इन कृषि मशीनों से कृषि को बनाये आसान और करें कृषि की लागत को कम

इन कृषि मशीनों से कृषि को बनाये आसान और करें कृषि की लागत को कम

कृषि मशीनों के प्रयोग से उत्पादकता को बढाया जा सकता है | भारत वर्ष में कुल जोत का लगभग 63% क्षेत्रफल वर्षा पर आधारित है जिससे 42 – 44 % खाधान्न उत्पादन की प्राप्ति होती है और लगभग 500 मिलियन (35 % आबादी) लोगों का पेट भरता है बारानी क्षेत्रों में येसी फसलें लेते है जो कम वर्ष या सिंचाई की स्थिति में उग सकें |

खेती की समस्याएं :

अपर्याप्त, अनिश्चित वर्षा तथा इसका असामान्य वितरण, वर्षा का देर से आना व जल्दी ख़त्म होना, फसल के दौरान लम्बी सूखा अवधि, मृदा में कम जलधारण क्षमता, कम मृदाउर्वरा, शक्ति, उन्नत तकनीक की कमी, पशुओं का कम उत्पादन व चारे की कमी, संसाधनों की कमी आदि |

धान, मक्का, कोंदों, राई, सरसों, मूंगफली एवं दलहनी फसलें उत्तर प्रदेश के बारानी क्षेत्रों में उगाते हैं | इन क्षेत्रों में पैदावार भी कम होती है | अधिक पैदावार लेने के लिए नमी संरक्षण, समय पर उर्वरक प्रयोग, समय से बुवाई, खरपतवार नियंत्रण, उचित भूमि उपयोग, जलागम प्रबंधन तथा बारानी खेत के अन्य तरीके अपनाना आवश्यक है | इसके अतिरिक्त आजकल अनेक उन्नत कृषि यंत्र शोध संस्थनों द्वारा विकसित किये गये हैं जिनके प्रयोग से किसानों को लाभ होता है तथा 12 – 34 % तक उत्पादन में वृधि होती है |

कृषि मशीनीकरण : मुख्य तकनिकी

फर्टीसीडड्रिल

फर्टीसीडड्रिल के प्रयोग से 20% तक बीज तथा 15 – 20 % तक उर्वरक की बचत होती है | फसल सघनता में 5 – 20% तक वृधि होती है | किसान की कुल आय में 30 – 50% तक बढ़ोत्तरी होती है | भूमि विकास, जुताई एवं खेती की तैयारी हेतु निम्नलिखित यंत्रों का उपयोग होता है |

जीरो टिलेज मशीन

जीरो टिलेज मशीनसे बगैर जुताई किए गेंहू व अन्य फसलों की बुवाई करते हैं | इस मशीन के प्रयोग से लगभग रु. 2000 – 3000 प्रति हेक्टेयर तक लागत में कमी आती है |

पशु चालित पटेला हैरो

पशु चालित पटेला हैरो ढेले तोड़ने, ठूंठ या घासपात इक्टठा करने, खेत को समतल करने हेतु बुवाई से पूर्व प्रयोग किया जाता है | इससे 58% खेत की तैयारी वाले खर्चे में कमी आती है, 20% श्रम की बचत होती है तथा 3 – 4% तक पैदावार में वृधि देशी हल से जुताई करने की तुलना में होती है |

ट्रैक्टर चालित डिस्क हैरो

ट्रैक्टर चालित डिस्क हैरो का उपयोग बगीचों, पेड़ों के बीच अच्छा होता है | इससे 40 % तक श्रम तथा 54% खेत की तैयारी की लागत कम आती है | पैदावार में 2% तक वृधि पुराने तरीके की तुलना में प्राप्त होती है |

डक – रुक कल्टीवेटर

डक – रुक कल्टीवेटर काली मिटटी कड़ी परत वाली भूमि में कम गहराई की जुताई करने में अच्छा कार्य करता है | इससे 30% श्रम की बचत, 35% परिचालन कीमत में कमी तथा 30% तक पैदावार में वृधि पशुचालित कल्टीवेटर की तुलना में होती है |

रोटावेटर

रोटावेटर से सीडबैड शुष्क व नमीयुक्त भूमि तैयार किया जाता है | इससे हरी खाद वाली फसलों एवं खेत में पड़े भूसा आदि को मिटटी में अच्छी तरह से मिलाया जा सकता है | इससे मिटटी भुरभुरी हो जाती है | इससे 60% श्रम की बचत होती है तथा ट्रैक्टर चालित हल की तुलना में 2% पैदावार बढ़ती है |

ट्रैक्टर चालित सबस्वायलर

ट्रैक्टर चालित सबस्वायलर भूमि की कड़ी परत को तोड़ने, मिटटी का ढीली करने तथा पानी को नीचे रिसने में मदद करता है | इससे छोटी – छोटी नाली भी बनाई जा सकती है जो की पानी के निकास के लिए प्रयोग हो सकती है | इसके उपयोग से 30% तक पैदावार में वृधि हो सकती है क्योंकि गहरी जुताई से जल धारण क्षमता बढ़ जाती है |

धान – ड्रम सीडर

से धान के पहले से जमे हुए बीजों को सीधे रूप से लेवा खेत में बोया जाता है | इससे 20% तक बीज की बचत होती है तथा हाथ से खरपतवार निकालने में पंक्तियों में बुवाई के कारण मदद मिलती है |

पशुचालित प्लान्टर, ट्रैक्टर चालित फर्टीसीडड्रिल, ट्रैक्टर चालित धान बुवाई यंत्र, बहुफसली सीडड्रिल एवं प्लान्टर, मूंगफली खुदाई यंत्र, मूंगफली थ्रैसर, मूंगफली दाना निकालने का यंत्र, मक्का छिलाई यंत्र, सूरजमुखी थ्रैसर, कम्बाइनड हार्वेस्टर आदि नविन यंत्र विकसित किये गये है जिन्हें प्रयोग कर कृषि उत्पादन में वृधि की जा सकती है |

किसान भाई अधिक उपज के लिए लगाएं मिर्च की सदाबहार किस्में

किसान भाई अधिक उपज के लिए लगाएं मिर्च की सदाबहार किस्में

मिर्च की सदाबहार किस्में :-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान से विकसित पूसा सदाबहार किस्म के तैयार होने में मात्र 60 से 70 दिनों का समय लगता है। मिर्च की यह किस्म एक हेक्टेयर में 40 कुंटल तक की पैदावार देती है, जो मिर्च की किसी भी किस्म से अधिक है। मौजूदा समय में किसान इस किस्म की नर्सरी तैयार कर सकते हैं।

भारत के पूसा से विकसित की गई मिर्च की पूसा सदाबहार किस्म देश के किसी भी हिस्से में उगाई जा सकती है। पूसा सदाबदार मिर्च सबसे खास मानी जाती है। इस किस्म की बुवाई पूरे भारत में की जाती है, इसकी नर्सरी जून से जुलाई माह तक तैयार की जाती है। यह किस्म एक हेक्टेयर में करीब 40 कुंतल की पैदावार देती है।

पूसा सदाबहार किस्म की मिर्च छह से आठ सेमी. लंबी होती है और इस किस्म से करीब एक गुच्छे में 12 से 14 मिर्च पैदा होती हैं। यह किस्म रोपाई के 60 दिन बाद तैयार हो जाती है। इस किस्म की खेती में एक हेक्टेयर खेत में 150 ग्राम बीज की ज़रूरत पड़ती है।

खरपतवार एवं कीट नियंत्रण


पूसा सदाबहार मिर्च की नर्सरी तैयार करने के बाद सबसे ज़रूरी होता है फसल में । फसलों बोने के 25 से 30 दिनों के बाद खेत में अनावश्यक तौर पर उगे खरपतवार को हटाना बेहद ज़रूरी होता है। इस किस्म में फल छेदक, थ्रिप्स और माहू जैसे कीट का खतरा रहता है। कीटों के अधिक प्रभाव से फसल को बचाने के लिए 15 ग्राम एसीफेट या 10 एमएल इमीडाक्लोप्रिड दवा को 15 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।

मिर्च की फसल में रोग

फसल में मोजेक बहुत ज्यादा लगता है , जिसे हम लीफ कर्ल के नाम से पुकारते है ,यह मोजेक वाइट फलाई सफ़ेद मख्खी से फैलता है ,इसके नियंत्रण केडाइथेनियम ४५ अथवा  डाइथेनियम जेड ७८ तथा मेटा सिसटक १ लीटर प्रति हेक्टर के हिसाब से खड़ी फसल  में छिडकाव करना चाहिए इसके बचाव के लिए लगातार१० से १५ दिन पर छिडकाव करते रहना चाहिए जिससे की हमारी फसल अच्छी पैदावार दे सके

मिर्च उत्पादन की उन्नत तकनीक जानने के लिए क्लिक करें

सोयाबीन के विपुल उत्पादन हेतु जानें उर्वरक, खरपतवार एवं कीट नियंत्रण किसान भाई  किस प्रकार करें

सोयाबीन की खेती में अधिक उत्पादन के लिए फसल में संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करना उचित रहता है | सोयाबीन की फसल को कीट एवं रोगों से बचाकर रखना चाहिए | नीचे सोयाबीन की अच्छी उपज के लिए उर्वरक प्रवंधन एवं कीट रोग से बचाब के लिए सुझाव दिए गए हैं |

संतुलित उर्वरक प्रबंधन

  • उवर्रक प्रबंधन के अंतर्गत रसायनिक उर्वरकों का उपयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही किया जाना सर्वथा उचित होता है ।
  • रसायनिक उर्वरकों के साथ नाडेप खाद, गोबर खाद, कार्बनिक संसाधनों का अधिकतम (10-20 टन/हे.) या वर्मी कम्पोस्ट 5 टन/हे. उपयोग करें ।
  • संतुलित रसायनिक उर्वरक प्रबंधन के अन्र्तगत संतुलित मात्रा 20:60 – 80:40:20 (नत्रजन: स्फुर: पोटाश: सल्फर) का उपयोग करें ।
  • संस्तुत मात्रा खेत में अंतिम जुताई से पूर्व डालकर भलीभाँति मिट्टी में मिला देंवे ।
  • नत्रजन की पूर्ति हेतु आवश्यकता अनुरूप 50 किलोग्राम यूरिया का उपयोग अंकुरण पश्चात 7 दिन से डोरे के साथ डाले ।

जस्ता एवं गंधक की पूर्ति:-

अनुशंसित खाद एवं उर्वरक की मात्रा के साथ जिंक सल्फेट 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर मिट्टी परीक्षण के अनुसार डालें । 2. गंधक युक्त उर्वरक (सिंगल सुपर फास्फेट) का उपयोग अधिक लाभकारी होगा । सुपर फास्फेट उपयोग न कर पाने की दशा में जिप्सम का उपयोग 2.50 क्वि. प्रति हैक्टर की दर से करना लाभकारी है । इसके साथ ही अन्य गंधक युक्त उर्वरकों का उपयोग किया जा सकता है ।

किसान भाई आप अपने सोयाबीन के फसल के लिए उर्वरक जरुरी है ,तथा यह भी मालूम होना चाहिए की फसल में कितना उर्वरक तथा कौन – कौन सा उर्वरक डाला जाये |

सोयाबीन फसल में उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा

पोषक तत्वका विवरण (किलोग्राम/हे.) विकल्प 1 विकल्प 2 विकल्प 3
उर्वरक का नाम मात्र

(कि.ग्रा./हे. )

उर्वरक का नाम मात्र

(कि.ग्रा./हे. )

उर्वरक का नाम मात्र

(कि.ग्रा./हे. )

नत्रजन 20 यूरिया 44 डी.ए.पी. 130 एन.पी.के. 200
फास्फोरस 60 – 80 सुपर फास्फेट 400 – 500
पोटाश 40 म्यूरेट ऑफ़

पोटाश

67 म्यूरेट ऑफ़

पोटाश

67
सल्फर 20 जिप्सम 200 जिप्सम 200

 

सोयाबीन फसल के लिये अनुशंसित

क्र. खरपतवारनाशक रसायनिक नाम मात्रा/हे.
1. बोवनी के पूर्व उपयोगी (पीपीआई) फ्लुक्लोरेलीन 2.22 ली.
ट्राईफलूरेलिन 2.00 ली.
2. बोवनी के तुरन्त बाद (पीआई) मेटालोक्लोर 2.00 ली.
क्लोमाझोन 2.00 ली.
पेंडीमेथिलीन 3.25 ली.
डाइक्लोसुलम 26 ग्राम.
3. 15 – 20 दिन की फसल में उपयोगी इमेजाथायपर 1.00 ली.
किवजलोफाप 1.00 ली.
फेनाकसीफाप 0.75 ली.
हेलाक्सिफाप 135 मी.ली.
4. 10 – 15 दिन की फसल में उपयोगी क्लोरीम्यूरण 36 ग्राम

सोयाबीन फसल की सुरक्षा कीटों से कैसे करें

एकीकृत कीट नियंत्रण के उपाय अपनाएं जैसे निम् तेल व लाईट ट्रेप्स का उपयोग तथा प्रभावित एवं क्षतिग्रस्त पौधों को निकालकर खेत के बाहर मिटटी में दबा दें | कीटनाशकों के छिड़काव हेतु 7 – 8 टंकी (15 लीटर प्रति टंकी) प्रति बीघा या 500 ली./हे. के मान से पानी का उपयोग करना अतिआवश्यक है |

जैविक नियंत्रण – खेत में ‘T’ आकर की खूंटी 20 – 25 /हे. लगाएं | फेरोमोन ट्रेप 10 – 12 /हे. का उपयोग करें | लाईट ट्रेप का उपयोग कीटों के प्रकोप की जानकारी के लिए लगाएं |

रासायनिक नियंत्रण

क्र. कीट नियंत्रण
1. ब्लू बीटल क्लोरपायरीफास / क्यूनालफास 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर
2. गर्डल बीटल ट्राईजोफास 0.8 ली./हे. या इथोफेनप्राक्स 1 ली./हे. या थायोक्लोप्रीड 0.75 ली./हे.
3. तम्बाकू की इल्ली एवं रोयेंदार इल्ली क्लोरपायरीफास 20 इ.सी. 1.5 ली./हे. या इंडोक्साकार्ब 14.5 एस.पी. 0.5 ली./हे. या रेनेक्सीपायर 20 एस.सी. 0.10ली/हे.
4. सेमीलूपर इल्ली जैविक नियंत्रण हेतु बेसिलस थुरिजिएंसिस / ब्यूवेरिया बेसियामा 1 ली. या किलो / हे.
5. चने की इल्ली एवं तम्बाकू की इल्ली जैविक नियंत्रण – चने की इल्ली हेतु एच.ए.एन.पी.वी. 250 एल.ई./हे. तथा तम्बाकू की इल्ली हेतु एस.एल.एन.पी.वी. 250 एल.ई./हे. या बेसिलस थुरिजिएंसिस / ब्यूवेरिया बेसियामा 1 ली. या किलो / हे. का उपयोग करें |

 

रासायनिक नियंत्रण हेतु रेनेक्सीपायर 0.10ली/हे. या प्रोफेनोफास 1.25 ली./हे. या इंडोक्साकार्ब 0.5 ली./हे. या लेम्डा सायहेलोथ्रिन 0.3 ली./हे. या स्पीनोसेड 0.125 ली./हे. का उपयोग करें |

6. तना मक्खी या सफ़ेद मक्खी थायोमिथाक्सम 25 डब्लू जी. 100 ग्राम./हे.

 

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ऋण मोचन योजना के लिए किसानों के लिए जाने क्या है पात्रता

ऋण मोचन योजना के लिए किसानों के लिए जाने क्या है पात्रता

धारित भूमि के आधार पर पात्रता मापदण्ड क्या है ?
किसान के स्वामित्व वाली समस्त भूमि का कुल क्षेत्रफल 2 हेक्टेयर से अधिक नहीं होना चाहिए |
किसानों के लिये गये ऋणों के संदर्भ में पात्रता मानदण्ड क्या है ?
उत्तर प्रदेश में निवास करने वाले किसान जिनकी कृषि भूमि उत्तर प्रदेश में स्थित हो एवं उनके द्वारा उत्तर प्रदेश स्थित बैंक शाखा से फसली ऋण लिया गया हों |

किसान के स्वामित्व की विभिन्न भूमि का कुल क्षेत्रफल 02 हेक्टेयर से अधिक नहीं होगा |

येसा किसान जिसकी फसली ऋण की रिजर्व बैंक के दिशा – निर्देश के अनुसार प्राकृतिक आपदाओं के होने के कारण पुनसंरचना कर दी गयी हो, इस योजना के अन्तर्गत आच्छादित होगा |

सरकार द्वारा राजस्व अभिलेखों के आधार पर पट्टे पर दी गयी भूमि पर खेती करने के लिए किसान द्वारा लिया गया फसली ऋण |

ऋण प्राप्त करने की कट आफ डेट क्या है ?
एसे लघु एवं सीमान्त किसानों को जिनके द्वारा फसल ऋण दिनाक 31 मार्च 2016 या इसके पूर्व ऋण प्रदाता संस्थाओं से प्राप्त किया गया है |
अधिकतम कितनी धनराशि का ऋण मोचन प्रदान किया जाना है ?
राज्य सरकार द्ववारा रु. 1 लाख तक की धान राशि का ऋण मोचन प्रदान किया जायेगा |
 क्या मेरी ऋण मोचन की धनराशि में मूल धन राशि /मूल धनराशि एवं ब्याज सम्मिलित है ?
ऋण मोचन धनराशि की गणना के प्रयोजना हेतु दिनांक 31 मार्च, 2016 को बकाया (ब्याज सहित) से वित्तीय वर्ष 2016 -17 की अवधि में किसान द्वारा आहरित धान राशि या नई स्वीकृतियों पर विचार किये बिना वित्तीय वर्ष 2016 – 17 की अवधि (दिनांक 31 मार्च, 2016 के पश्चात् और दिनांक 31 मार्च, 2017 तक) में किसान से प्राप्त प्रतिभुगतान को घटा दिया जायेगा |
फसली ऋण मोचन योजनान्तर्गत ऋण मोचन हेतु कौन – कौन से दस्तावेज प्रस्तुत किये जाने होंगे ?
आधार कार्ड (यदि उपलब्ध हो), यदि यह उपलब्ध न हो तो किसान द्वारा इसे जागरूकता शिविरों के माध्यम से प्राप्त किया जाय|

जिला स्तरीय समिति एसे सभी किसानों की सूचि जिन्होंने सूचना पत्र प्राप्त किया है, लेकिन ‘आधार विवरण’ अंकन हेतु सहमति नहीं दी है , एसी सूची पोर्टल से प्राप्त करेगी |

जिला स्तारिय समिति निर्धारित दिशा निर्देशों के अनुसार उनकी अर्हता पर निर्णय लेगी | एसी अर्ह किसान पूर्व में प्रारम्भ की गयी प्रक्रिया के अनुसार तृतीय जागरूकता अभियान के अन्तर्गत लगे कैम्प में ऋण – मोचन विवरण पत्र प्राप्त करेंगे |

 किसानों द्वारा ग्राम एवं ब्लाक स्तर सर्वप्रथम किस्से सम्पर्क स्थापित किया जाय ?
किसान सर्वप्रथम संबंधित शाखा से संपर्क करें जिससे उनके द्वारा ऋण लिया गया है | कोइ शिकायत होने पर तहसील / जनपद स्तर पर नियंत्रण कक्ष स्थापित किये जा रहे है जिनके दूरभाष नम्बर जिला कृषि अधिकारी कार्यालय से प्राप्त किये जा सकते हैं |
यदि किसान उत्तर प्रदेश के बहार का निवासी है, लेकिन उसकी कृषि भूमि उत्तर प्रदेश स्थित बैंक से ऋण प्राप्त किया हो, तो क्या एसा किसान योजनान्तर्गत पात्र होगा ?
नहीं | एसे किसान ऋण मोचन हेतु पात्र नहीं होंगे |
 क्या कोइ किसान, जिसने विभिन्न बैंकों से रु. 1 लाख से कम फसली ऋण लिया है योजनान्तर्गत पात्र होगा ?
हाँ,

यदि किसान द्वार एक से अधिक बैंकों से विभिन्न फसलों हेतु विभिन्न कृषि भूमियों को बंधक रखे जाने के सापेक्ष ऋण लिया गया है, तो ऋण – मोचन अधिकतम 1 लाख रूपये की सीमा तक आनुपातिक रूप में ही अनुमन्य होगा |

 कृषि से सम्बद्ध कार्यकलापों का क्या तात्पर्य है ?
कृषि उत्पाद ऋण जिसमें वेयर हॉउस रिसीट | गैर – परम्परागत खेती जैसे : ग्रीनहॉउस फार्मिंग मत्स्य पालन हेतु दिये गये सावधि ऋण |

अधिक लाभ के लिए एकीकृत कृषि प्रणाली को अपनाएं किसान

एकीकृत कृषि प्रणाली:- देश में जहाँ चावल – गेंहू फसल प्रणाली को मूख्यताया अपनाया जाता है, भरपूर उत्पादकता प्राप्ति हेतु उन्नतशील अधिक उपज देने वाली विभिन्न प्रजातियों के चयन एवं सघन कृषि पद्धतियों के उपयोग के फलस्वरूप भूमिगत जल – स्तर में लगातार गिरावट हुई है | प्रदेश के मध्यभाग के 63% ट्यूबवेल का जल स्तर तीव्रगति से गिर गया है | ईएसआई के साथ – साथ उत्तरी भाग जो पहाड़ों के तराई का है, उसमें भी 9 प्रतिशत ट्यूबवेलों का जल स्तर अत्यधिक नीचे चला गया है |

इसके विपरीत उन क्षेत्रों के ट्यूबवेलों में जों नहरों के पास है, मृदाजल – स्तर में वृधि देखि गयी है जिसका प्रतिशत मात्र 28 है | मृदा जलस्तर में लागातार उत्तार चढ़ाव, पोषक तत्वों की कमी, खरपतवारों, रोग एवं अन्य के बुरे प्रभाव के फलस्वरूप आशानुरूप उपज प्राप्त करने हेतु सम्पूर्ण खर्च में 3 – 4% तक वृधि करना पड़ रहा है | ऐसी दशा में उत्पादकता में निरंतर वृधि बनाये रखना एक कठिन चुनौती है | मुख्य फसल प्रणाली की साथ – साथ अन्य कृषि आधारित उधोग अपनाने से भरपूर उपज के साथ से अधिक लाभकारी भी होता है | एसी पद्धति अपनाने से प्रक्षेत्र की उपलब्धियाँ निम्नलिखित है |

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  • मछली, मुर्गी एवं सुअर पालन करने से कुल रु. 79.064 / हे. प्राप्त हुआ जो चावल – गेंहू द्वारा प्राप्त धनराशि रु. 53.221 / हे. से 48.6% अधिक थी | इसके अतिरिक्त 500 दिनों का रोजगार भी मिला |
  • चावल – गेंहू फसल चक्र + मुर्गी पालन + डेयरी + सुअर + मच्छली + पापलर पेड़ द्वारा सर्वाधिक आय रु. 73.973/हे./वर्ष प्राप्त हुई जो की चावल – गेंहू प्रणाली से प्राप्त आय से 39 प्रतिशत अधिक है | इसके अतिरिक्त 483 दिन / हे./ वर्ष रोजगार भी प्राप्त हुआ |
  • चावल – गेंहू की अकेली खेती से जंहा प्रतिदिन रु. 190 मात्र प्राप्त हुआ वहीँ दूसरी ओर एकीकृत कृषि प्रणाली अपनाने से रु. 203 प्रतिदिन प्राप्त किया गया |
  • एकीकृत खेती से प्राप्त आय द्वारा उक्त किसानों ने 6 वर्ष में 07 हे. अतिरिक्त जमीन खरीद ली |
  • जल उत्पादकता की दृष्टि से चावल – गेंहू फसल प्रणाली र. 2.6 प्रति घनमीटर जबकि मछली + सुअर पालन से रु. 5.67 प्रति घनमीटर प्राप्त हुआ |
  • उक्त कृषकों ने अपने दुग्धशाला के पशुओं को चीनी मिलों से प्राप्त प्रेसमड को खिलाया, फलत: उत्पादकता एवं लाभ में वृधि हुई |
  • उक्त कृषकों ने सस्ते दर (रु. 2.39 प्रति किलो) से मछली आहार बनाने के अवयवों को खरीद कर रु. 6.50 प्रति किलो की दर से बेच कर लगभग 63 % लागत में कमी किया |
  • इस फसल – प्रणाली से प्राप्त आय – व्यय के आकड़ों से यह पता चला की देश के एसे क्षेत्रों में जहाँ उथले जल – स्तर एवं जल – मग्नता आदि की समस्या है, खाद्यान्न फसलों के साथ – साथ पशु, मुर्गी, मछली, सुअर तथा वानिकी वृक्षों की एकीकृत खेती अधिक लाभकारी होगी |

फसल चक्र अपनाने का महत्व एवं उससे होने वाले लाभ

फसल चक्र अपनाने का महत्व एवं उससे होने वाले लाभ

उपजाऊ भूमि का क्षरण, जीवांश की मत्रा में कमी, भूमि से लाभदायक सूक्षम जीवों की कमी, मित्र जीवों की संख्या में कमी, हानिकारक कीट पतंगों का बढ़ाव, खरपतवार की समस्या में बढ़ोत्तरी, जलधारण क्षमता में कमी, भूमि के भौतिक, रासायनिक गुणों में परिवर्तन, क्षारीयता में बढ़ोत्तरी, भूमिगत जल का प्रदुषण, कीटनाशियों का अधिक प्रयोग तथा नाशीजीवों में उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकाश, हमारे प्रदेश की सबसे लोकप्रिय फसल उत्पादक प्रणाली धान – गेंहू मृदा – उर्वरता के टिकाऊपन के खतरे को स्पष्ट आभार कराती प्रतीत हो रही है |

आज न तो केवल उत्पाद वृद्धि रुक गयी है बल्कि एक निश्चित मात्र में उत्पादन प्राप्त करने के लिए पहले की अपेक्षा न बहुत अधिक मात्र में उर्वरकों का प्रयोग करना पड़ रहा है क्योंकि भूमि में उर्वरक क्षमता उपयोग का ह्रास बढ़ गया है | इन सब विनाशकारी अनुभवों से बचने के लिए हमें फसल चक्र, फसल सघनता, के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश जरुरी हो जायेगी क्योंकि दलहनी फसलों से एक टिकाऊ फसल उत्पादन प्रक्रिया विकसित होती है |

दलहनी फसलें

अधिक मूल्यवान फसलों के साथ चुने गये फसल चक्रों में मुख्य दलहनी फसलें, चना, मात्र, मसूर, अरहर, उर्द, मूंग, लोबिया, राजमा, आदि का समावेश जरुरी हो गया है | आदिकाल से ही मानव अपने भरन पोषण हेतु अनेक प्रकार की फसले उगाता चला आ रहा है | जो फसलें मौसम के अनुसार भिन्न – भिन्न होती है |

सभ्यता के प्रारम्भ से ही किसी खेत में एक निश्चित फसल न उगाकर फसलों को अदल – बदल कर उगाने की परम्परा चली आ रही है | फसल उत्पादन की इसी परंपरा को फसल चक्र कहते हैं अर्थात किसी निश्चित क्षेत्र पर निश्चित अवधि के लिए भूमि की उर्वरता को बनाये रखने के उद्देश्य से फसलों को अदल – बदल कर उगाने की क्रिया को फसल चक्र कहते है |

मूलभूत सिद्धांत

अथवा किसी निश्चित क्षेत्रों में एक नियत अवधि में फसलों को इस क्रम में उगाया जाना की उर्वरा शक्ति का कम से कम ह्रास हो फसल चक्र कहलाता है | फसल चक्र के निर्धारण में कुछ मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखना जरुरी होता है जैसे अधिक खाद चाहने वाली फसलों के बाद कम खाद चाहने वाली फसलों का उत्पादन अधिक पानी चाहने वाली फसल के बाद कम पानी चाहने वाली फसल |

अधिक निराई गुडाई चाहने वाली फसल के बाद निराई गुडाई चाहने वाली फसल दलहनी फसलों के बाद अहदलनी फसलों का उत्पान अधिक मात्र में पोषक तत्व शोषण करने वाली फसल के बाद खेत को परती रखना, एक ही नाशी जीवों से प्रभावित होने वाली फसलों को लगातार नहीं उगाना, फसलों का समावेश स्थानीय बाजार की मांग के अनुरूप रखना चाहिए|

फसल का समावेश जलवायु तथा किसान की आर्थिक क्षमता के अनुरूप करना चाहिए | उथली जड़ वाली फसल की बाद गहरी जड़ वाली फसल को उगाना चाहिए उत्तर प्रदेश में कुछ प्रचलित फसल चक्र इस प्रकार है जैसे परती पर आधारित फसल चक्र है परती – गेंहू, परती – आलू, परती – सरसों, परती – धान, है हरी खाद पर आधारित फसल चक्र इसमें फसल उगाने के लिए हरी खाद का प्रयोग किया जाता है |

हरी खाद का प्रयोग

जैसे हरी खाद – गेंहू, हरी खाद – धान, हरी खाद – केला, हरी खाद – आलू, हरी खाद – गन्ना, आदि दलहनी फसलों पर आधारित फसल चक्र – मूंग – गेंहू, धान – चना, कपास – मटर – गेंहू, ज्वार – चना, बाजरा – चना, मूंगफली – अरहर, मूंग – गेंहू, धान – मटर, धान – मटर – गन्ना, मूंगफली – अरहर – गन्ना, मसूर – मेंथा, मटर – मेंथा |

अन्न की फसलों पर आधारित फसल चक्र मक्का – गेंहू, धान – गेंहू, ज्वार – गेंहू, बाजरा – गेंहू, गन्ना – गेंहू, धान – गन्ना – पेडी, मक्का – जौ, धान – बरसीम, चना – गेंहू, मक्का – उर्द – गेहूं सब्जी आधारित फसल चक्र भिण्डी – मटर, पालक – टमाटर, फूलगोभी + मूली – बंदगोभी + मूली, बैंगन + लौकी, टिंडा – आलू – मूली, करेला, भिण्डी – मूली – गोभी – तरोई, घुईया – शलजम – भिण्डी – गाजर, धान – आलू – टमाटर, धान – लहसुन – मिर्च, धान – आलू + लौकी इत्यादि है |

किसी खेत में लगातार एक ही फसल उगाने के कारण कम उपज प्राप्त होती है तथा भूमि की उर्वरता खराब होती है | फसल चक्र से मृदा उर्वरता बढ़ती है, भूमि में कार्बन – नाइट्रोजन के अनुपात में वृद्धि होती है | भूमि के पी.एच. तथा क्षारीयता में सुधार होता है | भूमि की संरचना में सुधार होता है | मृदा क्षरण की रोक थाम होती है |

फसलों का बिमारियों से बचाव होता है, कीटों का नियंत्रण होता है, खरपतवारों की रोकथाम होती है,, वर्ष भर आय प्राप्त होती रहती है, भूमि में विषाक्त पदार्थ एकत्र नहीं होने पते हैं | उर्वरक अवशेषों का पूर्ण उपयोग हो जाता है सीमित सिंचाई सुविधा का समुचित उपयोग हो जाता है |

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का फॉर्म कैसे प्राप्त करें? कहाँ कोन से कागजात के साथ जमा करें?

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का फॉर्म कैसे प्राप्त करें? कहाँ कोन से कागजात के साथ जमा करें?

 फार्म कहाँ से ले और कहाँ पर जमा करें

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (के लिए फॉर्म भरने के दो तरीके हैं।

  1. ऑफ लाइन (बैंक जाकर)
  2. दूसरा ऑनलाइन।

 

ऑफ लाइन आवेदन किस प्रकार करें

आपके नजदीक जो भी बैंक है उस बैंक में जाकर आप प्रधानमंत्री फसल बीमा का फॉर्म लेकर वहीं पर जमा कर दीजिए।

फॉर्म भरने के लिए क्या-क्या कागजात चाहिए ?

  1. आवेदक का एक फोटो
  2. किसान का आईडी कार्ड (पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर आईडी कार्ड, पासपोर्ट, आधार कार्ड)
  3. किसान का एड्रेस प्रूफ (ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर आईडी कार्ड, पासपोर्ट, आधार कार्ड)
  4. अगर खेत आपका खुद का है तो खेत का खसरा नंबर / खाता नंबर का पेपर जरूर साथ लें।
  5. खेत पर फसल बोई है, इसका प्रूफ। प्रूफ के तौर पर किसान पटवारी, सरपंच, प्रधान जैसे जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों से एक पत्र लिखवाकर जमा कर सकते हैं। हर राज्य में ये व्यवस्था अलग अलग है। नजदीकी बैंक जाकर इस बारे में ज्यादा जानकारी ले सकते हैं।
  6. अगर खेत बटाई या किराए पर लेकर फसल बोई गई है, तो खेत के असली मालिक के साथ करार की कॉपी की फोटोकॉपी साथ जरूर लें। इसमें खेत का खरसा नंबर / खाता नंबर जरूर साफ तौर पर लिखा होना चाहिए।
  7. अगर आप चाहते हैं कि फसल को नुकसान होने की स्थिति में पैसा सीधे आपके बैंक खाते में जाए, तो एक कैंसिल्ड चैक भी लगाना जरूरी होगा।

कुछ जरुरी बातें

  • फसल बोने के अधिकतम 10 दिनों के अंदर ही आपको प्रधानमंत्री बीमा फसल योजना का फॉर्म भरना जरूरी हैं।
  • फसल कटाई से लेकर अगले 14 दिनों तक अगर आपकी फसल को प्राकृतिक आपदा के कारण नुकसान होता है, तो भी आप इस बीमा योजना का लाभ उठा सकते हैं।
  • इस योजना में आपको फसल खराब होने पर तभी बीमा की रकम मिल सकेगी जब आपकी फसल किसी भी प्राकृतिक आपदा के ही कारण खराब हुई हो। जैसे औला, जलभराव, बाढ़, तूफान, तूफानी बरसात, जमीन धंसना इत्यादि।

अगर खेत किराए पर लिया है तो?

देश में करोड़ों ऐसे किसान हैं जो खेती के लिए खेत किराए पर लेते देते हैं। किराए (बटाई) पर खेत लेकर खेती करने वाले किसानों को भी इस योजना में शामिल किया गया है।

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उतरप्रदेश में 2 और 3 हार्सपावर के सोलर पम्प पर 75 प्रतिशत तथा 5 हार्सपावर के सोलर पम्प पर 50 प्रतिशत अनुदान योजना

उतरप्रदेश में 2 और 3 हार्सपावर के सोलर पम्प पर 75 प्रतिशत तथा 5 हार्सपावर के सोलर पम्प पर 50 प्रतिशत अनुदान योजना

उत्तर प्रदेश सरकार किसानों को दो हार्सपावर, तीन हार्सपावर और पांच हार्सपावर वाले सोलर पंप अनुदान दे रही है। इसमें दो और तीन हार्सपावर वाले पंपों पर 75 प्रतिशत और पांच हार्सपावर वाले सोलर पंप पर 50 प्रतिशत अनुदान लाभार्थी को दिया जा रहा है। प्रदेश के कृषि विभाग ने किसानों का रुझान सोलर पंपों की तरफ बढ़ता देख भारत सरकार से अधिक संख्या में सोलर पंप मुहैया करने की मांग की है।

अनुदान अनुमानित दर पर सोलर पंप लेने के लिए किसानों को पहले ऑनलाइन पंजीकरण कराना होगा। इसके साथ ही विकल्प देना होगा कि दो, तीन या पांच कितने हार्स पावर का पंप उसे चाहिए। यह योजना पहले पंजीकरण कराओ, पहले लाभ पाओ के सिद्धान्त पर किसानों को मुहैया कराई जाती है। सोलर पम्प के ऑनलाइन पंजीकृत कृषकों की विकास खण्डवार लक्ष्य के अनुसार सूची तैयार होती है। इसके बाद जनपदीय उप कृषि निदेशक द्वारा सत्यापन कराया जायेगा कि दो हार्स पावर के सोलर पम्प के लिए पंजीकृत किसान के पास चार इंच और तीन व पांच हार्स पावर सोलर पंप के लिए छह इंच क्रियाशील बोरिंग उपलब्ध है या नहीं।

सोलर पंप से किसानों को काफी लाभ मिल रहा है, जिन्होंने सोलर पंप लगाया है उनके खेत की सिंचाई में कोई दिक्कत नहीं आ रही है। इस योजना का लाभ कृषि विभाग में पंजीकृत किसानों को मिलेगा। इसके अलावा किसान को सोलर पंप या अन्य कृषि यंत्र को लगाने के लिए अलग से पंजीकरण कराना होगा क्योंकि अनुदान की राशी सीधे किसान के बैंक खाते में जाती है।

चयन प्रक्रिया

इसमें किसानों का चयन कृषि विभाग के द्वारा किया जाता हैं और टेक्निकल गाइड यूपीनेडा का रहता है। किसानों को इसका लाभ लेने के लिये ऑनलाइन किसान पंजीकरण कराना आवश्यक होता हैं। इसके बाद वो जिले के उपकृषि निदेशक के दफ्तर में सोलर पम्प लगवाने के लिये आवेदन कर सकता है। किसान को केवल अपने कृषक अंश का ड्राफ्ट सम्बन्धित फार्म के नाम का बनवा के कृषि विभाग में ही जमा करना होता है, तत्पश्चात उसके यहां सोलर पम्प लग जाता है।

किसानों को पंजीकरण कराने के लिए अपने साथ खतौनी, बैंक पासबुक और पहचान पत्र के साथ उनकी फोटोकॉपी ले जाकर अपने ब्लॉक आफिस से पंजीकरण करा सकता है। इसके बाद लाभार्थी का चयन हो जाने पर उसके द्वारा चुने गए सोलर वॉटर पंप को लगवाने के लिए उसे एक डिमांड ड्रफ्ट बनवा कर जमा करना होगा। जिसके बाद सोलर वॉटर पंप उसके खेत या बताई गई जगह पर कंपनी द्वारा लगा दिया जाएगा।

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“राष्‍ट्रीय डेयरी अवसंरचना योजना” परियोजना के लिए जाईका ओडीए ऋण सहायता

राष्‍ट्रीय डेयरी अवसंरचना योजना” परियोजना के लिए जाईका ओडीए ऋण सहायता

भारत 1998 से विश्‍व के दूध उत्‍पादक राष्‍ट्रों में पहले स्‍थान पर है तथा यहां विश्‍व की सबसे बड़ी गोपशु आबादी है। भारत में 1950-51 से लेकर 2014-15 के दौरान दूध उत्‍पादन 17 मिलियन टन से बढ़कर 146.31 मिलियन टन हो गया है। 2015-16 के दौरान दूध उत्‍पादन 155.49 मिलियन टन था।

देश में उत्‍पादित दूध का लगभग 54% घरेलू बाजार में विपणन के लिए अधिशेष है, जिसमें से मात्र 20.5% ही संगठित सेक्‍टर  द्वारा क्रय कर प्रसंस्‍कृत किया जाता है। अधिक दूध के उत्‍पादन व दुग्‍ध किसानों के हितार्थ, इस प्रतिशत हिस्‍सा को बढ़ाना होगा जिससे कि अधिकाधिक दुग्‍ध संगठित बाजार से लाभान्वित हो सके।

बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए (2021-22 तक 200-210 मिलियन एमटी तक होने का अनुमान है), देश को ग्राम स्‍तर पर, विशेष रूप से दूध की खरीद और उच्‍च मूल्‍य वाले दूध उत्‍पादों के उत्‍पादन के लिए अवसंरचना के उन्‍नयन की आवश्‍यकता है। लक्ष्‍य ग्रामीण दूध उत्‍पादकों की पहुंच बढ़ाकर संगठित दूध प्रसंस्‍करण तक पहुंचाने का है ताकि कार्य स्‍तर पर उत्‍पादकों की आय बढ़ सके।

राष्‍ट्रीय कार्य योजना का प्रारूप

पशुपालन, डेयरी और मत्‍स्‍यपालन विभाग ने डेयरी विकास के लिए राष्‍ट्रीय कार्य योजना का प्रारूप तैयार किया है जिसमें थोक मिल्‍क कूलिंग, प्रसंस्‍करण अवसंरचना, मूल्‍य संवर्धित उत्‍पाद (वीएपी), दूध इकट्टा करने के केंद्र/डेयरी सहकारिता सोसाइटियों का संवर्द्धन तथा बढ़े हुए दूध के हैडंलिंग की आवश्‍यकताआ को पूरा करने के लिए दूध ढुलाई सुविधा तथा विपणन अवसंरचना सहित दूध शीतन सुविधाओं का सृजन शामिल है।

इन्‍हीं कारणों से केन्‍द्र सरकार ने अगले पांच वर्षों तक किसानों की आय को दोगुना करने के  सरकार के लक्ष्‍य के अनुरूप “सहकारिताओं के माध्‍यम से डेयरी व्‍यवसाय-राष्‍ट्रीय डेयरी अवसंरचना योजना” के लिए जापान अंतर्राष्‍ट्रीय सहयोग एजेंसी (जाईका) से ऋण प्राप्‍त करने के लिए एक प्रस्‍ताव तैयार किया है। इस परियोजना का कुल परिव्‍यय 20,057 करोड़ रुपए है।

परियोजना के मुख्‍य लाभ, यथा, 1.28 लाख अतिरिक्‍त गांवों में 121.83 लाख अतिरिक्‍त दूध उत्‍पादकों को आच्‍छादित करना, ग्राम स्‍तर पर 524.20 लाख कि.ग्रा. दूध प्रतिदिन की दूध शीतन क्षमता का सृजन करने जिस हेतु ग्राम स्‍तर पर 1.05 लाख बल्‍क मिल्‍क कूलर स्‍थापित करना तथा 76.5 लाख कि.ग्रा. प्रतिदिन की क्षमता वाली दूध और दूध उत्‍पाद प्रससंस्‍कण अवसंरचना का सृजन करना है।

दूध उत्‍पाद संयंत्रों का नवीनीकरण

इसके अलावा परियोजना के तहत ऑपरेशन फल्‍ड के समय के जर्जर 20-30 वर्षों पहले बनाए गए पुराने दूध तथा दूध उत्‍पाद संयंत्रों का नवीनीकरण/विस्‍तार करेगा तथा मूल्‍य संवर्धित उत्‍पादों के लिए दूध और दूध उत्‍पाद संयंत्रों का भी सृजन करना है जिससे लगभग 160 लाख विद्यमान किसानों को लाभ होगा। समस्‍त योजना का क्रियान्‍वयन राष्‍ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के माध्‍यम से किया जाएगा। आर्थिक कार्य विभाग ने इस प्रस्‍ताव को जापान अंतर्राष्‍ट्रीय सहयोग एजेंसी (जाईका) हेतु सैद्धान्तिक सहमति भेज दी है।

जाईका मिशन ने 27 फरवरी से 03 मार्च, 2017 के दौरान भारत का दौरा किया। जीका मिशन की टिप्‍पणियों पर विचार-विमर्श करने के लिए श्री तातुमी कुनीतके की अध्‍यक्षता वाले  प्रतिनिधिमंडल के साथ 26 मई, 2017 को एक बैठक आयोजित की गई। मिशन की टिप्‍पणियों के अनुसार एनडीडीबी गरीबी उन्‍मूलन पर ध्‍यान केंद्रित करते हुए इस प्रस्‍ताव को आशोधित कर रहा है। इस कार्यक्रम से संबद्ध पद्धतियों की समय-सीमा के बारे में जीका प्रतिनिधि मंडल से विचार-विमर्श किया गया तथा गतिविधिवार चार्ट को अंतिम रूप दिया गया है। जाईका को शीघ्रातिशीघ्र मूल्‍यांकन प्रक्रिया प्रारंभ करनी है।

झींगा पालन किस प्रकार करें

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झींगा मछली पालन

झींगा एक सुस्वादु, पौष्टिक आहार के रूप में उपयोग में आने वाला जलीय प्राणी है | यह मछली की प्रजाति न होते हुए भी जल में रहने के कारण सामान्य बोल चाल में मछली ही समझा जाता है | इसका उप्तादन पूर्व में खारे पानी में (समुद्र) में ही संभव था | परन्तु वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम से अब मीठे पानी (तालाब) में भी इसका पालन किया जा रहा है | झींगा का पालन अकेले अथवा अन्य मछलियों (रेहू, कतला, मृगल ) के साथ किया जा सकता है | चूँकि झिंगा नीचे स्तर पर रहने वाला प्राणी है अत: इसके तालाब में कॉमन कार्प या मृगल का संचयन कम मात्रा में करना चाहिये | दोमट मिटटी वाले एक एकड़ या इससे छोटे तालाब झींगा पालने के लिए उपयुक्त है |

तालाब की तैयारी

महाझींगा के बीज संचयन करने के पूर्व तालाब की सफाई करवा लेना चाहिये ताकि उसमें किसी प्रकार की खाऊ मछली या हानिकारक कीड़े इत्यादि नहीं रहें | तत्पश्चात मिश्रित मत्स्य पालन के पूर्व जिस प्रकार तालाब की तैयारी की जाती है उसी प्रकार से तालाब की तैयारी कर लेनी चाहिये | उक्त मछली को छिपने के लिए बांस, झाड़, पुराने टायर इत्यादि तालाब में डालना चाहिये |

बीज प्राप्ति की श्रोत

महाझींगा के बीज का उत्पादन समुद्र के पानी में ही होता है अत: इसका बीज पं.बंगाल एवं उड़ीसा के समुद्र –तटीय क्षेत्रों में बने हैचरीयों से क्रय किया जा सकता है |

मत्स्य बीज संचयन

केवल महाझींगा पालन तकनीक में 20,000 (बीस हजार) झींगा के बीज प्रति एकड़ के दर से संचयन किया जा सकता है जबकि अन्य मछलियों के साथ इसका पचास प्रतिशत यानि 10,000 (दस हजार) झींगा बीज का संचयन प्रति एकड़ किया जा सकता है | इसके संचयन के लिए उपयुक्त समय अप्रैल माह से जुलाई तक का है | महाझींगा बीज को तालाब में छोड़ने से पहले इसके पैकेट को जिस तालाब में संचयन करना है उसमें कुछ देर रख दिया जाता है ताकि पैकेट के पानी और तालाब के पानी का तापमान एक हो जाये तत्पश्चात ही संचयन हेतु बीज पाने में छोड़ा जाता है |

आहार

जिस जगह पर झींगा बीज को संचयन हेतु छोड़ा जाता है उसी स्थान पर प्रथम 15 दिनों तक उन्हें भोजन के रूप में सूजी, मैदा, अंडा को एक साथ मिलाकर गोला बनाकर दिया जाता है | उक्त भोजन सुबह और शाम के समय एक ही स्थान पर प्रतिदिन दिया जाता है | 15 दिनों के पश्चात नवजात झींगा मछली सामान्यत: अन्य मछलियों को दिया जाता है वही इनका भी भोजन होता है | झींगा पालन में इन्हें ऊपर से पूरक आहार का दिया जाना अति आवश्यक है | अन्यथा भोजन के अभाव में ये आसपास में ही कमजोर झींगा को अपना भोजन बना लेती हैं |

वृद्धि

यदि अनुकूल परिस्थिति मिला तो झींगा प्राय: छ: माह में लगभग 100 ग्राम का हो जाता है | झींगा की वृद्धि के जाँच के लिए समय समय पर जाल चलाकर वृद्धि की जांच करनी चाहिये |

जब झींगा पूर्ण रूपेण बड़ा हो जाए तो समय-समय पर इसकी निकासी पर बेचा जा सकता है | 40-50 ग्राम का महाझींगा बिक्री के योग्य माना जाता है | बीच-बीच में बड़े झींगा को निकालते रहना चाहिये जिससे छोटे झींगा को बढाने का अवसर मिलता रहे यह प्रक्रिया जारी रखी जा सकती है | खुले बाजार में इसका मूल्य इसके वजन के अनुसार 350/- से 400/- रू प्रतिकिलो प्राप्त हो जाता है |

झींगा पालन के लिए निम्न बातों का रखें ध्यान

  1. संग्रहण से पहले तालाब को धूप में सुखाएँ व तैयार करें

मत्स्यपालन के लिए तालाब तैयार करना पहला अनिवार्य कदम है। जमीन की गंदगी को दूर करने के लिए टिलिंग, जुताई एवं धूप में सुखायें। इसके बाद, कीट तथा परभक्षी जीव हटाएँ। तालाब के जल तथा मिट्टी में PH तथा पोषकों की एकदम उचित सान्द्रता को बनाये रखने के लिए चूना, कार्बनिक खाद तथा अकार्बनिक खाद डालें।

  1. गाँव की सुविधाओं तथा मत्स्यपालन के बीच प्रतिरोधक क्षेत्र कायम करना

मछली पकड़ने, लाने व ले जाने के स्थलों तथा अन्य लोक-सुविधाओं तक के लोगों की आवाजाही को सुलभ बनाकर, झींगे के दो खेतों के बीच उचित दूरी सुनिश्चित की जा सकती है। दो छोटे खेतों के बीच कम-से-कम 20 मीटर की दूरी रखा जाना चाहिए। बड़े खेतों के लिए, यह दूरी 100 से 150 मीटर तक होनी चाहिए। इसके अलावा, खेतों तक लोगों के पहुँचने के लिए वहाँ खाली स्थान की व्यवस्था की जानी चाहिए।

  1. अपशिष्ट स्थिरीकरण तालाबों एवं बाहरी नहरों में, समुद्री शैवाल, सदाबहार पौधे (मैंग्रोव) और सीपी उगाना

झींगे के खेतों से दूषित पानी की निकासी स्वच्छ जल में करने के बजाय उसका उपयोग द्वितीयक खेती विशेष रूप से मसेल, समुद्री घास एवं फिन फिशर बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए। इससे पानी की गुणवत्ता बढ़ाने, कार्बनिक भार को कम करने और किसानों को अतिरिक्त फसल प्राप्त करने में सहायता मिलती है।

  1. नियमित अंतराल पर मिट्टी तथा व्यर्थ जल की गुणवत्ता की जाँच करें

जल की गुणवत्ता की यथेष्ट स्थिति बनाये रखने के लिए नियमित अंतराल पर मिट्टी तथा जल के मानदण्डों की नियमित जाँच की जानी चाहिए। पानी बदलते समय, पानी की गुणवत्ता में बहुत अधिक बदलाव न हों, इस बात के लिए विशेष सावधानी बरतें, क्योंकि इससे जीवों पर ज़ोर पड़ता है। घुलनशील ऑक्सीजन की सान्द्रता सुबह जल्दी मापें। यह सुनिश्चित करें कि जल स्रोत प्रदूषण मुक्त हों।

  1. अण्डों से लार्वा निकलने के बाद अच्छी गुणवत्ता के झींगे का उपयोयग करें

केवल पंजीकृत अण्डा प्रदाय केन्द्र से ही स्वस्थ एवं रोग-मुक्त बीज का उपयोग करें। बीजों के स्वास्थ्य की स्थिति जाँचने के लिए पीसीआर जैसी मानक विधियों का ही पालन करें। प्राकृतिक स्रोतों से इकट्ठा किये गये बीज का उपयोग नहीं करें। ये खुले जल में प्रजातियों की विविधता को प्रभावित करेंगे।

  1. परा लार्वा को कम घनत्व पर भण्डारण करें

तालाब में प्रदूषण उत्पन्न होने से भण्डारण के घनत्व पर प्रभाव पड़ता है। भण्डारण के अधिक घनत्व से, बढ़ाये जा रहे जीवों पर भी ज़ोर पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। हमेशा न्यूनतम घनत्व वाले भण्डारण की सिफारिश की जाती है। इसके अंतर्गत पारम्परिक तालाब में 6 प्रति वर्गमीटर एवं बडे तालाबों में 10 प्रति वर्ग मीटर के घनत्व सीमा को आदर्श माना जाता है।

झींगा पालन मैं रखें निम्न सावधानियां

प्रतिबंधित दवा,रसायनों एवं एंटीबायोटिक्स का उपयोग न करें

संतुलित पोषण तथा तालाब के अच्छे प्रबन्ध द्वारा झींगे को स्वस्थ रखें तथा बीमारियों से बचाएँ। यह इस बात से कहीं बेहतर है कि पहले लापरवाही कर बीमारी होने दें, फिर दवाइयों, रसायनों एवं एंटीबायोटिक्स द्वारा उपचार करें। इनमें से कुछ पदार्थ, जीव के माँस में इकट्ठा हो सकती है तथा खाने वाले के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाल सकती हैं। झींगे की खेती में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल अनिवार्य रूप से प्रतिबंधित है। उसका उपयोग किसी भी परिस्थिति में नहीं करें।

झींगे के खेत में भण्डारण के लिए प्राकृतिक परा – लार्वा इकट्ठा नहीं करें

जंगल से इकट्ठा किये गये बीजों का झींगे के तालाबों में भण्डारण नहीं करें। जंगली बीज का संग्रहण, खुले जल में फिन तथा शेलफिश की जैव-विविधता को प्रभावित करता है। प्राकृतिक बीज, बीमारी का वाहक भी हो सकता है। इससे अण्डवृद्धि के स्थान पर इकट्ठे किये गये स्वस्थ बीज संक्रमित हो सकते हैं।

कृषि कार्य वाले खेत को झींगे के खेत में परिवर्तित नहीं करें

कृषि कार्य वाले क्षेत्र का उपयोग झींगे की खेती के लिए नहीं करें- यह प्रतिबंधित है। तटीय क्षेत्र प्रबन्ध योजना बनाते समय, विभिन्न उद्देश्यों के लिए उचित भूमि की पहचान के लिए विभिन्न सर्वेक्षण किये जाने चाहिए। केवल किनारे की जमीन जो कृषि कार्य के लिए उपयुक्त न हों, झींगे की खेती के लिए आवंटित की जानी चाहिए।

झींगे की खेती के लिए भूजल का इस्तेमाल नहीं करें

तटीय क्षेत्रों में भूजल मूल्यवान स्रोत है। इसे कभी भी झींगे की खेती के लिए नहीं निकालें- यह कड़ाई से प्रतिबंधित है। झींगे के खेतों से प्रदूषण तथा जमीन व पेयजल के स्रोतों का क्षारपन उत्पन्न होने से भी बचाया जाना चाहिए। साथ ही, अनिवार्य रूप से कृषि भूमि, गाँव और स्वच्छ जल के कुँओं के बीच कुछ खाली स्थान रखें।

तालाबों का दूषित जल कभी भी सीधे खुले जल में नहीं छोडें

झींगे के खेतों के दूषित जल को खाड़ी या नदी के मुहाने से समुद्र में छोड़ने से पहले उपचारित करें। झींगे के खेतों में दूषित पानी की गुणवत्ता के लिए बनाये गये मानकों का पालन किया जाना चाहिए। खुले जल की गन्दगी को रोकने के लिए बनाये गये मानकों की नियमित निगरानी की जानी चाहिए। बड़े खेत (50 हेक्टेयर से अधिक) में प्रवाह उपचार प्रणाली स्थापित किया जाना जरूरी है।

स्त्रोत : सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ फ्रेशवॉटर एक्‍वाकल्‍चर, भुवनेश्‍वर, उड़ीसा