ग्लेडियोलस की खेती

ग्लेडियोलस की खेती

भूमिका

ग्लेडियोलस एक बहुत ही सुन्दर फूल है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय फूलों में से एक  है। इसके पौधो की ऊंचाई 2 से 8 फीट तक होती है। ग्लेडियोलस फूलों के रंग और आकार की एक बड़ी रेंज  है। एक पौधे की डंडी में 30 तक फूल लगते है जो या तो एक ही रंग या फिर दो या तीन रंग के सम्मिश्रण में होते हैं। भारत में ग्लेडियोलस सबसे लोकप्रिय व्यावसायिक कट लावर फसल बन गयी है। ग्लेडियोलस की मांग दिन प्रति दिन बढ़ रही है क्योंकि बहुरंगी किस्मों, अलग अलग रंग, आकार और फूल स्पाइक के लंबे रख गुणवत्ता में बदलती घरेलू बाजार में इस फूल की खेती बहुत लोकप्रिय हो गयी है। ग्लेडियोलस भारत में मैदानी और पहाड़ी इलाकों की जलवायु में एक विस्तृत श्रृंखला में उगाया जा रहा है । ग्लेडियोलस एक बारहमासी बल्बनुमा पौधों फूल परितारिका परिवार के सदस्य हैं इसे ‘‘लिली तलवार’’ भी कहा जाता है । ये फूल एशिया, यूरोप, दक्षिण अफ्रीका और उष्णकटिवंधीय अफ्रीका में पाया जाता है।  इसके फूल गुलाबी, रंग या विषम, सफेद निशान या लाल को क्रीम या नारंगी के लिए सफेद रंग के साथ प्रकाश बैंगनी है। ग्लेडियोलस फूल अगस्त में खिलते हैं। भूमध्य और ब्रिटिश ग्लेडियोलस फूल शरीरिक रोगों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है ।

ग्लेडियोलस अपने सुन्दर फूल स्पाइक (डंडी) के लिए जाना जाता है। इसके शानदार रंग, आकर्षक अलग आकार, उत्कृष्ट एवं गुणवत्ता के लिए मशहूर हैं। ग्लेडियोलस  दोनों उद्यान एवं फूलों की सजावट के लिए आदर्श हैं। ग्लेडियोलस गुलदस्ते के लिए एक कट लावर, बेड के लिए बहुत अच्छा है। ग्लेडियोलस भी तलवार लिली के रूप में जाना जाता है। इस फूल की 260 प्रजातियां है। औषधी के रूप में यह दस्त और पेट की गड़बड़ी के उपचार में पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल किया जाता है ।

ग्लेडियोलस की खेती करके किसान अधिक धन कमा सकते हैं। इनकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है। ग्लोडियोलस शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘ग्लेडियस’ से बना है, जिसका अर्थ ‘तलवार’ है क्योंकि ग्लेडियोलस की पत्तियों का आकार तलवार जैसा होता है। इसके आकर्षक फूल जिन्हें लोरेट भी कहते हैं, पुष्प दंडिका ‘स्पाइक’ पर विकसित होते हैं और ये 10 से 14 दिनों तक खिले रहते हैं। इसका उपयोग कट-फ्लावर के रूप में गमलों में एवं गुलदस्तों में किया जाता है। ग्लेडियोलस की कुछ अद्वितीय विशेषताओं जैसे अधिक आर्थिक लाभ, आसान खेती, शीघ्र पुष्प प्राप्ति, पुष्पकों के विभिन्न रंगों, स्पाइक की अधिक समय तक तरोताजा रहने की क्षमता एवं कीट-रोगों के कम प्रकोप आदि के कारण इसकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

भूमि और जलवायु

ग्लेडियोलस की खेती सभी प्रकार की मृदा में की जा सकती है, किंतु बलुई दोमट मृदा जिसका पीएच मान 5.5 से 6.5 के मध्य हो तथा जीवांश पदार्थ की प्रचुरता हो, साथ ही भूमि के जल निकास का उचित प्रबंध हो, सर्वोत्तम मानी जाती है। खुला स्थान जहां पर सूर्य की रोशनी सुबह से शाम तक रहती हो, ऐसे स्थान पर ग्लेडियोलस की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।

ग्लेडियोलस की खेती हेतु के में  से के में  तापक्रम  16 डिग्री सेंटीग्रेट तथा अधिक  तापक्रम  23 से 40 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त होता है इसमे फूल आने पर बरसात नहीं होनी चाहिए ग्लेडियोलस की खेती सभी प्रकार की भूमि की जा सके ती है जहाँ पर पानी का निकास अच्छा होता है लेकिन बलुई दोमेंट भूमि सर्वोत्तम  मानी जाती है।

ग्लेडियोलस की किस्में

ग्लेडियोलस किस्मों में दोस्ती, स्पिक, अवधि, मंसूर लाल, डा. लेमिंग, पीटर नाशपाती और सफेद दोस्ती । भारत में विकसित किस्मों में सपना,पूनम, नजराना, अप्सरा, अग्निरेखा, मयूर, सुचि़त्रा, मनमोहन, मनोहर, मुक्ता, अर्चना, अरूण और शोभा हैं । ग्लेडियोलस में विभिन्न रंगों की अनेक उत्तम गुणवत्ता वाली प्रजातियां प्रचलित हैं जो निम्न प्रकार हैं

  • लाल :- अमेरिकन ब्यूटी, ऑस्कर, नजराना, रेड ब्यूटी
  • गुलाबी :-पिंक फ्रैंडशिप, समर पर्ल
  • नारंगी:- रोज सुप्रीम
  • सफेद :- ह्वाइट फ्रैंडशिप, ह्वाइट प्रोस्पेरिटी, स्नो ह्वाइट, मीरां
  • पीला:- टोपाल, सपना, टीएस-14
  • बैंगनी:- हरमैजस्टी

ग्लेडियोलस की उन्नतशील प्रजातियां

ग्लेडियोलस की लगभग दस हजार किस्मे है लेकिन कुछ मुख्य प्रजातियों की खेती उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रो में होती है जैसे कि स्नो क्वीन, सिल्विया, एपिस ब्लासमें , बिग्स ग्लोरी, टेबलर, जैक्सन लिले, गोल्ड बिस्मिल, रोज स्पाइटर, कोशकार, लिंके न डे, पैट्रीसिया, जार्ज मैसूर, पेंटर पियर्स, किंग कीपर्स, किलोमिंगो, क्वीन, अग्नि, रेखा, पूसा सुहागिन, नजराना, आरती, अप्सरा, सोभा, सपना एवं पूनमें  आदि है।

भूमि की तैयारी और बुवाई

जिस खेत में ग्लेडियोलस की खेती करनी हो उसकी 2-3 बार अच्छी तरह से जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए। इसके लिए खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। क्योंकि इसकी जड़ें भूमि में अधिक गहराई तक नहीं जाती है। ग्लेडियोलस की खेती घनकंदों (कार्मस) द्वारा की जाती है। बुवाई करने का सही समय मध्य अक्टूबर से लेकर नवंबर तक रहता है। किस्मों को उनके फूल खिलने के समयानुसार अगेती, मध्य और पछेती के हिसाब से अलग-अलग क्यारियों में लगाना चाहिए।

ग्लेडियोलस की प्रति हेक्टेयर बुवाई

एक  हेक्टेयर भूमि कन्दों की रोपाई हेतु लगभग दो लाख के कन्दों की आवश्यकता पड़ती है यह  मात्रा कन्दों की रोपाई की दूरी पर घट बढ़ सके ती है। कन्दों का शोधन बैविस्टीन के 0.02 प्रतिशत के घोल में आधा घंटा डुबोकर छाया में सुखाके र बुवाई या रोपाई करनी चाहिए।

कन्दों की रोपाई का उत्तमें  समें य उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रो सितम्बर से अक्टूबर तके  होता है। कन्दों की रोपाई लाइनो में करनी चाहिए। शोधित कन्दों को लाइन से लाइन एवं पौधे से पौधे की दूरी 20 सेंटीमीटर अर्थात 20 गुने 20 सेंटीमीटर की दूरी पर 5 सेंटीमीटर की गहराई पर रोपाई के रनी चाहिए। लाइनो में रोपाई से निराई-गुड़ाई में आसानी रहती है और नुकसान भी के में  होता है।

कुल 4 -5 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। दो बार मिट्टी पौधों पर चढ़ानी चाहिये उसी में नाइट्रोजन का प्रयोग टॉप ड्रेसिंग के रूप में करना चाहिए। तीन पत्ती की स्टेज पर पहली बार व् छः पत्ती की स्टेज पर दूसरी बार मिट्टी चढ़ानी चाहिए।

खाद एवं उर्वरक की मात्रा

  • गली-सड़ी खाद : 5 किलोग्राम प्रति वर्ग मी.
  • नत्रजन : 30 ग्राम प्रति वर्ग मी.
  • फोस्फोरस : 20 ग्राम प्रति वर्ग मी.
  • पोटाश : 20 ग्राम प्रति वर्ग मी.

खेत तैयार करते समय सड़ी गोबर की खाद आख़िरी जुताई में मिला देना चाहिए। इसके साथ ही पोषके तत्वों की अधिक  आवश्यकता होने के कारण 200 किलोग्राम  नत्रजन, 400 किलोग्राम  फास्फोरस तथा 200 किलोग्राम  पोटाश तत्व के रूप में प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय बेसल ड्रेसिँग के रूप में देना चाहिए शेष नत्रजन की आधी मात्रा कन्दों की रोपाई एक  माह  बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए।

ग्लेडियोलस की खेती में सिंचाई

पहली सिंचाई घनकंदों के अंकुरण के बाद करनी चाहिए। इसके बाद सर्दियों में 10-12 दिन के अंतराल तथा गर्मियों में पांच-छह दिन के अंतराल पर करनी चाहिए।

सिंचाई रोपाई के 10 से 15 दिन बाद जब कंद अंकुरित होने लगे तब पहली सिंचाई करनी चाहिए। फसल में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए तथा पानी सिंचाई का भरा भी नहीं रहना चाहिए। अन्य सिंचाई मौसमें  के अनुसार आवश्यकतानुसार करनी चाहिए जब फसल खुदने से पहले पीली हो जाये तब सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

फूलों की कटाई

घनकंदों की बुवाई के पश्चात अगेती किस्मों में लगभग 60-65 दिनों में, मध्य किस्मों 80-85 दिनों तथा पछेती किस्मों में 100-110 पुष्प उत्पादन शुरू हो जाता है। पुष्प दंडिकाओं को काटने का समय बाजार की दूरी पर निर्भर करता है।

रोग का रोकथाम

इसमें झुलसा रोग, कंद सडन एवं पत्तियों के सूखने की बीमारी लगती है। इनके नियंत्रण हेतु 0. 05 प्रतिशत को ओरियोफैंजिमें  का घोल बनाकर या 0. 2 प्रतिशत का बैविस्टीन अथवा वेलनेट का घोल बनाकर 10 से 12 दिन के अंतराल पर छिड़काव के रना चाहिए।

इसमे माहू एवं लाल सूंडी कीट लगते है इनकी रोकेथाम के लिए रोगार 30 ई.सी. को 250 मिलीलीटर दवा 250 लीटर अर्थात 1 मिलीलीटर दवा 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

फूलो या स्पाइको की कटाई सुबह  के समय करनी चाहिए।  कटाई के बाद डंडियों को बाल्टी में भरे पानी में रखना चाहिए। यदि पुष्प दूर भेजना हो तो डंडी की नीचे की कली में जैसे ही रंग दिखाई देना शुरू हो जाये तो काट लेना चाहिए तथा सौ-सौ के गुच्छों में बांधकर बाजार में भेजना चाहिए। यदि जल्दी प्रयोग में लाना हो तो तीन-चार पुष्प अवश्य पूर्ण विकसित होना चाहिए। कंदो की खुदाई करने के पश्चात 10 से 15 दिन छायादार कमरे में सुखाना चाहिए इसके बाद कंदो को लकड़ी की है हवादार पेटियो में या पतले बोरे में भरना चाहिए जिनमे हवा जा सके इससे सड़ने का डर नहीं रहता है।

पौधों की दूरी के अनुसार एक  लाख से एक  लाख पच्चीस हजार पुष्प डांडिया प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है ।
स्रोत: ज़ेवियर समाज सेवा संस्थान,