में यह बहुत ही महत्वपूर्ण है और इसकी मांग दुनियाभर में रहती है।
निरंतर बदती आबादी की मांग को पूरा करने के लिए गेहूं का उत्पादन और उत्पादकता को लगातार बढाना होगा। उत्पादन बढाने के लिए गेहूं को सही समय पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। सर्दी के मौसम में देश में बारिश न के बराबर होती है जिसके चलते किसानों को सिंचाई के लिए अन्य संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में देश के भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के विभन्न संस्थानों के वैज्ञानिकों के प्रयास से ऐसी किस्में विकसित की गई है जो कम पानी में भी अधिक उत्पादन देती हैं। बेहतर गेहूं उत्पादकता के लिए उन्नत किस्मों के साथ-साथ नई कृषि पद्धतियों को अपनाकर कुशल आदान प्रबंधन करने से लागत कम होगी। नीचे किसान समाधान आपके लिए गेहूं की असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए जानकारी ले कर आया है।
असिंचित अथवा बारानी दशा में गेहूं की खेती
असिंचित क्षेत्रों में गेहूं की औसत उपज सिंचित क्षेत्रों की तुलना में उपज को कम कर देती है। परिक्षणों से ज्ञात हुआ है कि बारानी दशा में गेंहूँ की अपेक्षा राई, जौ तथा चना की खेती अधिक लाभकारी है, ऐसी दशा में गेंहूँ की बुआई अक्टूबर माह में उचित नमी पर करें लेकिन यदि अक्टूबर या नवम्बर में पर्याप्त वर्षा हो गयी हो तो गेंहूँ की बारानी खेती निम्नवत विशेष तकनीक अपनाकर की जा सकती है।
- खेती की तैयारी
- गेहूं की असिंचित विकसित किस्में
- बीज की मात्रा एवं बुआई
- खाद एवं उर्वरक की मात्रा
- गेहूं में सिंचाई
- खरपतवार प्रबंधन
- गेहूं की फसल में लगने वाले मुख्य कीट एवं रोग
खेत की तैयारी तथा नमी का संरक्षण
मानसून की अन्तिम वर्षा का यथोचित जल संरक्षण करके खेत की तैयारी करें असिंचित क्षेत्रों में अधिक जुताई की आवश्यकता नहीं है, अन्यथा नमी उड़ने का भय रहता है, ऐसे क्षेत्रों में सायंकाल जुताई करके दुसरे दिन प्रातः काल पाटा लगाने से नमी का समुचित संरक्षण किया जा सकता है।
भूमि उपचार
- खेत की मिट्टी में जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टिइड (जैव कवक नाशी) ट्राइकोड़रमा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोड़रमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छीटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से अनावृत कण्डुआ, करनाल बंट आदि रोगों के प्रबन्धन में सहायता मिलती है |
- सूत्रकृमि के नियंत्रण हेतु कार्बोफ्यूरान 3 जी 10-15 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करना चाहिए |
कम पानी या सिंचाई के लिए गेहूं की किस्में
भारतीय कृषि विज्ञानिकों के द्वारा अलग-अलग मिट्टी एवं जलवायु क्षेत्रों के अनुसार कई किस्में विकसित की गई है किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुसार उन गेहूं की सभी विकसित किस्मों की जानकारी अपने जिले में स्थित कृषि विभाग से प्राप्त कर सकते हैं। देश में गेहूं में लगने वाले विभन्न रोगों से बचाव के लिए बहुत सी अवरोधी किस्में भी विकसित की गई है। नीचे कुछ विकसित किस्में एवं उनकी विशेषताएं दी जा रही हैं | किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुसार इन किस्मों का चयन कर सकते हैं।
मगहर (के-8027) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 1989 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 30-35 कुन्तल है। यह 140-145 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊचाई 105-110 से.मी. होती है यह किस्म कुंदुवा एंव झुलसा अवरोधी है।
इन्द्रा (के-8962) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 1996 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर 25-35 कुन्तल है। यह 90-110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 110-120 से.मी. होती है।
गोमती (के-9465) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 1998 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर 28-35 कुन्तल है। यह 90-110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 90-100 से.मी. होती है। यह किस्म उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त है।
के-9644 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2000 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर 35-40 कुन्तल है। यह 105-110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 95-110 से.मी. होती है। यह किस्म आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र के लिए उपयुक्त है।
मंदाकिनी (के-9351) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2004 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर 30-35 कुन्तल है। यह 115-120 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 95-110 से.मी. होती है।
एच.डी.आर.-77 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 1990 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 25–35 कुन्तल है। यह 105-115 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊचाई 90-95 से.मी. होती है। यह किस्म असम, बिहार, पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है।
एच.डी.-2888 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2005 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 30-35 कुन्तल है। यह 120-125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म रतुआ अवरोधी है। यह किस्म असम, बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है।
पूसा व्हीट 3237 (एच.डी.3237) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2019 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 48.4 कुन्तल है। यह 145 दिनों में पककर तेयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई100-110 से.मी. होती है यह किस्म पीला एंव भूरा रस्ट अवरोधी एवं अच्छी चपाती क्वालिटी प्राप्त होती है।
पूसा व्हीट 1612 (एच.डी.1612) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2018 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 37.6 कुन्तल है। यह 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म पीला एवं भूरा रस्ट अवरोधी एवं ताप सहिष्णु है।
के.1317 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2018 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 30.1 कुन्तल है। यह 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म भूरा रस्ट एंव लीफ ब्लाइट के प्रति अवरोधी तथा उच्च गुण वाली चपाती हेतु होती है।
ए.ए.आई.डब्लू.-10 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2018 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 45-50 कुन्तल है। यह 120-125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म लीफ रस्ट, लीफ ब्लाइट एंव लाजिंग एंव सैटिरिंग के प्रति अवरोधी। उच्च तापमान सहिष्णु।
डब्लू.एच.1142 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2015 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 48.1 कुन्तल है। यह 150-156 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म पीला एवं भूरा रस्ट तथा सुखा एवं लाजिंग के प्रति सहिष्णु है।
डी.बी.डब्लू.110 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2015 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 39.0 कुन्तल है। यह 110–134 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म भूरा एंव ब्लेक रस्ट तथा करनाल बंट अवरोधी होती है।
एन.डब्लू.4018 (नरेन्द्र गेहूँ 4018) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2014 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 18.3 कुन्तल है। यह 123 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म सामान्य अवस्थ में सभी रस्ट के लिए अवरोधी होती है।
के.-402(माही) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2013 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 43.1 कुन्तल है। यह 120-125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म ताप सहिष्णु होती है।
एम.पी.-3288 (जे.डब्लू.3288) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2011 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 23.2 कुन्तल है। यह 121 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म (नान-लाजिंग प्रजाति) लीफ एंव ब्लेक रस्ट अवरोधी होती है। यह किस्म उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान के लिए उपयुक्त है।
डब्लू.एच.1080 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2011 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 30.8 कुन्तल है। यह 151 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म लीफ रस्ट, लीफ ब्लाइट एंव फ्लेक स्मट अवरोधी चपाती योग्य होती है। यह किस्म उत्तर प्रदेश, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखण्ड के लिए उपयुक्त है।
एम.पी.-3173 (जे.डब्लू.-3173) :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2009 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 25.7 कुन्तल है। यह 128 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊँचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म रस्ट के प्रति उच्च अवरोधी।
राज-4120 :-
गेहूँ की यह किस्म वर्ष 2009 को जारी की गई थी इसकी उत्पादकता प्रति हैक्टर में 47.0 कुन्तल है। यह 119 दिनों में पककर तैयार हो जाती है पौधे की ऊचाई 100-110 से.मी. होती है यह किस्म स्टेम रस्ट अवरोधी, चपाती बनाने योग्य होती है। यह किस्म उत्तर प्रदेश, असम, बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल के लिए उपयुक्त है।
मध्यप्रदेश के लिए अन्य विकसित किस्में-
जे.डब्ल्यू. 17, जे.डब्ल्यू. 3269, जे.डब्ल्यू. 3288, एच.आई. 1500, एच.आई. 1531, एच.डी. 4672 (कठिया), जे.डब्ल्यू. 3020, जे.डब्ल्यू. 3173, जे.डब्ल्यू. 3269, जे.डब्ल्यू. 3211, एच.आई. 8627(कठिया), एच.आई. 1500, एच.आई. 1544, एच.आई. 153 आदि किस्में मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों के जलवायु क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं।
बीज की मात्रा एवं बुआई
संस्तुत प्रजातियों की बुआई अक्टूबर के द्वितीय पक्ष से नवम्बर के प्रथम पक्ष तक भूमि की उपयुक्त नमी पर करें | बीज का प्रयोग 100 किग्रा. प्रति हे. की दर से करें और बीज को कूंडो में 23 सेमी. की दुरी पर बोयें जिससे बीज के ऊपर 4-5 सेमी. से अधिक मिट्टी न हो |
बीज उपचार
- अनावृत कण्डुआ एंव करनाल बंट के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत डब्लू.एस. की 2.5 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.5 ग्राम अथवा कार्बाक्सिन 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.0 ग्राम अथवा टेबूकोनाजोल 2 प्रतिशत डी.एस. की 1.0 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से बीज शोधन कर बुआई करना चाहिए।
- गेहूँ रोग नियंत्रण हेतु बीज को कुछ समय के लिये 2.0 प्रतिशत नमक के घोल में डूबोये (200 ग्राम नमक को 10 लीटर पानी घोलकर) जिससे गेहूँ रोग ग्रासित रोग बीज हल्का होने के कारण तैरने लगता है। ऐसे गेहूँ ग्रासित बीजों को निकालकर नष्ट कर दें। नमक के घोल में डुबोये गये बीजों को बाद में साफ पानी 2-3 बार धोकर सुखा लेने के पश्चात बोने के काम में लाना चाहिए |
- अनावृत कण्डुआ एवं अन्य बीज जनित रोगों के साथ-साथ प्रारम्भिक भूमि जनित रोगों के नियत्रण हेतु कार्बाक्सिन 37.5 प्रतिशत + थीरम 37.5 प्रतिशत डी.एस./डब्लू.एस. की 3.0 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजशोधन कर बुआई करना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक की मात्रा
बारानी गेहूँ की खेती के लिए 40 किग्रा. नत्रजन, 30 किग्रा. फास्फेट तथा 30 किग्रा. पोटाश प्रति हे. की दर से प्रयोग करें। उर्वरक की यह सम्पूर्ण मात्रा बुआई के समय कूंडो में बीज के 2-3 सेमी. नीचे नाई अथवा चोगें अथवा फर्ट़ीड्रिल द्वारा डालना चाहिए। बाली निकलने से पूर्व वर्षा हो जाने पर 15-20 किग्रा./हे. नत्रजन का प्रयोग लाभप्रद होगा यदि वर्षा न हो तो 2 प्रतिशत यूरिया का पर्णीय छिडकाव किया जाये |
असिंचित खेत में गेहूं में सिंचाई
यदि तीन सिंचाईयों की सुविधा ही उपलब्ध हो तो ताजमूल अवस्था, बाली निकलने के पूर्व तथा दुग्धावस्था पर करें। यदि दो सिंचाईयां ही उपलब्ध हों तो ताजमूल तथा पुष्पावस्था पर करें और यदि एक ही सिंचाई उपलब्ध हो तो ताजमूल अवस्था पर करें। ऊसर भूमि में पहली सिंचाई बुआई के 28-30 दिन बाद तथा शेष सिंचाईयां हल्की एंव जल्दी-जल्दी करनी चाहिये, जिससे मिट्टी सूखने न पाये।
गेहूं की सिमित सिंचाई की दशा में सिंचाई में निम्नलिखित 3 बातों पर ध्यान दें :
- बुआई से पहले खेत भली-भांति समतल करे तथा किसी एक दिशा में हल्का ढाल दें, जिससे जल का पुरे खेत में एक साथ वितरण हो सके।
- खेत को मृदा तथा सिंचाई के साधन के अनुसार आवश्यक माप की क्यारियों अथवा पट्टीयों में बांट दें | इससे जल के एक साथ वितरण में सहायता मिलती है।
- हल्की भूमि में आश्वस्त सिंचाई सुविधा होने पर सिंचाई हल्की (लगभग 6 सेमी. जल) तथा दोमट व भारी भूमि में तथा सिंचाई साधन की दशा में सिंचाई कुछ गहरी (प्रति सिंचाई लगभग 8 सेमी. जल) करें।
गेहूं की फसल में खरपतवार प्रबंधन
- सकरी पत्ती : गेहूँसा एवं जंगली जई।
- चौडी पत्ती : बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, ज्याजी, खरतुआ, सत्याशी आदि।
नियंत्रण के उपाय :
- गेहूँसा एवं जंगली जई के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. बुआई के 20-25 दिन के बाद फ्लैटफैन नाजिल से छिडकाव करना चाहिए। सल्फोसल्फ्यूरान हेतु पानी की मात्रा 300 लीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए।
- आइसोप्रोटयूरान 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 1.25 किग्रा. प्रति हे.।
- सल्फोसल्फ्यूरान 75 प्रतिशत डब्लू.जी. की 33 ग्राम (2.5 यूनिट) प्रति हे.।
- फिनोक्साप्राप–पी इथाइल 10 प्रतिशत ई.सी. की 1 लीटर प्रति हे.।
- क्लोडीनाफांप प्रोपैर्जिल 15 प्रतिशत डब्लू.पी. की 400 ग्राम प्रति हे.।
चौड़ी पत्ती के खरपतवार बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी–मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. बुआई के 25-30 दिन के बाद फ्लैटफैन नाजिल से छिडकाव करना चाहिए
- 2-4डी मिथाइल एमाइन साल्ट 58 प्रतिशत एस.एल. की 1.25 लीटर प्रति हे.।
- कर्फेंन्टाजॉन मिथाइल 40 प्रतिशत डी.एफ. की 50 ग्राम प्रति हेक्टेयर।
- 2-4डी सोडियम साल्ट 80 प्रतिशत टेकनिकल की 625 ग्राम प्रति हे.।
- मेट सल्फ्यूरान इथाइल 20 प्रतिशत डब्लू.पी. की 20 ग्राम प्रति हे.।
सकरी एवं चौड़ी पत्ती दोनों प्रकार के खरपतवारों के एक साथ नियंत्रण हेतु निम्नलिखित खरपतवारनाशी रसायनों में से किसी एक रसायन की संस्तुत मात्रा को लगभग 300 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर फ्लैटफैन नाजिल से छिडकाव करना चाहिए मैट्रीब्युजिन हेतु पानी की मात्रा 500-600 लीटर प्रति हे. होनी चाहिए –
- पेंडीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 लीटर प्रति हे. बुआई के 3 दिन के अन्दर।
- सल्फोसल्फ़यूरान 75 प्रतिशत डब्लू.पी. की 33 ग्राम (2.5 यूनिट) प्रति हे. बुआई के 20-25 दिन के बाद।
- मैट्रीब्युजिन 70 प्रतिशत डब्लू.पी. की 250 ग्राम प्रति हे. बुआई के 20-25 दिन के बाद।
- सल्फोसल्फ्यूरान 75 प्रतिशत + मेट सल्फोसल्फ्यूरान मिथाइल 5 प्रतिशत डब्लू.जी. 40 ग्राम (2.50 यूनिट) बुआई के 20 से 25 दिन बाद।
गेहूँ की फसल में खरपतवार नियंत्रण हेतु क्लोडीनोफाप 15 प्रतिशत डब्लू.पी. + मेट सल्फ्यूरान 1 प्रतिशत डब्लू.पी. की 400 ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से 12.5 मिली. सर्फेकटेंट 375 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए।
प्रमुख कीट एवं रोग और उनका नियंत्रण
गेहूं में बीमारियों सुत्रकृमियों तथा हानिकारक कीटों के कारण 5–10 प्रतिशत उपज की हानि होती है और दानों तथा बीजों की गुणवत्ता भी खराब होती है | जिससे लागत तो बढती ही है उत्पादन कम होने से किसानों की आय पर भी फर्क पड़ता है। किसानों को इसलिए बीज उपचार कर एवं रोग प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग ही करना चाहिए। गेहूं की फसल में पर्ण रतुआ / भूरा रतुआ, धारीदार रतुआ या पीला रतुआ, तना रतुआ या काला रतुआ, करनाल बंट खुला कंडुआ या लूज स्मट, पर्ण झुलसा या लीफ ब्लाईट, चूर्णिल आसिता या पौदरी मिल्ड्यू, ध्वज कंड या फ्लैग समट, पहाड़ी बंट या हिल बंट, पाद विगलन या फुट राँट आदि रोग लगते हैं। गेहूं की फसल में लगने वाले इन सभी रोगों एवं उनकी रोकथाम के लिए दी गई लिंक पर जानकारी देखें।
खड़ी फसल में बहुत से रोग लगते हैं,जैसे अल्टरनेरिया, गेरुई या रतुआ एवं ब्लाइट का प्रकोप होता है जिससे भारी नुकसान हो जाता है इसमे निम्न प्रकार के रोग और लगते हैं जैसे काली गेरुई, भूरी गेरुई, पीली गेरुई सेंहू, कण्डुआ, स्टाम्प ब्लाच, करनालबंट इसमें मुख्य रूप से झुलसा रोग लगता है पत्तियों पर कुछ पीले भूरे रंग के लिए हुए धब्बे दिखाई देते हैं, ये बाद में किनारे पर कत्थई भूरे रंग के तथा बीच में हल्के भूरे रंग के हो जाते हैं: इनकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० प्रति हैक्टर की दर से या प्रापिकोनाजोल 25 % ई सी. की आधा लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए, इसमे गेरुई या रतुआ मुख्य रूप से लगता है,गेरुई भूरे पीले या काले रंग के, काली गेरुई पत्ती तथा तना दोनों में लगती है इसकी रोकथाम के लिए मैन्कोजेब 2 किग्रा० या जिनेब 25% ई सी. आधा लीटर, 1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिए। यदि झुलसा, रतुआ, कर्नाल बंट तीनो रोगों की शंका हो तो प्रोपिकोनाजोल का छिड़काव करना अति आवश्यक है।
प्रमुख कीट
दीमक : यह एक सामाजिक कीट है तथा कालोनी बनाकर रहते हैं। एक कालोनी में लगभग 90 प्रतिशत श्रमिक, 2-3 प्रतिशत सैनिक, एक रानी व राजा होते हैं। श्रमिक पीलापन लिये हुए सफ़ेद रंग के पंखहीन होते है जो फसलों के क्षति पहुंचाते है। दीमक नियंत्रण से जुडी जानकारी के लिए दी गई लिंक पर देखें।
गुजिया विविल : यह कीट भूरे मटमैले रंग का होता है जो सुखी जमीन में ढेलें एवं दरारों में रहता है। यह कीट उग रहे पौधों को जमीन की सतह से काटकर हानि पहुंचाता है।
माहूँ : हरे रंग के शिशु एवं प्रौढ माँहू पत्तियों एवं हरी बालियों से रस चूस कर हानि पहुंचाते है। माहूँ मधुश्राव करते हैं जिस पर काली फफूंद उग आती है जिससे प्रकास संश्लेषण में बाधा उतपन्न होती है।
नियंत्रण के उपाय :
- बुआई से पूर्व दीमक के नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. अथवा थायोमेथाक्सम 30 प्रतिशत एफ.एस. की 3 मिली. मात्रा प्रति किग्रा. बीज की दर से बीज को शोधित करना चाहिए।
- ब्यूवेरिया बैसियाना 1.15 प्रतिशत बायोपेस्टीसाइड (जैव कीटनाशी) की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-70 किग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छीटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से दीमक सहित भूमि जनित कीटों का नियंत्रण हो जाता है।
- खड़ी फसल में दीमक / गुजिया के नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली. प्रति हे. की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करना चाहिए।
- माहूँ कीट के नियंत्रण हेतु डाइमेथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. अथवा आंक्सीडेमेटान-मिथाइल 25 प्रतिशत ई.सी. की 1.0 ली. मात्रा अथवा थायोमेथाक्सम 25 प्रतिशत डब्लू.जी. 50 ग्राम प्रति हे. लगभग 750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। एजाडिरेक्टिन (नीम आयल) 0.15 प्रतिशत ई.सी. 2.5 ली. प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जा सकता है।