भारत में रबी सीजन में सरसों तिलहन की मुख्य फसल है। देश को तेल उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार द्वारा तिहलन फसलों की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। वहीं वैज्ञानिकों द्वारा कम लागत में अधिक पैदावार वाली किस्में विकसित की जा रही हैं ताकि तेल उत्पादन के साथ ही साथ किसानों की आमदनी भी बढ़ाई जा सके। भारत में सरसों की खेती मुख्य रूप से पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा पश्चिम बंगाल एवं असम में की जाती है।
देश के विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा अलग–अलग राज्यों एवं जलवायु क्षेत्रों के लिए सरसों की अलग–अलग किस्में विकसित की गई हैं। जो रोग रोधी होने के साथ ही अधिक पैदावार भी देती हैं। किसान इन उन्नत क़िस्मों की वैज्ञानिक तरीके से खेती कर कम लागत में 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की उपज प्राप्त कर सकते हैं। सरसों की एक ऐसी ही किस्म है “पूसा जय किसान (बायो-902)”। आइए जानते हैं इसकी विशेषताओं के बारे में:-
पूसा जय किसान (बायो-902)
बायो-902 पूसा जय किसान सरसों की पहली टिश्यू कल्चर वाली किस्म है जो कि सरसों में लगने वाले मुख्य रोगों तुलासिता, सफ़ेद रोली और मुरझान रोग के प्रति रोधक है। यह किस्म 130 से 140 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। किसान सरसों की इस किस्म से औसतन प्रति हेक्टेयर 18-20 क्विंटल तक की पैदावार प्राप्त कर सकते हैं। सरसों की इस किस्म की खेती मुख्यतः सिंचित क्षेत्रों में की जाती है। सरसों की इस किस्म में तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तक होती है।
बुवाई के लिए प्रति हेक्टेयर बीज की मात्रा 4 से 5 किलोग्राम की जरूरत होती है। सरसों में बुवाई तथा पहली सिंचाई के बाद उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए। किसान बुवाई के समय 70 किलोग्राम डी.ए.पी. तथा 40 किलोग्राम यूरिया या डीएपी नहीं मिलने पर एस.एस.पी. 190 किलोग्राम तथा यूरिया 65 किलोग्राम की मात्रा दे सकते हैं। सिंचाई के बाद किसान खड़ी फसल में 65 किलोग्राम यूरिया का प्रयोग करें। अगर किसान बुवाई के लिए सीड ड्रिल का प्रयोग कर रहें हैं तो सरसों की लाइन की दूरी 30 से 35 से.मी. रखें।