केला उत्पादन तकनीक

केले की खेती

जलवायु और भूमि

  1. केले की खेती के लिये उर्वर भूमि की आवश्यकता होती है। 5 से 8.5 पी.एच. मान वाली भूमि में की जा सकती है, परन्तु अच्छी वृद्धि, फल के विकास एवं अच्छे उत्पादन के लिये 6.0 से 7.0 पी.एच. मान वाली मिट्टी सबसे उपयुक्त है।
  2. केला मुख्य रूप से उष्ण जलवायु का पौधा है परन्तु इसका उत्पादन नम उपोष्ण से शुष्क उपोष्ण क्षेत्रों में किया जा सकता है। केले के अच्छे उत्पादन के लिये 20 से 35 डिग्री सेल्सियस का तापमान उपयुक्त रहता है। तापमान में अधिक कमी या वृद्धि होने पर पौधों की वृद्धि, फलों के विकास एवं उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

गुणवत्ता युक्त अधिक उपज हेतु मुख्य उत्पादन तकनीक

अनुशासित प्रजाति का चुनाव


डवार्फ कैवेन्डिश, रोबस्टा, ग्रेन्डनेन (टिशुकल्चर), महालक्ष्मी, बसराई

गुणवत्ता युक्त पौध / प्रकंद का चुना

रोपाई के लिये टिशुकल्चर (जी-9), पौध की लम्बाई 30 से.मी., मोटाई 5 से.मी. तथा 4-5 पूर्णरूप से खुली पत्तियां

सोर्ड सकर का चुनाव :

पत्तिया पतली उपर की तरफ तलवारनूमा, खेती के लिये सबसे उपयुक्त होते है। तीन माह पुराने पौधे का कन्द जिसका वजन 700 ग्राम से 1 कि.ग्रा. का हो, उपयुक्त होता है।

वाटर सकर :

चौड़ी पत्ती वाले देखने में मजबूत परन्तु आन्तरिक रूप से कमजोर, प्रवर्धन हेतु इनका प्रयोग वर्जित है।
सकर्स का चुनाव  संक्रमण  मुक्त बागान से करें।

प्रकंद का उपचार

  1. सकर्स की अच्छी सफाई कर रोपाई पूर्व कार्बेन्डिाजिम (0.1:), + इमिडाक्लोरोप्रिड (0.05.:) के जलीय घोल में लगभग 30 मिनट तक डालकर शोधन करते है। तत्पश्चात सकर्स को एक दिन तक छाया में सुखाकर रोपाई करें।
  2. टिशु कल्चर पौध की रोपाई से एक सप्ताह पूर्व 1:कार्बोफ्यूरान एवं 1 प्रतिशत ब्लीचिंग पावडर का घोल बनाकर पोलीथिन बेग में छिडकाव करें। जिससे निमेटोड एवं बैक्टरियल राट जैसी बिमारीयों से बचा जा सकें।

अनुशंसित दूरी एवं उचित पौध संख्या

पद्धतिकिस्मदूरी (मीटर)पौधों की संख्या
(प्रति हेक्टेयर)
सामान्य रोपणग्रैण्ड नाइन1.6 * 1.63900
डवार्फ कैवेण्डिश1.5 * 1.54444
रोबस्टा1.8 * 1.83086
सघन रोपणरोबस्टा, कैवेन्डिश, बसराई15 * 1.5 * 2.04500
ग्रैण्ड नाइन1.2 * 1.2 * 2.05000

अनुशंसित समय पर रोपाई


1.  मृग बहार     :   जून, जूलाई
2.  कांदा बहार    :   अक्टुबर, नवम्बर

अनुशंसित खाद एवं उर्वरक 


200 ग्राम नत्रजन+ 60 ग्राम स्फुर +300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा।

उर्वरक देने हेतु निम्न विकल्पों का उपयोग किया जा सकता है ।

विकल्प
उर्वरक की मात्रा
विकल्प नम्बर 1
434 ग्राम युरिया, 375 ग्राम सुपर (एसएसपी) एवं 500 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी)
विकल्प नम्बर 2
190 ग्राम एनपीके (12:32:16), 390 ग्राम युरिया एवं 430 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी)
विकल्प नम्बर 3
231 ग्राम एनपीके (10:26:26), 380 ग्राम युरिया एवं 370 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी)
विकल्प नम्बर 4
130 ग्राम डीएपी, 380 ग्राम युरिया एवं 500 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एमओपी)

उर्वरक देने की विधि –

खेत के तैयारी के समय गोबर/कम्पोस्ट की मात्रा – 25 टन प्रति हेक्टर एवं पौध लगाते समय 15 कि.ग्रा. गोबर की खाद प्रति पौधा, कार्बोक्यूरान 25 ग्राम एवं स्फुर व पोटाश की आधारिय मात्रा देकर ही रोपाई करे। उर्वरक हमेशा पौधे से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर रिंग बनाकर नमी की उपस्थिति में व्यवहार कर मिट्टी में मिला दें।

उर्वरक तालिका –

उर्वरक देने का समय
उर्वरक
उर्वरक की मात्रा (ग्राम)
पौध लगाते समय
सुपर फास्फेट + म्यूरेट आफ पोटाश125:100
30 दिन के पश्चात
युरिया60
75 दिन के पश्चात
युरिया + सुपर फास्फेट + सुक्ष्म पोषक तत्व60:125:25
125 दिन के पश्चात
युरिया + सुपर फास्फेट60:125
165 दिन के पश्चात
युरिया + पोटाश60:100
210 दिन के पश्चात
युरिया + पोटाश60:100
255 दिन के पश्चात
युरिया + पोटाश60:100
300 दिन के पश्चात
युरिया + पोटाश60:100

केले में फर्टीगेशन द्वारा अनुशंसित उर्वरकों की मात्रा  

मात्रा / पौधा (ग्राम) : 170 ग्राम नाइट्रोजन 45 ग्राम स्फुर 200 ग्राम पोटाश

रोपाई के बाद
( सप्ताह में )
नाइट्रोजन
(ग्राम / पौधा)
स्फुर
(ग्राम / पौधा)
पोटाश
(ग्राम / पौधा)
9-18504530
19-309090
31-423060
43-4620
कुल17045200

उपरोक्त उर्वरक के अलावा सूक्ष्म पोषक तत्व 10 ग्राम प्रति पौधा एवं मैग्नीशियम सल्फेट 25 ग्राम प्रति पौधा रोपाई के 75 दिन बाद फर्टीगेशन द्वारा दें।

खरपतवार प्रबंधन

केले की फसल को 90 दिन तक खरपतवार से मुक्त रखें। इसके प्रबंधन हेतु यांत्रिक विधियों जैसे बख्खर एवं 15 दिन के अंतराल पर डोरा चलाने से फसल वृद्धि एवं उत्पादकता में अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

केले में अन्र्तवर्ती फसल

राज्य मे केले के किसान इस फसल को एकाकी फसल के रूप मे ही करते चले आ रहे है लेकीन आज बदले हुए विपरित स्थिती मे केला कृषको को अपने खेती के परम्परागत तरीको मे बदलाव लाने की जरूरत है। केला उत्पादकों का उत्पादन लागत बढ़ती जा रहा है। केले के साथ अन्र्तवर्ती खेती कर लागत को कम किया जा सकता है।

मृग बहार

मृग बहार मे मूंग, ग्रीष्म कालीन कटुआ धनिया, चैलाफली, टमाटर, सागवाली फसल लेना चाहिए परन्तु ध्यान रखा जावे कि कृषक के पास पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध हो, फसले केले की जड से 9 इंच से 1 फीट की दूरी पर बोई जाये।

कांदा बहार

-इस मौसम मे पालक, मेथी, सलाद, आलू, प्याज, टमाटर, मटर, धनिया, मक्का, गाजर, मूली, बैगन की फसल ली जा सकती है। इन्हें अतिरिक्त पोषक तत्व देना जरूरी रहता है। मौसमी फूल भी उगाये जा सकते है।

सिंचाई प्रबंधन

माहरबीखरीफमाहरबीखरीफ
जून5-612-14नवम्बर8-104-6
जूलाई4-512-14दिसम्बर6-84-6
अगस्त5-612-14जनवरी10-125-7
सितम्बर6-814-16फरवरी12-145-7
ऑक्टोबर8-104-6मार्च16-1810-12
अप्रैल18-2012-14
मई20-2212-14

पानी की आवश्यकता प्रति पौधा प्रति दिन (लीटर)
नोट – पानी की मात्रा जमीन के प्रकार एवं मौसमानुसार बदलाव करें।

फसल चक्र
केला – गेहूँ  / मक्का / चना
केला – मूँग –  मक्का

विशेष शस्य क्रियाएँ

पत्तियों की कटाई छटाई  मिटटी चढ़ाना सहारा देना मल्चिंग  अवांछित सकर्स (प्रकंद) की कटाई  गुच्छों को ढकना एवं नर पुष्प की छटाई  घड़ के अविकसित हत्थों को हटाना

पौध संरक्षण

लू से बचाव –

गर्मी के दिनो में लू से बचाव के लिए खेत के चारो तरफ बागड वायु अवरोधक के रूप मे लगाना चाहिए, इसके लिए उत्तर एवं पश्चिम दिशा मे ढैंचा की दो कतार लगाते है। जिससे फसल को अधिक तापमान एवं लू से बचाया जा सकता है।

कीट
  1. तना छेदक कीट (ओडोपोरस लांगिकोल्लिस)
  2. पत्ती खाने वाला केटर पिलर (इल्ली)
  3. महू (एफिड))
बीमारी –
  1. सिगाटोका लीफ स्पाट (करपा)
  2. पत्ती गुच्छा रोग (बंची टॉप)
  3. जड़ गलन
  4. एन्थ्रेकनोज

कीट प्रबंधन

कीट के नाम
लक्षण एवं नुकसान
प्रबंधन
तना छेदक कीट
केले के तना छेदक कीट का प्रकोप 4-5 माह पुराने पौधो में होता है । शुरूआत में पत्तियाँ पीली पडती है तत्पश्चात गोदीय पदार्थ निकालना शुरू हो जाता है। वयस्क कीट पर्णवृत के आधार पर दिखाई देते है। तने मे लंबी सुरंग बन जाती है। जो बाद मे सडकर दुर्गन्ध पैदा करता है।1. प्रभावित एव सुखी पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए।
2.नयी पत्तियों को समय – समय पर निकालते रहना चाहिए।
3. घड काटने के बाद पौधो को जमीन की सतह से काट कर उनके उपर कीटनाषक दवाओ जैसे – इमिडाक्लोरोपिड (1 मिली. /लिटर पानी) के घोल का छिडकाव कर अण्डो एवं वयस्क कीटो को नष्ट करे। 4. पौध लगाने के पाचवे महीने में क्लोरोपायरीफॉस (0.1 प्रतिशत) का तने पर लेप करके कीड़ो का नियंत्रण किया जा सकता है।
पत्ती खाने वाला केटर पिलर
यह कीट नये छोटे पौधों के उपर प्रकोप करता है लर्वा बिना फैली पत्तियों में गोल छेद बनाता है।1. अण्डों को पत्ती से बाहर निकाल कर नष्ट करें
2. नव पतंगों को पकड़ने हेतु 8-10 फेरोमेन ट्रेप / हेक्टेयर लगायें।
3. कीट नियंत्रण हेतु ट्राइजफॉस 2.5 मि.ली./लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें एवं साथ में चिपचिपा पदार्थ अवश्य मिलाऐं।

 

बीमारी के नाम
लक्षण एवं नुकसान
प्रबंधन
सिगाटोका लीफ स्पाट
यह केले में लगने वाली एक प्रमुख बीमारी है इसके प्रकोप से पत्ती के साथ साथ घेर के वजन एवं गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। शुरू में पत्ती के उपरी सतह पर पीले धब्बे बनना शुरू होते है जो बाद में बड़े भूरे परिपक्व धब्बों में बदल जाते है।1. रोपाई के 4-5 महीने के बाद से ही ग्रसित पत्तियों को लगातार काटकर खेत से बाहर जला दें।
2. जल भराव की स्थिति में जल निकास की उचित व्यवस्था करे।
3. खेत को खरपतवार से मुक्त रखें।
4. पहला छिड़काव फफूंदनाशी कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम 7 से 8 मि. ली. बनोल आयल का छिड़काव करे। दूसरा प्रोपीकोनाजोल 1 मि.ली. 7 से 8 मि. ली. बनोल आयल का छिड़काव करे एव तीसरा ट्राइडमार्फ 1 ग्राम 7 से 8 मि. ली. बनोल आयल का छिड़काव करे।
पत्ती गुच्छा
रोग
यह एक वायरस जनित बीमारी है पत्तियों का आकार बहुत ही छोटा होकर गुच्छे के रूप में परिवर्तित हो जाता है।1. ग्रसित पौधों को अविलंब उखाड कर मिट्टी में दबा दें या जला दें। फसल चक्र अपनायें।
2. कन्द को संक्रमण मुक्त खेत से लें।
3. रोगवाहक कीट के नियंत्रण हेतु इमीडाक्लोप्रिड 1 मि. ली. / पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।
जड़ गलन
इस बीमारी के अंतर्गत पौधे की जड़े गल कर सड़ जाती है एवं बरसात एवं तेज हवा के कारण गिर जाती है।1. खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था करें।
2. रोपाई के पहले कन्द को फफूंदनाशी कार्बन्डाजिम 2 ग्राम/लीटर पानी के घाले से उपचारित करे।
3. रोकथाम के लिये काॅपर आक्सीक्लोराइड 3 ग्राम 0.2 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन/लीटर पानी की दर से पौधे में ड्रेचिग करें।

फसल की कटाई एवं कटाई के उपरांत शस्य प्रबंधन

कटाई उपरांत केला की गुणवत्ता मे काफी क्षति होती है क्योकि केला उत्पादन स्थल पर भंडारण की समाप्ति व्यवस्था एवं कूल चेंम्बर की व्यवस्था नही होती है। कूल चेम्बर मे 10-12 0 ब तापक्रम रहने से केला के भार व गुणवत्ता मे हराष नही होता एवं बाजार भाव अच्छा मिलता है। इस विधि मे बहते हुए पानी मे 1 घंटे तक केले को रखा जाता है। भंण्डारण मे केले को दबाकर अथवा ढककर नही रखना चाहिए अन्यथा अधिक गर्मी से फल का रंग खराब हो जाता है। भंडार कक्ष में तापमाकन 10-12 0ब और सापेक्ष आर्द्रता 70 से अधिक ही होनी चाहिए।

निर्यात के लिए डिहेडिंग वाशिंग एवं फफूंदनाशक दवाओं से उपचार

प्राय: स्थानीय बाजार मे विक्रय के लिए गुच्छा परिवहन किया जाता है, परन्तु निर्यात के लिए हैण्ड को बंच से पृथक करते है, क्योकि इसमे सं क्षतिग्रस्त एवं अविकसित फल को प्रथक कर दिया जाता है। चयनित बड़े हैण्डस को 10 पीपीएम क्लोरीन क घोल मे धोया जाता है फिर 500 पीपीएम बेनोमिल घोल में 2 मिनट तक उपचारित किया जाता है।

पैकिंग एवं परिवहन

निर्यात हेतु प्रत्येक हैण्ड को एच.एम.एच, डीपीआई बैग में पैककर सीएफबी 13-20 किलो प्रति बाक्स की दर से भरकर रखा जाता है। ट्रक अथवा वेन्टिीलेटेड रेल बैगन मे 150ब तापक्रम पर परिवहन किया जाता है। जिससे फल की गुणवत्ता खराब नही होती है।

  • उपज –  जून जुलाई रोपण वाली फसल की उपज 70-75 टन प्रति हेक्टेयर एवं अक्टूबर से नवम्बर में रोपित फसल की औसत उपज 50 से 55 टन प्रति हेक्टेयर होती है।
  • केला प्रसंस्करण –  केले के फल से प्रसंस्करित पदार्थ जैसे केला चिप्स, पापड़, अचार, आटा, सिरका, जूस, जैम इल्यादि बना सकते है। इसके अलावा केले के तने से अच्छे किस्म के रेशे द्वारा साड़ियाँ, बैग, रस्सी एवं हस्त सिल्क के माध्यम से रोजगार सृजन किया जा सकता है।

आय व्यय तालिका (मुख्य फसल) प्रति एकड़

विवरण
परम्परागत विधि
टिश्यू कल्चर
दूरी (मीटर में)
पंक्ति से पंक्ति
पौध से पौध
 

1.5
1.5

 

1.6
1.6

पौध संख्या (प्रति एकड़)17421550
लागत रूपये में (प्रति पौधा)2233
लागत रूपये में (प्रति एकड़)3832451150
फसल अवधि (महीने में)1812-13
उपज (औसतन गुच्छे का वनज किलोग्राम/पौधा)
गैर फलन पौध संख्या लगभग 10 प्रतिशत उपज प्रति एकड़ (मैट्रिक टन)
15

174

23.52

23

0

35.65

विक्रय मूल्य रूपये में (प्रति मैट्रिक टन)60006000
कुल आय (रूपये में)1,41,1202,13,900
शुद्ध आय (रूपये में)1,02,7961,62,750

केले की खेती के मुख्य बिंदु

  1. टिश्यू कल्चर केले की खेती को बढ़ावा देना
  2. संतुलित उर्वरक प्रबंधन एवं फर्टिगेशन द्वारा उर्वरक देने को बढ़ावा देना
  3. केले के पौध/प्रकंद को उपचारित करके रोपाई करना
  4. केले के साथ अंर्तवर्ती फसल को बढ़ावा देना
  5. हरी खाद फसल को फसल चक्र में शामिल करना एवं जुर्लाइ रोपण को बढ़ावा देना
  6. पानी की बचत एवं खरपतवार प्रबंधन हेतु प्लास्टिक मल्चिंग को बढ़ावा देना
  7. प्रमुख कीट एवं बीमारी प्रबंधन हेतु समेकित कीट प्रबंधन को अपनाना
  8. फसल को तेज/गर्म हवा या लू से बचाने हेतु खेत के चारो ओर वायु रोधक पौध का रोपण करना

अन्य फसलें 

Source :किसान कल्याण तथा किसान विकास विभाग मध्यप्रदेश