चने की खेती की जानकारी Updated
दलहनी फसलों में चना एक महत्वपूर्ण फसल है | चना विश्व की महत्वपूर्ण दलहनी फसलों में से एक है | चना सर्वप्रथम मध्य-पूर्वी एशियाई देशों में उगाया गया | वृहद स्तर पर इसकी खेती भारत, मध्यपूर्वी इथोपिया, मक्सिको, अर्जेंटीना, चिली, पेरू व आस्ट्रेलिया में की जाती है | इसकी उपयोगिता दाल, बेस, सत्तू सब्जी तथा अन्य कार्यों के लिए होता है | भारत में चने की खेती सिंचित के साथ-साथ असिंचित क्षत्रों में की जाती है | रबी मौसम की खेती होने के कारण इसकी खेती शुष्क एवं ठंडे जलवायु फसल में किया जाता है जहाँ पर 60 से 90 से.मी. वर्षा होती है |
भारत में दलहन उत्पदान को बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा इसके लिए भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान दलहनी फसलों पर शोध संस्थान स्थापित किया गया है । चना भारत के अधिकांश भागों में सिंचित व असिंचित क्षेत्रों में रबी ऋतू में मुख्य दलहनी फसल के रूप में होता है, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं गुजार देश के मुख्य उत्पादक राज्य है | अधिक पैदावार प्राप्त करने हेतु निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है :
- खेती के लिए भूमि का चुनाव एवं तैयारी
- चने की उन्नत प्रजातियाँ/ किस्में
- बुआई हेतु बीज दर, बीज शोधन एवं बीजोपचार
- खाद या उर्वरक का प्रयोग
- चने की फसल में सिंचाई
- शाखाएं तोडना
- फसल में लगने वाले मुख्य कीट
- चने की फसल में लगने वाले मुख्य रोग
- फसल में खरपतवार नियंत्रण के उपाय
- कटाई एवं भण्डारण
भूमि का चुनाव एवं भूमि की तैयारी
चना की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं जैसे बलुई, दोमट से गहरी दोमट में सफलतापुर्वक की जा सकती है | उचित जल निकास तथा माध्यम उर्वरता वाली पी.एच. मान 6–7.5 हो | चने की अच्छी फसल लेने के लिए सर्वथा उपयुक्त होती है | अधिक उपजाऊ भूमि में चना के पौधों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है व फसल में फुल व फल कम लगते हैं |
असिंचित व बारानी क्षेत्रों में चना की खेती के लिए चिकनी दोमट भूमि उपयुक्त है | रबी ऋतू की फसल होने के कारण इसे मानसून से संरक्षित नमी में बारानी क्षेत्रों में उगाया जाता है | हल्की ढलान वाले खेतों में चना की फसल अच्छी होती है | ढेलेदार मिट्टी में देशी चने की भरपूर फसल ली जा सकती है |
भूमि की तैयारी
चना की फसल मृदा वातन के लिए एक अत्यधिक संवेदनशील फसल है | भूमि या खेत की सख्त या कोठार होने पर अंकुर प्रभावित होता है एवं पौधे की वृद्धि कम होती है | इसलिए, मृदा वायु संचारण को बनाए रखने के लिए जुताई की आवश्यकता होती है | मिट्टी की एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के उपरान्त एक जुताई विपरीत दिशा में हैरो या कल्टीवेटर द्वारा करके पाटा लगाना पर्याप्त है | जल निकास का उचित प्रबंधन भी अति आवश्यक है |
एक फसलीय क्षेत्रों में वर्षा ऋतू में खेतों में गहरी जुताई संस्तुत की जाती है जिससे भूमि में रबी फसल के लिए पर्याप्त जल संचय हो सके | चना के लिए खेत की मिटटी बहुत ज्यादा महीन या भुरभुरी नहीं होनी चाहिए तथा न ही बहुत ज्यादा दबी हुई |अच्छी खेती के लिए भूमि की साथ ढीली और ढेलेदार होनी चाहिए | बड़े ढेलों को तोड़ने तथा खेत को समतल बनाने एवं नमी संरक्षक के लिए पाटा लगाना चाहिए | बारानी भूमि में मृदा नमी संरक्षण के उचित प्रबंधन भी अपनाने चाहिए |
चने की उन्नत प्रजातियाँ/ किस्मों का चयन
किसान समाधान आपके लिए नीचे समय से बुआई, देरी से बुआई एवं काबुली चने की उन्नत विकसित किस्मों की जानकारी लेकर आया है | किसान भाई अपने यहाँ की जलवायु, मिट्टी एवं सिंचाई के साधनों के अनुसार उपयुक्त किस्मों का चयन करें | किसान भाई अपने क्षेत्र के अनुकूल किस्मों की जानकारी अपने जिले के कृषि विभाग या कृषि पर्यवेक्षक अधिकारीयों से ले सकते हैं | किसान भाई अधिक उत्पदान एवं कीट-रोग से बचाव के लिए प्रमाणित बीज का प्रयोग ही करें |
देशी प्रजातियाँ: समय से बुआई
प्रजातियाँ/मुख्य किस्में | चने की किस्मों की मुख्य विशेषताएं |
गुजरात चना–4 जारी वर्ष – 2000 | उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 120-130 दिन होती है, पौधा मध्यम बड़ा उकठा अवरोधी सिंचित एवं असिंचित दशा के लिए उपयुक्त होता है | |
अवरोधी जारी वर्ष–1987 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 145-150 दिन होती है, पौधे मध्यम ऊँचाई (सेमी इरेक्ट) भूरें रंग के दाने व उकठा अवरोधी होता है | |
पूसा – 256 जारी वर्ष–1985 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है, पौधे की ऊँचाई मध्यम, पत्ती चौड़ी, दाने का रंग भूरा एवं एस्कोकाइटा ब्लाइट बीमारियों के प्रति सहिष्णु होता है | |
के.डब्लू.आर.–108 जारी वर्ष – 1996 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है, दाने का रंग भूरा, पौधे मध्यम ऊँचाई, उकठा अवरोधी होता है | |
राधे जारी वर्ष – 1968 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 140-150 दिन होती है, इसका दाना बड़ा होता है | |
जे.जी. – 16 जारी वर्ष – 2000 | उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है, उकठा अवरोधी बुन्देलखण्ड हेतु | |
के. – 850 जारी वर्ष – 1978 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 145-150 दिन होती है, इसका दाना बड़ा, उकठा ग्रसित होता है | |
डी.सी.पी. – 92-3 जारी वर्ष – 1998 | उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 145-150 दिन होती है, उकठा अवरोधी, छोटा पीला दाना होता है | |
आधार (आर.एस.जी. – 963) जारी वर्ष – 2005 | उत्पादकता 19-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125-130 दिन होती है, उकठा, अवरोधी होता है | |
डब्लू.सी.जी. – 1 जारी वर्ष – 1996 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-145 दिन होती है, इसका दाना बड़ा होता है | |
डब्लू.सी.जी. – 2 जारी वर्ष – 1999 | उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है, इसके छोटे दाने वाली उकठा प्रतिरोधी होते है | |
के.जी.डी. -1168 (आलोक) जारी वर्ष – 1997 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 150-155 दिन होती है, यह उकठा अवरोधी होता है | |
जी.एन.जी. – 1958 (मरुधर) जारी वर्ष – 2013 | उत्पादकता 26-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 140-145 दिन होती है, उकठा, जड सडन, ग्रीवा गलन अवरोधी होता है | |
जे.जी. – 14 जारी वर्ष – 2009 | उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 110-115 दिन होती है, उकठा, सूख गलन, फली बेधक अवरोधी | |
जी.एन.जी. – 1581 (गणगौर) जारी वर्ष – 2008 | उत्पादकता 22-28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 127-177 दिन होती है, लाँजिंग अवरोधी | |
बी.जी. – 3043 जारी वर्ष – 2018 | उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है, देशी प्रजाति, मध्यम आकार होता है | |
जी.एन.जी. – 2171 जारी वर्ष – 2017 | उत्पादकता 20.14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 163 दिन होती है, देशी प्रजाति, पीला दाना, फ्यूजेरियम विल्ट सहिष्णु | |
पन्त ग्राम – 5 जारी वर्ष – 2017 | उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125-130 दिन होती है, भूरा दाना, फ्यूजेरियम विल्ट सहिष्णु | |
सी.एस.जे. – 515 (अमन) जारी वर्ष – 2016 | उत्पादकता 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135 दिन होती है, (उ.प्र. मैदानी क्षेत्र के लिए) छोटा भूरा दाना, सूखा जड सडन, विल्ट, कालर राँट मध्यम अवरोधी, एस्कोचाइटा ब्लाइट एवं बी.जी.एम. सहिष्णु | |
पूसा – 3022 (बी.जी.3022) जारी वर्ष – 2015 | उत्पादकता 16-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-140 दिन होती है, बड़े एवं आकर्षक दाना, काबुली प्रजाति | |
वल्लभ काबुली चना – 1 जारी वर्ष – 2015 | उत्पादकता 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 147 दिन होती है, स्लेटी कलरयुक्त बड़ा दाना, फ्यूजेरियम विल्ट मध्यम अवरोधी | |
जी.एन.जी. – 1969 (के.) जारी वर्ष – 2013 | उत्पादकता 22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 146 दिन होती है, क्रीमी बैगनी रंग का दाना | |
जी.एल.के. – 28127 जारी वर्ष – 2013 | उत्पादकता 21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 149 दिन होती है, हल्का पीला एवं क्रीम रंग का बड़ा दाना होता है | |
जाकी – 9218 जारी वर्ष – 2008 | उत्पादकता 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 93-125 दिन होती है, विल्ट, रूट राँट एवं कालर राँट अवरोधी होता है | |
शुब्रा (आई.पी.सी.के. – 2004–29) जारी वर्ष – 2009 | उत्पादकता 21 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 104–108 दिन होती है, विल्ट मध्यम अवरोधी तथा सुखा एवं उच्च ताप सहनशील होता है | |
देर से बुआई के लिए उपयुक्त किस्में
पूसा – 372 जारी वर्ष – 1993 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-140 दिन होती है, उकठा, ब्लाइट एवं जड गलन के प्रति सहिष्णु होता है | |
उदय जारी वर्ष – 1992 | उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-140 दिन होती है, दाने का रंग भूरा, मध्यम ऊँचाई होता है | |
पन्त जी. – 186 जारी वर्ष – 1996 | उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 120-130 दिन होती है, पौधे मध्यम ऊँचाई, उकठा सहिष्णु होता है | |
आई.सी.पी जारी वर्ष – 2006 – 77 | उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 130-135 दिन होती है, उकठा रोग रोधी, दाना मध्यम आकार का होता है | |
जी.एन.जी. – 2207 (अवध) जारी वर्ष – 2018 | उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-140 दिन होती है, |
जी.एन.जी. – 2144 (तीज) जारी वर्ष – 2016 | उत्पादकता 22.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 133 दिन होती है, देशी प्रजाति, मध्यम आकार एवं फ्यूजेरियम विल्ट सहिष्णु | |
राज विजय चना – 202 (आर.वी.जी.–202) जारी वर्ष – 2015 | उत्पादकता 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 102 दिन होती है, काबुली प्रजाति, ड्राई रुट राँट एवं कालर राट मध्यम अवरोधी | |
राज विजय चना – 203 (आर.वी.जी.–203) जारी वर्ष – 2012 | उत्पादकता 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 100 दिन होती है, विल्ट एवं ड्राई रूट राँट अवरोधी | |
कबूली चने की उन्नत विकसित किस्में
जे.जी. – 14 जारी वर्ष – 2009 | उत्पादकता 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 113 दिन होती है, विल्ट, ड्राई रूट राँट एवं पांड बोरर मध्यम अवरोधी | |
पूसा – 1003 जारी वर्ष – 1999 | उत्पादकता 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-145 दिन होती है, दाना मध्यम बड़ा उकठा सहिष्णु होता है | |
एच.के. – 94–134 जारी वर्ष – 2005 | उत्पादकता 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 140-145 दिन होती है, दाना बड़ा उकठा, सहिष्णु होता है | |
चमत्कार (वी.जी.–1053) जारी वर्ष – 2000 | उत्पादकता 15-16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 135-145 दिन होती है, दाना बड़ा होता है | |
जे.जी.के. – 1 | उत्पादकता 17-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 110-115 दिन होती है, बड़ा दाना उकठा सहिष्णु होता है | |
शुभ्रा जारी वर्ष – 2009 | उत्पादकता 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125 दिन होती है, उकठा अवरोधी होता है | |
उज्ज्वल जारी वर्ष – 2009 | उत्पादकता 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पकने की अवधि 125 दिन होती है, उकठा अवरोधी होता है | |
जी.एन.जी.–1985 जारी वर्ष – 2013 | पकने की अवधि 26.8 दिन होती है, (सिंचित दशा में क्षेत्र के लिए) विल्ट, राँट, स्टट एवं मौलर राँट के प्रति अवरोधी | |
चने की अन्य राज्यवार विकसित किस्मों की जानकारी के लिए क्लिक करें
चने की बुआई हेतु बीज दर, बीज शोधन एवं बीजोपचार
बीज दर :
छोटे दाने का 75-80 किग्रा. प्रति हेक्टर तथा बड़े दाने की प्रजाति का 90-100 किग्रा./हेक्टर | बोने से पूर्व बीजो की अंकुरण क्षमता की जांच स्वयं जरूर करें। ऐसा करने के लिये 100 बीजों को पानी में आठ घंटे तक भिगो दें। पानी से निकालकर गीले तौलिये या बोरे में ढक कर साधारण कमरे के तामान पर रखें। 4-5 दिन बाद अंकुरितक बीजों की संख्या गिन लें। 90 से अधिक बीज अंकुरित हुय है तो अकुरण प्रतिषत ठीक है। यदि इससे कम है तो बोनी के लिये उच्च गुणवत्ता वाले बीज का उपयोग करें या बीज की मात्रा बढ़ा दें।
बीज शोधन :
बीज जनित रोग से बचाव के लिए थीरम 2.5 ग्राम या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा अथवा थीरम 2.5 ग्राम + कार्बोंड़ाजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीज को बोने से पूर्व शोधित करना चाहिए | बीजशोधन कल्चर द्वारा उपचारित करने के पूर्व करना चाहिए |
बीजोपचार :
राइजोबियम कल्चर से बीजोपचार :
अलग-अलग दलहनी फसलों का अलग-अलग राइजोबियम कल्चर होता है चेन हेतु मीजोराइजोबियम साइसेरी कल्चर का प्रयोग होता है | एक पैकेट 200 ग्राम कल्चर 10 किग्रा. बीज उपचार के लिए पर्याप्त होता है | बाल्टी में 10 किग्रा. बीज डालकर अच्छी प्रकार मिला दिया जाता है ताकि सभी बीजों पर कल्चर लग जायें | इस प्रकार राइजोबियम कल्चर से सने हुए बीजों को कुछ देर बाद छाया में सुखा लेना चाहिए | पी.एस.बी. कल्चर का प्रयोग अवश्य करें |
सावधानी :
राइजोबियम कल्चर से बीज को उपचारित करने से बाद धुप में नहीं सुखाना चाहिए ओंर जहाँ तक सम्भव हो सके, बीज उपचार दोपहर के बाद करना चाहिए ताकि बीज शाम को ही अथवा दुसरे दिन प्रातः बोया जा सकें |
चने की बुआई इस तरह करें :
असिंचित दशा में चने की बुआई अक्टूबर के द्वितीय अथवा तृतीय सप्ताह तक आवश्यक कर देनी चाहिए | सिंचित दशा में बुआई नवम्बर के द्वितीय साप्ताह तक तथा पछैती बुआई दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है | बुआई हल के पीछें कूंडो में 6-8 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए | कूंड से कूंड की दुरी असिंचित तथा पछैती दशा में बुआई में 30 सेमी. तथा सिंचित एवं काबर या मार भूमि में 45 सेमी. रखनी चाहिए |
खाद या उर्वरक का प्रयोग
सभी प्रजातियों के लिए 20 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस, 20 किग्रा. पोटाश एवं 20 किग्रा. गंधक का प्रयोग प्रति हेक्टेयर की दर से कूंडो में करना चाहिए | संस्तुति के आधार पर उर्वरक प्रयोग अधिक लाभकारी पाया गया है | असिंचित अथवा देर से बुआई की दशा में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का फूल आने के समय छिडकाव करें |
चने की फसल में सिंचाई :
- पहली सिंचाई शाखायें बनते समय (बुवाई के 45 – 60 दिन बाद) तथा दूसरी सिंचाई फली बनते समय देने से अधिक लाभ मिलता है |
- चना में फुल बनने की सक्रिय अवस्था में सिंचाई नहीं करनी चाहिए | इस समय सिंचाई करने पर फुल झड सकते हैं एवं अत्यधिक वानस्पतिक वृद्धि हो सकती है | रबी दलहन में हल्की सिंचाई (4 – 5 से.मी.) करनी चाहिए क्योंकि अधिक पानी देने से अनावश्यक वानस्पतिक वृद्धि होती है एवं दाने की उपज में कमी आती है |
- प्राय: चने की खेती असिंचित दशा में की जाती है | यदि पानी की सुविधा हो तो फली बनते समय एक सिंचाई अवश्य करें | चने की फसल में स्प्रिंकलर (बौछारी विधि) से सिंचाई करें |
शीर्ष शाखायें तोडना (खुटाई)
खेत में चना के पौधे जब लगभग 20 – 25 से.मी. के हों तब शाखाओं के ऊपरी भाग को आवश्यक तोड़ दें | एसा करने से पौधों में शाखाये अधिक निकलती हैं और चने में उपज अधिक प्राप्त होती अहि | चना की खटाई बुवाई के 30–40 दिनों के भीतर पूर्ण करें तथा 40 दिन बाद नहीं करनी चाहिए |
चने की फसल में लगने वाले मुख्य कीट
कटुआ कीट
इस कीट की भूरे रंग की सूडियां रात में निकल कर नये पौधों की जमीन की सतह से काट कर गिरा देती है | कटुआ कीट वानस्पतिक अवस्था में एक सुंडी प्रति मीटर तक आर्थिक क्षति पहुँचता है |
अर्द्धकुण्डलीकार कीट (सेमीलूपर)
इस कीट की सुड़ियाँ हरे रंग की होती है जो लूप बनाकर चलती है | सुड़ियाँ पत्तियों, कोमल टहनियों, कलियों, फूलों एवं फलियों को खाकर क्षति पहुँचती है | अर्द्धकुंडलीकार कीट फूल एवं फलियाँ बनते समय 2 सूडी प्रति 10 पौधें आर्थिक क्षति पहुँचाता है |
फली बेधक कीट :
इस कीट की सुड़ियाँ हरे अथवा भूरे रंग की होती है | सामान्यतयः पीठ पर लम्बी धारी तथा किनारे दोनों तरफ पतली लम्बी धारियाँ पायी जाती है | नवजात सुड़ियाँ प्रारम्भ में कोमल पत्तियों को खुरच कर खाती है तथा बाद में बड़ी होने पर फलियों में छेद बनाकर सिंर को अन्दर कर दोनों को खाती रहती है | एक सूडी अपने जीवन काल में 30-40 फलियों को प्रभावित कर सकती है | तीव्र प्रकोप की दशा में फलियां खोखली हो जाती है तथा उत्पादन बुरी तरह से प्रभावित होता है | फलीबेधक कीट फूल एवं फलियां बनते समय 2 छोटी अथवा 1 बड़ी सूडी प्रति 10 पौधा अथवा 4-5 नर पतंगे प्रति गंधपाश लगातार 2-3 दिन तक मिलने पर आर्थिक क्षति पहुँचाता है |
नियंत्रण के उपाए :
- गर्मी में (मई-जून) गहरी जुताई करनी चाहिए | समय से बुआई करनी चाहिए |
- खेत में जगह-जगह सुखी घास के छोटे-छोटे ढेर को रख देने से दिन में कटुआ कीट की सुड़ियाँ छिप जाती है जिसे प्रातः काल इकटठा कर नष्ट कर देना चाहिए |
- चने के साथ अलसी, सरसों, धनियाँ की सहफसली खेती करने से फली बेधक कीट से होने वाली क्षति कम हो जाती है |
- खेत के चारों ओर गेंदे के फूल को ट्रैप क्राप के रूप में प्रयोग करना चाहिए |
- एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में 50-60 बर्ड पर्चर लगाना चाहिए, जिस पर चिड़ियाँ बैठकर सुडियों को खा सके |
- फसल की निगरानी करते रहना चाहिए | फूल एवं फलियां बनते समय फली बेधक कीट के लिए 5 गंधपाश प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में लगाना चाहिए |
- यदि कीट का प्रकोप आर्थिक क्षति स्तर पार कर गया हो तो निम्नलिखित कीटनाशकों का प्रयोग करना चाहिए |
रासायनिक नियंत्रण
- कटुआ कीट के नियंत्रण हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर बुआई से पूर्व मिट्टी में मिलाना चाहिए |
- चने में फलीबेधक कीट के नियंत्रण हेतु एन.पी.वी. (एच) 250 एल. ई. प्रति हेक्टेयर लगभग 250-300 लीटर पानी में घोलकर सांयकाल छिडकाव करें |
- फलीबेधक कीट एवं अर्द्धकुण्डलीकार कीट के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित जैविक / रासायनिक कीटनाशकों में से किसी एक रसायन का बुरकाव अथवा 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करना चाहिए |
- बेसिलस थूरिन्जिएन्सिस (बी.टी) (कस्र्त्की) प्रजाति 1.0 किलोग्राम |
- एजाडिरैक्टिन 0.03 प्रतिशत डब्लू.एस.पी. 2.5-3.00 किलोग्राम |
- एन.पी.वी. आफ हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा 2 प्रतिशत ए.एस. 250-300 मिली.
खेत की निगरानी करते रहे | आवश्यकतानुसार ही दूसरा बुरकाव / छिडकाव 15 दिन के अन्तराल पर करें | एक कीटनाशी को दो बार प्रयोग न करें |
चने की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग :
जड़ सडन :
बुआई के 15-20 दिन बाद पौधा सूखने लगता है | पौधे को उखाड़ कर देखने पर तने पर रुई के समान फफूंदी लिपटी हुई दिखाई देती है | इसे अगेती जड़ सडन करते है | इस रोग का प्रकोप अक्टूबर से नवम्बर तक होता है | पछेती जड़ सडन में पौधे का तना काला होकर सड़ जाता है तथा तोड़ने पर आसानी से टूट जाता है | इस रोग का प्रकोप फरवरी एवं मार्च में अधिक होता है |
उकठा :
इस रोग में पौधे धीरे-धीरे मुरझाकर सुख जाते है | पौधे को उखाड़ कर देखने पर उसकी मुख्य जड़ एवं उसकी शाखायें सही सलामत होती है | छिलका भूरा रंग का हो जाता है तथा जड़ को चीर कर देखें तो उसके अन्दर भूरे रंग की धारियां दिखाई देती है | उकठा का प्रकोप पौधे के किसी भी अवस्था में हो सकता है |
एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा रोग :
इस रोग में पत्तियों एवं फलियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है | अनुकूल परिस्थिति में धब्बे आपस में मिल जाते है जिससे पूरी पत्ती झुलस जाती है |
रोग नियंत्रण के उपाय :
शस्य क्रियायें
- गर्मियों में मिट्टी पलट हल से जुताई करने से मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में सहायता मिलती है |
- जिस खेत में प्रायः उकठा लगता हो तो यथा सम्भव उस खेत में 3-4 वर्ष तक चने की फसल नहीं लेनी चाहिए |
- अगेती जड़ सडन से बचाव हेतु नवम्बर के द्वितीय सप्ताह में बुआई करनी चाहिए |
- उकठा से बचाव हेतु अवरोधी प्रजाति की बुआई करना चाहिए |
बीज उपचार :
बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत + कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत (2:1) 3.0 ग्राम अथवा ट्राइकोडरमा 4.0 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से शोधित कर बुआई करना चाहिए |
भूमि उपचार :
भूमि जनित एवं बीज जनित रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैवकवक नाशी) ट्राइकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी. अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा, सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का छीटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से चना के बीज / भूमि जनित रोगों का नियंत्रण हो जाता है |
पर्णीय उपचार :
एस्कोकाइटा पत्ती धब्बे रोग के नियंत्रण हेतु मैकोजेब 75 प्रतिशत डब्लू.पी. 2.0 किग्रा. अथवा कापर अक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू.पी की 3.0 किग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 500-600 लीटर पानी घोलकर छिडकाव करना चाहिए |
चने की फसल में प्रमुख खरपतवार :
बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील, हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी, जंगली गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि |
नियंत्रण के उपाय :
खरपतवारनाशी रसायन द्वारा खरपतवार नियंत्रण करने हेतु फ्लूक्लोरैलीन 45 प्रतिशत ई.सी. की 2.2 ली. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त पहले मिट्टी में मिलान चाहिए | अथवा पेंडीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी. की 3.30 लीटर अथवा एलाक्लोर 50 प्रतिशत ई.सी. की 4.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर उरोक्तानुसार पानी में घोलकर फ्लैट फैन / नाजिल से बुआई के 2-3 दिन के अन्दर समान रूप से छिडकाव करें | क्यूजालोफोप-इथाइल 5 प्रतिशत ई.सी. की 2.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के 20-30 दिनों बाद करने पर सकरी पत्ती वाले खरपतवारों को नियंत्रण कर सकते है | अतः बुआई से 2-3 दिनों के अन्दर पेंडीमेथलीन एवं 20-30 दिनों बाद क्यूजालोफोप-इथाइल का प्रयोग कर सभी प्रकार के खरपतवारों को नियंत्रित कर सकते है | यदि खरपतवारनाशी रसायन का प्रयोग न किया गया हो तो खुरपी से निराई कर खरपतवारों का नियंत्रण करना चाहिए |
कटाई, मड़ाई एवं भण्डारण
चना की फसल की कटाई विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु, तापमान, आर्द्रता एवं दानों में नमी के अनुसार विभिन्न समयों पर होती है।
- व फली से दाना निकालकर दांत से काटा जाए और कट की आवाज आए, तब समझना चाहिए कि चना की फसल कटाई के लिए तैयार हैं
- व चना के पौधों की पत्तियां हल्की पीली अथवा हल्की भूरी हो जाती है, या झड़ जाती है तब फसल की कआई करना चाहिये।
- व फसल के अधिक पककर सूख जाने से कटाई के समय फलियाँ टूटकर खेत में गिरने लगती है, जिससे काफी नुकसान होता है। समय से पहले कटाई करने से अधिक आर्द्रता की स्थिति में अंकुरण क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। काटी गयी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके खलिहान में 4-5 दिनों तक सुखाकर मड़ाई की जाती है।
- व मड़ाई थ्रेसर से या फिर बैलों या ट्रैक्टर को पौधों के ऊपर चलाकर की जाती है।
टूटे-फूटे, सिकुडत्रे दाने वाले रोग ग्रसित बीज व खरपतवार भूसे और दानें का पंखों या प्राकृतिक हवा से अलग कर बोरों में भर कर रखे । भण्डारण से पूर्व बीजों को फैलाकर सुखाना चाहिये। भण्डारण के लिए चना के दानों में लगभग 10-12 प्रतिशत नमीं होनी घुन से चना को काफी क्षति पहुंचती है, अतः बन्द गोदामों या कुठलों आदि में चना का भण्डारण करना चाहिए। साबुतदानों की अपेक्षा दाल बनाकर भण्डारण करने पर घुन से क्षति कम होती है। साफ सुथरें नमी रहित भण्डारण ग्रह में जूट की बोरियाँ या लोहे की टंकियों में भरकर रखना चाहिये।