आत्मघाती टर्की, दबंग इज़रायल और बेपानी फिलिस्तीन
( प्रख्यात पानी कार्यकर्ता श्री राजेन्द्र सिंह के वैश्विक जल अनुभवों पर आधारित एक शृंखला )
आज टर्की-सीरिया-इराक विवाद ने शिया-सुन्नी और आतंकवादी त्रासदी का रूप भले ही ले लिया हो, शुरुआती विवाद तो जल बंटवारा ही रहा है। टर्की कहता है कि अधिक योगदान करने वाले को अधिक पानी लेने का हक है। सीरिया और इराक कह रहे हैं कि उनकी ज़रूरत ज्यादा है। अतः उन्हे उनकी ज़रूरत के हिसाब से पानी मिलना चाहिए। टर्की का दावा है कि इफरीटिस नदी में आने वाले कुल पानी में 88.7 प्रतिशत योगदान तो अकेले उसका ही है। वह तो कुल 43 प्रतिशत पानी ही मांग रहा है।
गौर करने की बात है कि इफरीटिस के प्रवाह में सीरिया का योगदान 11.3 प्रतिशत और इराक का शून्य है, जबकि पानी की कमी वाले देश होने के कारण सीरिया, इफरीटिस के पानी में 22 प्रतिशत और इराक 43 प्रतिशत हिस्सेदारी चाहता है। गौर करने की बात यह भी है कि सीरिया और इराक में पानी की कमी का कारण तो आखिरकार टर्की द्वारा इफरीटिस और टिग्रिस पर बनाये बांध ही हैं। किंतु टर्की इस तथ्य की उपेक्षा करता है। वह सीरिया और इराक की मांग को अनुचित बताकर उसे हमेशा अस्वीकार करता रहा है।
अब देखिए कि नतीजा क्या है ?
सीरिया में जब तक इफरीटिस का प्रवाह कायम था, सीरिया में रेगिस्तान के फैलाव की गति उतनी नहीं थी। इफरीटिस के सूखने के बाद रेत उड़कर सीरिया के खेतों पर बैठनी ही थी, सो बैठी। नतीजा, तेजी से फैलते रेगिस्तान के रूप में सामने आया। सीरिया-इराक का पानी रोकते वक्त, टर्की ने यह नहीं सोचा होगा कि यह आफत पलटकर उसके माथे भी आयेगी। रेगिस्तान का फैलाव ने खुद संयुक्त राष्ट्र संघ को इतना चिंतित किया कि उसने रेगिस्तान रोकने की उच्च स्तरीय मशविरा बैठक को टर्की में ही आयोजित किया।
दरअसल, टर्की यह समझने में असमर्थ रहा कि जब तक लोगों को अपनी धरती और राष्ट्र से प्रेम रहता है, संकट चाहे जलवायु परिवर्तन का हो, आजीविका का अथवा आतंकवाद का, वह ज्यादा समय टिक नहीं सकता।
कोई दूसरा-तीसरा बाहर से आकर किसी देश में आतंक पैदा नहीं कर सकता। आतंक, सदैव राष्ट्रप्रेम की कमी के कारण ही पैर फैला पाता है। आतंकवाद से दुष्प्रभावित सभी क्षेत्रों में यही हुआ है, इराक में और टर्की में भी। इफरीटिस नदी के तीनों देशों में सत्ता ने जिस तरह प्रकृति और इंसान को नियंत्रित करने की कोशिश की, उसका दुष्परिणाम तो आना ही था। वह प्रकृति और मानव के विद्रोह के रूप में सामने आया।
यदि हम इफरीटिस में 17.3 अरब क्युबिक मीटर जल की उपलब्धता आंकडे़ देखें तो संबंधित तीन देशों की मांग की पूर्ति संभव नहीं दिखती। इस मांग-आपूर्ति के असंतुलन से तीनों देशों के भीतर तनाव बढ़ना ही था, सो बढ़ा। दूसरी ओर सीरिया विस्थापितों द्वारा वाया टर्की, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन जाने की प्रक्रिया ने पूरे रास्ते को खटास से भर दिया। टर्की और इराक के लोगों द्वारा सीरिया के विस्थापितों के घरों और ज़मीनों पर कब्जे की हवस ने पूरा माहौल ही तनाव और हिंसा से भर दिया। इस हवस ने हिंसा को टर्की में भी पैर पसारने का मौका दिया। जिन्हे उजाड़ा था, वे ही सिर पर आकर बैठ गये।
टर्की के महानिदेशक प्रो. सांधी ने एक सभा में कहा – ”हम तो रिफ्यूजी होस्ट कन्ट्री हैं, बजट का बहुत बड़ा हिस्सा तो शरणार्थिंयों की खातिर खर्च हो जाता है।”
अब कोई टर्की से पूछे कि सीरिया और इराक में शरणार्थी किसने पैदा किए ?
टर्की द्वारा इफरीटिस और टिग्रिस पर बांधों ने ही तो। टर्की ने ही तो यह आत्मघाती शुरुआत की।
प्र. – मैने ‘डेमोक्रेटिक’ अखबार में सोफिया की रिपोर्ट पढ़ी। उसमें लिखा था कि 15 जुलाई, 2016 को टर्की सैनिकों ने हैलीकाॅप्टर और फाइटर जेट विमानों से हमले किए। अंकारा और इस्तानबुल की अपनी गलियों में ही टैंक उतार दिए। पार्लियामेंट की इमारत पर बम फेंका। इस कार्रवाई में 2000 घायल हुए और 300 लोगों की मौत हुई। स्थानीय संगठन, हिज़मत के सूफी संस्थापक गिलान ने इसे राष्ट्र के इस्लामीकरण की कार्रवाई के तौर देखा। क्या गिलान का नजरिया आपको उचित मालूम होता है?
उ. – हां, यह सही है। जो मुद्दा असलियत में पानी का था, राइटिस्ट चालों ने उसे सांपद्रायिक बना दिया। इसी का नतीजा है कि टर्की आज खुद भी एक अस्थिर देश है। आप देखिए कि शिया-सुन्नी तनाव की आंच सिर्फ इफरीटिस के देशों तक सीमित नहीं रही, यह जर्मनी भी पहुंची। जनता ने विरोध किया तो चासंलर को बदलना पड़ा। जर्मनी के हनोवर में पिछले दो साल में चार बार तनाव हुआ। मुझे भी रिफ्यूजी लोगों से मिलने में बहुत दिक्कत हुई।
हमें यह बार-बार याद करने की ज़रूरत है कि दुनिया में फैली इस अशांति की जड़ में कहीं न कहीं पानी है। अब आप फिलिस्तीन को ले लीजिए। फिलिस्तीन, पानी की कमी वाला देश है। फिलिस्तीन के पश्चिमी तटों पर एक व्यक्ति को एक दिन में मात्र 70 लीटर पानी ही उपलब्ध है, जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के हिसाब से काफी कम है।
(एक व्यक्ति को प्रति दिन कितना पानी चाहिए; इसके आकलन के अलग-अलग आधार होते हैं। आप गांव में रहते हैं या शहर में ? शहर में तो आपका शहर सीवेज पाइप वाला है या बिना सीवेज पाइप वाला। यदि आप बिना सीवेज पाइप वाले छोटे शहर के बासिंदे हैं तो भारत में आपका काम 70 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन में भी चल सकता है। सीवेज वाले शहरों में न्यूनतम ज़रूरत 135 से 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन की उपलब्धता होनी चाहिए। भारत सरकार का ऐसा कायदा है। आप किसी महानगर में कार और किचन गार्डन और बाथ टैंक के साथ रहते हैं, तो यह ज़रूरत और भी हो सकती है। – प्रस्तोता)
प्र.- फिलिस्तीन में कुदरती ऐसा है या जल संकट के और कारण हैं ?
उ. – न न, फिलीस्तीन में पानी का यह संकट कुदरती नहीं है। हालांकि फिलिस्तीन की सरकार, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, यहां तक की वहां का साहित्य भी कहता तो यही है कि फिलिस्तीन का जल संकट, क्षेत्रीय जलवायु की देन है। असल में फिलिस्तीन का जल संकट, इज़रायली किबुत्जों द्वारा फिलिस्तीन के जल स्त्रोतों पर नियंत्रण के कारण है।
फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के साझे स्त्रोतों को जाकर देखिए। उनका 85 प्रतिशत पानी इज़रायली ही उपयोग कर रहे हैं। उन्होने आॅक्युपाइड पैलस्टिन टेरीटरी (ओपीटी) के इलाके के लोगों को जलापूर्ति के लिए, इज़रायल पर निर्भर रहने को मज़बूर कर दिया है। क्या अन्यायपूर्ण चित्र है ! एक ओर देखिए तो ग्रामीण फिलिस्तीनियों को बहता पानी नसीब तक नहीं है। दूसरी ओर फिलिस्तीन में बाहर से आकर बसे इज़रायलियों के पास बड़े-बडे़ फार्म हैं, हरे-भरे गार्डन हैं और स्वीमिंग पूल हैं। सिंचाई हेतु पर्याप्त पानी है। दोहन के लिए मशीने हैं।
अब आप ही बताइये कि फिलिस्तीन का जल संकट, कुदरती है या मैन मेड ? तिस पर हालात ये हैं कि फिलिस्तीन कुछ नहीं कर सकता। क्यों ? क्योंकि इज़रायल एक दबंग देश है।
इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच एक समझौता हुआ था ‘ओस्लो एकाॅर्ड’। इस एकाॅर्ड के मुताबिक, फिलिस्तीन के पश्चिमी तट के जल स्त्रोतों में 80 प्रतिशत पर इज़रायल का नियंत्रण रहेगा। यह समझौता अस्थाई था। किंतु इस समझौते को हुए आज 20 साल हो गये। आज फिलिस्तीनियों की तुलना में इज़यरायली लोग चार गुने अधिक पानी का उपभोग कर रहे हैं, बावजू़द इसके फिलिस्तीन कुछ नहीं कर पा रहा है। यह फिलिस्तीन की बेबसी नहीं है तो और क्या है ?
अभी पिछली जुलाई के मध्य में अमेरिकी राष्ट्रपति श्रीमान ट्रंप के दखल से एक द्विपक्षीय समझौता हुआ भी तो आप देखेंगे कि यह महज् एक काॅमर्शियल डील है। यह समझौता इज़रायल को किसी भी तरह बाध्य नहीं करता कि वह पश्चिमी तटीय फिलिस्तीन के जल संकट के निदान के लिए कुछ आवश्यक ढांचागत उपाय करे। यह समझौता, फिलिस्तीन प्राधिकरण को सिर्फ एक छूट देता है कि वह चाहे तो इज़रायल से 32 मिलियन क्युबिक मीटर तक पानी खरीद सकता है। इसमें से 22 मिलियन क्युबिक पश्चिमी तटीय इलाके को 3.3 सिकिल प्रति क्युबिक मीटर के हिसाब से मिलेगा। शेष 10 मिलियन क्युबिक मीटर गाज़ा पट्टी के लिए 3.2 सिकिल प्रति क्युबिक मीटर की दर से। 3.3 सिकिल यानी 0.9 डाॅलर।
यह सब देख-सुनकर मैं बहुत दुःखी हुआ।
यदि आपको कभी फिलिस्तीनियों से मिलने का मौका मिले, तो आप पायेंगे कि वे दिल के अच्छे हैं। लेकिन वे जो पानी पी रहे हैं, वह विषैली अशुद्धियों से भरा हुआ है। वे किडनी में पथरी जैसी कई जलजनित बीमारियों के शिकार हैं। उनका ज्यादातर पैसा, समय और ऊर्जा इलाज कराने में जा रहे हैं। फिलिस्तीनियों के पास ज़मीने हैं, लेकिन वे इतनी सूखी और रेगिस्तानी हैं कि वे उनमें कम पानी की फसलें भी नहीं उगा सकते। वे मांसाहारी हैं, लेकिन मांस उत्पादन को भी तो पानी चाहिए। यही वजह है कि फिलिस्तीनी, एक दुःखी खानाबदोश की ज़िंदगी जीने को मज़बूर हैं। वे किसी तरह अपने ऊंट और दूसरे मवेशियों के साथ घुमक्कड़ी करके अपना जीवन चलाते हैं। पहले मवेशी को बेचकर, कुछ हासिल हो जाता था। फिलिस्तीनी कहते हैं कि अब तो वह समय भी नहीं रहा।
फिलिस्तीन सरकार ने सामाजिक और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए ज़रूर कुछ किया है। किंतु वह अपर्याप्त है। मुझे तो ज्यादातर फिलिस्तीनी असहाय ही दिखे। खानाबदोश फिलिस्तीनियों को खाद्य सुरक्षा और जल सुरक्षा की कितनी ज़रूरत है; यह बात आप इसी से समझ सकते हैं कि अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए वे कभी-कभी लूट भी करने लगे हैं। मज़बूरी में उपजी इस नई हिंसात्मक प्रवृति के कारण वे कभी-कभी सीरिया सुन्नी और फिलिस्तीनी शिया के बीच संघर्ष का हिस्सा भी बन जाते हैं। किंतु क्या इस झगडे़ की उपज वाकई साप्रंदायिक कारणों से हुई है ? हमें यह सवाल बार-बार अपने से पूछना चाहिए।
वहां जाकर मुझे तो जो पता चला, वह तो यह है कि शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो कि जब किसी न किसी इज़रायली और फिलिस्तीनी के बीच पानी को लेकर मारपीट न होती हो। किंतु दोनो देशों की सरकारें आपसी जल विवाद के त्वरित समाधान के लिए कोई संजीदगी नहीं दिखा रही, क्यों ? क्योंकि न तो दोनो देशों की सरकारें एक-दूसरे पर भरोसा करती हैं और न ही लोग। अतः सबसे पहले ज़रूरी है कि दोनो देश की सरकारें और लोग आपस में सकारात्मक संवाद के मौके बढ़ायें। सकारात्मक संवाद बढ़ने से ही विश्वास बढ़ता है। विश्वास के बिना फिलिस्तीन के जल संकट का कोई समाधान नहीं निकल सकता।
जब सकारात्मक संवाद शुरु होगा, तो पानी इंजीनियरिंग, तकनीक और अनुशासित उपयोग के मामले में फिलिस्तीन को सिखाने के लिए इज़रायल के पास बहुत कुछ है। फिलिस्तीन उससे सीख सकता है। इसी साझी सकारात्मकता से इस क्षेत्र में जल संतुलन कायम होगा। इसी से इस क्षेत्र में शांति बहाल होगी, वरना् पानी के लिए विश्व युद्ध की भविष्यवाणी तो बहुत पहले की ही जा चुकी है।
प्र.- इससे पहले की आप बतायें कि इज़रायल के पास क्या है सिखाने लायक,मेरे मन में एक जिज्ञासा है। आप इतने देश गये। आपको भाषा की दिक्कत नहीं आई ?
उ. – नहीं, वैसे दूसरों को समझाने लायक इंग्लिश तो मैं बोल लेता हूं फिर भी यदि कहीं आवश्यकता हुई, ज्यादातर जगह मुझे ट्रांसलेटर मुहैया करा दिए जाते है।……. और फिर मैं वहां कोई आम सभाओं को संबोधित करने तो जाता नहीं हूं। मुझे विदेश में ज्यादातर जगह, शासकीय-प्रशासकीय अफसरों, नेताओं अथवा समाजिक-पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं के बीच बोलने के लिए बुलाया जाता है। व्यक्तिगत बातचीत में हिंदी-अंग्रेज़ी के अलावा दूसरी भाषा का व्यक्ति से बात करने की ज़रूरत हुई, तो कोई न कोई मदद कर ही देता है।………..
लेखक: अरुण तिवारी
आगे की बातचीत श्रृंखला के भाग – चार में जारी…….