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किसान अधिक पैदावार के लिए इस तरह करें रागी की खेती

रागी की खेती

मोटे अनाजों में रागी (मंडुआ) का विशेष स्थान है, इसे फिंगर मिलेट भी कहा जाता है| देश में रागी की खेती लगभग 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है। पोषक तत्वों से भरपूर होने के कारण बाजार में इसकी माँग लगातार बढ़ी है, जिससे भविष्य में किसानों को इसके और अच्छे भाव मिलने की संभावना है। इसकी खेती मुख्यतः दाने प्राप्त करने एवं पशुओं के लिए हरा चारा प्राप्त करने के लिए की जाती है। इसके दाने का प्रयोग भोजन के साथ औधोगिक कार्यों में किया जाता है। इसे उबालकर चावल की तरह खाया जाता है साथ ही इसके आटे से रोटियाँ भी बनाई जाती है।

देश में सबसे ज्यादा रागी की खेती कर्नाटक राज्य में की जाती है इसके बाद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश का नम्बर आता है। किसान किस तरह कम लागत में रागी की आधुनिक खेती कर अधिक लाभ प्राप्त कर सकें इसकी जानकारी नीचे दी गई है। जिसमें अलग-अलग राज्यों के लिए अनुशंसित क़िस्में भी शामिल हैं। 

रागी के उपयोग एवं फायदे

दक्षिण भारत में रागी को केक पुडिंग व मिठाइयाँ बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। इसके अंकुरित बीजों से मॉल्ट (एक मूल्यवर्धित उत्पाद) बनाते हैं, जो शिशु आहार तैयार करने में काम आता है। रागी मधुमेह रोगियों के लिए उत्तम आहार है। इसमें पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं। रागी में 9.2 प्रतिशत प्रोटीन, 76.32 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट वही वसा मात्र 1.3 प्रतिशत होता है, साथ ही रागी कैल्शियम, आयरन एवं प्रोटीन का बढ़िया स्त्रोत है। 

जलवायु एवं मृदा

रागी की अच्छी उपज के लिए गरम और नर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। अधिक वर्षा का फसल पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। उन सभी स्थानों पर जहाँ वर्षा 50 से 90 से.मी. के बीच होती है, वहाँ पर रागी को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

इसकी अच्छी पैदावार के लिए हल्की दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है, काली मृदा में उपज अच्छी नहीं मिलती। पहाड़ी स्थानों पर पायी जाने वाली कंकरीली, पथरीली, ढालू मृदा में अन्य फसलों की अपेक्षा रागी की अच्छी उपज प्राप्त होती है। अधिक उत्पादन लेने के लिए गहरी और मध्यम उपजाऊ मृदा की आवश्यकता होती है। मृदा में जल धारण करने की अच्छी क्षमता होनी चाहिए।

रागी की उन्नत एवं विकसित क़िस्में

.सी.4840 :- यह प्रजाति बुंदेलखंड क्षेत्र के लिए बहुत उपयुक्त प्रजाति है | इस प्रजाति के दाने भूरे रंगे के होते हैं। फसल लगभग 108 दिनों में पक जाती है | प्रति हैक्टेयर लगभग 18–19 क्विंटल की उपज प्राप्त होती है। यह किस्म गर्मी में बुआई के लिए उपयुक्त है।

निर्मल :- यह उत्तर प्रदेश के रागी उगाने वाले सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है इससे लगभग प्रति हैक्टेयर 16–18 क्विंटल उपज प्राप्त की जा सकती है।

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पंत रागी-3 (विक्रम) :- पहाड़ी क्षेत्रों के लिए यह 95–100 दिनों में तैयार होने वाली फसल है। पौधे की ऊँचाई 80–85 सें.मी. होती है | यह प्रजाति ब्लास्टरोधक है, इसकी बालियां मुड़ी हुई और दाने हल्के भूरे रंग के होते हैं। यह किस्म गेहूं फसल चक्र के लिए भी उपयुक्त है।

रागी की राज्यवार अन्य विकसित क़िस्में 
राज्य
विकसित किस्में

कर्नाटक 

जीपीयू 28, जीपीयू 45, जीपीयू 48, पीआर 202, एमआर 6, जीपीयू 66, जीपीयू 67, केएमआर 204, केएमआर 301, केएमआर 340, एमएल 365,

तमिलनाडु 

जीपीयू 28, सीओ 13, टीएनएयू 946, सीओ 9, सीओ 12, सीओ 15 

आंध्र प्रदेश 

वीआर 847, पीआर 202, वीआर 708, वीआर 762, वीआर 900, वीआर 936 

झारखंड 

ए 404, बीएम 2 

ओड़िसा 

ओइबी 10, ओयूएटी 2, बीएम 9 – 1, ओइबी 526, ओइबी 532

उत्तराखंड 

पीआरएम 2, वीएल 315, वीएल 324, वीएल 352, वीएल 149, वीएल 348, वीएल 376, पीईएस 400 

छत्तीसगढ़ 

छत्तीसगढ़ – 2, बी-आर 7, जीपीयू 28, पीआर 202, वीआर 708, वीएल 149, वीएल 315, वीएल 324, वीएल 352, वीएल 376 

महाराष्ट्र 

दापोली 1, फूले नाचनी, के ओपीएन 235 

गुजरात 

जी एन 4, जी एन 5 

बिहार 

आरएयू 8, वीआर – 708, वीएल – 352, आरएयू -3, जीपीयू-45, वीएल – 348, जीपीयू 28, जीपीयू 67, जीपीयू 85

बीज दर बुआई की विधि

अप्रैल या मई महीने में एक गहरी जुताई करें तथा फिर से 2-3 बार हैरो से जुताई कर पाटा करें। रागी की बुआई के लिए 10–12 किलोग्राम बीज/प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। रोपनी से पहले कैप्टन, थीरम या बाविस्टीन द्वारा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें। खरीफ फसल के लिए बुआई का उपयुक्त समय जून-जुलाई है। रागी की बुआई में पंक्ति से पंक्ति की दुरी 20 से 25 से.मी. तथा पौधों की दुरी 10 से.मी. रखनी चाहिए | बीज को सिर्फ 2 से.मी. गहराई पर ही बोना चाहिए। रागी दो विधियों से बोई जा सकती है:-

  • पंक्तियों में बुआई 
  • रोपाई विधि 

खाद एवं उर्वरक 

रागी के लिए 40 से 45 किलोग्राम नाईट्रोजन एवं 30 – 40 किलोग्राम फ़ास्फोरस तथा 20 – 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है | सभी उर्वरकों को अच्छी तरह से मिलाकर बोते समय ही बीज के पास 4–5 सें.मी. की दुरी पर एक दूसरा कूंड बनाकर डालना चाहिए। बुआई से पूर्व 100 क्विंटल प्रति हैक्टेयर गोबर की खाद देना लाभदायक है। जैविक विधि से उगाई गई रागी की फसल ज्यादा लाभकारी होती है |

खरपतवार प्रबंधन 

खरपतवार नियंत्रण के लिए एक निंदाई तथा 2,4–डी (500 ग्राम सक्रिय तत्व) को 600 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 20 दिनों बाद छिड़काव करना चाहिए।

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सिंचाई 

खरीफ ऋतू की फसल अधिकतर वर्षा के आधार पर ली जाती है। अत: इसे सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। रोपाई द्वारा फसल बोने पर में सिंचाई करनी आवश्यक है। रोपाई में फिर 8–10 दिनों बाद सिंचाई आवश्यकतानुसार करनी चाहिए। बीज बोने के 15 दिनों बाद एक बार निंदाई-गुड़ाई कर देना चाहिए। 

फसल चक्र एवं अंतरवर्ती फसल 

अंतरवर्ती फसल के रूप में रागी सोयाबीन के साथ उगाई जा सकती है| रागी के बाद रबी में आलू, गेहूं, चना, सरसों, जौ, आदि फसलें किसान ले सकते हैं।

रागी की फसल में कीट एवं रोग

 रागी की फसल में निम्नलिखित कीट पतंगे आक्रमण करते हैं, जिनका नियंत्रण निम्न प्रकार से किया जा सकता है |

बालदार रोयेंदार सूंडी 

यह पत्तियों को हानि पहुँचाती है। कभी–कभी तने पर भी आक्रमण करती है। इसे मैलाथियोन 10 प्रतिशत के 25 से 30 किलोग्राम पाउडर / हैक्टेयर की दर से भुरकाव करके नियंत्रण किया जा सकता है |

सफेद ग्रब 

25 किलोग्राम इमेडाक्लोरोप्रिड 10 प्रतिशत को गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बराबर बिखेर दें, जिससे सफेद ग्रब का नियंत्रण किया जा सकता है |

झुलसा रोग रागी में होने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोग है, जो पौधे के हर चरण को प्रभावित करता है। इसकी रोकथाम हेतु नाइट्रोजन युक्त खाद का अत्याधिक उपयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि नाइट्रोजन की उच्च मात्रा और झुलसा रोग में सकारात्मक सम्बंध पाया गया है। किसान इसकी रोकथाम के लिए बीज उपचार करके बुआई करें। एडिफेनफोस (हिनोसान) 500 मि.ली. अथवा कार्बेंडाजिम 500 ग्राम अथवा आइप्रोबेनफोस (किताजिन) 500 मिली/हेक्टेयर से छिड़काव करें। 

फसल कटाई एवं गहाई

बाली को दानों के साथ काटा जाता है और पौधों को जमीन के करीब से काट दिया जाता है। बालियों का ढेर बनाकर 3–4 दिनों तक सुखाया जाना चाहिए| इसके अच्छे से सूखने के बाद गहाई की जाती है | परंपरागत रूप से रागी की गहाई और दानों की सफ़ाई हाथों से की जाती रही है, जिसमें ज़्यादा समय, कम उत्पादन और अधिक परिश्रम जैसी मुश्किलें आती हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए एक 2 एच.पी. मोटर संचालित फिंगर मिलेट-कम-पियरलर का उपयोग कर सकते हैं, जिसकी गहाई एवं प्रसंस्करण क्षमता हाथ की अपेक्षा अधिक होती है।   

उत्पादन 

शीघ्र पकने वाली किस्में 15–20 क्विंटल/ हेक्टेयर तक उत्पादन देती है, जबकि मध्यम व देर से पकने वाली प्रजातियों की उत्पादन क्षमता 20–25 क्विंटल/ हेक्टेयर तक होती है। बीजों को धूप में सूखने से पहले साफ किया जाना चाहिए। ग्रेडिंग से पहले बीजों में 12 प्रतिशत नमी की मात्रा तक सुखाया जाना चाहिए। जिसके बाद जूट के बोरों में भरकर इसका भंडारण किया जा सकता है। 

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