राई-सरसों उत्पादन की उन्नत तकनीक
सरसों रबी की प्रमुख तिलहनी फसल है जिसका भारत की अर्थ व्यवस्था में एक विशेष स्थान है। सरसों (लाहा) कृषकों के लिए बहुत लोक प्रिय होती जा रही है क्यों कि इससे कम सिंचाई व लागत में दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त हो रहा है। इसकी खेती मिश्रित रूप में और बहु फसलीय फसल चक्र में आसानी से की जा सकती है। भारत वर्ष में क्षेत्रफल की दृष्टि से इसकी खेती प्रमुखता से राजस्थान, मध्यप्रदेश, यूपी, हरियाणा, पश्चिम बंगाल, गुजरात, आसाम, झारखंड़, बिहार एवं पंजाब में की जाती है। जबकि उत्पादकता (1721 किलो प्रति हे.) की दृष्टि से हरियाणा प्रथम स्थान पर है।
भूमि का चुनाव एवं भूमि की तैयारीः
दोमट या बलुई भूमि जिसमें जल का निकास अच्छा हो अधिक उपयुक्त होती है। अगर पानी के निकास का समुचित प्रबंध न हो तो प्रत्येक वर्ष लाहा लेने से पूर्व ढेचा को हरी खाद के रूप में उगाना चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पी.एच.मान. 7.0 होना चाहिए। अत्यधिक अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी इसकी खेती हेतु उपयुक्त नहीं होती है। यद्यपि क्षारीय भूमि में उपयुक्त किस्म लेकर इसकी खेती की जा सकती है। जहां जमीन क्षारीय है वहाँ प्रति तीसरे वर्ष जिप्सम/पायराइट 5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम की आवश्यकता मृदा पी.एच. मान के अनुसार भिन्न हो सकती है। जिप्सम/पायराइट को मई-जून में जमीन में मिला देना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ फसल के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद तीन-चार जुताईयाँ तवेदार हल से करनी चाहिए। सिंचित क्षेत्र में जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाना चाहिए जिससे खेत में ढेले न बने। गर्मी में गहरी जुताई करने से कीड़े मकौड़े व खरपतवार नष्ट हो जाते हैं। अगर वोनी से पूर्व भूमि में नमी की कमी है तो खेत में पलेवा करना चाहिए। बोने से पूर्व खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक बरसात के बाद तवेदार हल से जुताई कर नमी को संरक्षित करने के लिए पाटा लगाना चाहिए जिससे कि भूमि में नमी बनी रहे। अंतिम जुताई के समय 1.5 प्रतिशत क्यूनॉलफॉस 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलादें, ताकि भूमिगत कीड़ों की रोकथाम की जा सके।
उन्नत किस्मों का चुनावः
किस्में | पकने की अवधि (दिन) | उपज(कि.ग्रा./है.) | तेल की मात्रा (%) | मुख्य विशेषताएं |
तोरियाः जवाहर तोरिया-1 भवानी टाईप-9 | 85-90 75-80 90-95 | 1500-1800 1000-1200 1200-1500 | 43 44 40 | श्वेत किट्ट के प्रति प्रतिरोधी अंतरवर्ती फसल के लिए उपयुक्त। शष्क एवं सिंचित खेती के लिए उपयुक्त। |
सरसों: जवाहर सरसों-2 जवाहर सरसों-3 राज विजय सरसों-2 | 135-138 130-132 120-140 | 1500-3000 1500-2500 1800-2000 (पिछेती बोनी) (समय पर बोनी) | 40 4037-41 | मृदुरोमिल आसिता रोग व पाला के प्रति सहनशील है। झुलसन रोग एवं माहू का प्रकोप कम होता है। सिंचित एवं अंसिचित क्षेत्रो के लिए उपयुक्त। सफेद फफोला, झुलसन रोग, तना सड़न, चूर्णिल एवं मृदुरोमिल आसिता के प्रति मध्यम प्रतिरोधिता |
कोरल-432 | 113-147 | 1831-2581 | 40-42 | सिंचित अवस्था एवं बाजरा सरसों फसल चक्र हेतु उपयुक्त। |
सी.एस.-56 | 113-147 | 1170-1423 | 35-40 | पिछेती बानी हेतु उपयुक्त। |
नवगोल्ड (पीली सरसों) | 122-134 | 1095-1803 | 34-41 | पिछेती बोनी हेतु उपयुक्त। सफेद फफोला, झुलसन रोग एवं तना सड़न रोगों के प्रति मध्यम प्रतिरोधी। |
एन.आर.सी.एच.बी.-101 | 105-135 | 1384-1492 | 34-42 | समय पर एवं पिछेती बोनी हेतु उपयुक्त। |
पूसा सरसों-21 | 127-149 | 1428-2197 | 30-42 | सफेद फफोला, झुलसन रोग, तना सड़न, चूर्णिल एवं मृदुरोमिल आसिता। |
पूसा सरसों-27 | 108-135 | 1437-1639 | 39-45 | अगेती बोनी हेतु उपयुक्त। |
आर.जी.एन.-73 | 127-136 | 1771-2226 | 39-42 | फलियों एवं पौधें के गिरने के प्रति प्रतिरोधिता। |
आशीर्वाद | 125-130 | 1440-1685 | 39 | पिछेती बोनी के लिए उपयुक्त, श्वेत किट्ट के प्रति प्रतिरोधी, पत्तियों एवं फली के झुलसन रोग के प्रति मध्य प्रतिरोधी। |
माया | 125-136 | 1990-2280 | 40 | अगेती बोनी एवं उच्च तापमान के प्रति सहनशील, सफेद किट्ट के प्रति प्रतिरोधी। |
फसल चक्रः
जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन है, उन क्षेत्रों में सरसों की बोनी के पूर्व खरीफ में खेत खाली नही छोड़ना चाहिए। सस्य सघनता बढाने हेतु अन्य फसलों के क्रम में इसे सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है। इसकी खेती से भूमि एवं आने वाली फसल के उत्पादन पर किसी भी प्रकार का विपरीत प्रभाव नही पड़ता । सरसों पर आधारित उपयुक्त फसल चक्र निम्नानुसार लिए जा सकते है।
सिंचित क्षेत्रों के लिएः
मूँग/उड़द/सोयाबीन-सरसों-मूँग
मूँग/उड़द/बाजरा/तिल-सरसों-मूँग
पडती-तोरिया- गेहूँ
पडती-तोरिया- प्याज
तोरिया+बरसीम
सरसों/तोरिया-ग्रीष्मकालीन सब्जियाँ
सरसों+बरसीम
असिंचित क्षेत्रों के लिएः
- लोविया (सब्जी वाली)-सरसों
- लोविया (चारा)-सरसों
- ढेचा/मूँग/उर्द/सनई (हरी खाद)-सरसों
अंर्तवर्तीय फसलें:
- सरसों चना- (1:9) सरसों की एक कतार तथा चना की 9 कतार के अनुपात में बोनी करना लाभदायक होगा।
- सरसों मसूरः- (1:9) सरसों की एक कतार तथा चना की 9 कतार के अनुपात में बोनी करना लाभदायक होगा।
- सरसों गेहूँ-(1:9) कम पानी या असिंचित गेहूँ की सरसों के साथ अंर्तवर्तीय खेती का भी काफी लाभ होता है। इनके कतार का अनुपात 1 कतार सरसों एवं 9 कतार गेहूँ की बुआई करें।
बीजशोधनः
भरपूर पैदावार हेतु फसल को बीज जनित बीमारियों से बचाने के लिये बीजोपचार आवश्यक है। श्वेत किट्ट एवं मृदुरोमिल आसिता से बचाव हेतु मेटालेक्जिल (एप्रन एस डी-35) 6 ग्राम एवं तना सड़न या तना गलन रोग से बचाव हेतु कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज उपचार करें।
बोने का समय व बीज दरः
उचित समय पर बोनी करने से उत्पादन तो अधिक होता ही है साथ ही साथ फसल पर रोग व कीटों का प्रकोप भी कम होता है। इसके कारण पौध संरक्षण पर आने वाली लागत से भी बचा जा सकता है।
बुवाई का उपयुक्त समय एवं बीज दर निम्नानुसार है-
फसल | बुवाई का समय | बीज दर प्रति हेक्टेयर |
तोरिया | सितम्बर का प्रथम पक्ष | 4-5 कि.ग्रा. |
सरसों | बारानी क्षेत्र 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर | 5-6 कि.ग्रा. |
सरसों सिंचित क्षेत्र
| 10 अक्टूबर से 30 अक्टूबर | 4.5-5 कि.ग्रा. |
बोने की विधिः
बुवाई देशी हल या सरिता या सीड़ ड्रिल से कतारों में करें, पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से.मी., पौधें से पौधे की दूरी 10-12 सेमी. एवं बीज को 2-3 से.मी. से अधिक गहरा न बोयें, अधिक गहरा बोने पर बीज के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पडता है।
खाद एवं उर्वरक की मात्राः
भरपूर उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक उर्वरको के साथ केचुंआ की खाद, गोबर या कम्पोस्ट खाद का भी उपयोग करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों के लिए अच्छी सडी हुई गोबर या कम्पोस्ट खाद 100 क्विंटल प्रति हैक्टर अथवा केचुंआ की खाद 25 क्विंटल/प्रति हेक्टर बुवाई के पूर्व खेत में डालकर जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें। बारानी क्षेत्रों में देशी खाद (गोबर या कम्पोस्ट) 40-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से वर्षा के पूर्व खेत में डालें और वर्षा के मौसम मे खेत की तैयारी के समय खेत में मिला दें। राई-सरसों से भरपूर पैदावार लेने के लिए रासायनिक उर्वरकों का संतुलित मात्रा में उपयोग करने से उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। उर्वरको का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना अधिक उपयोगी होगा। राई-सरसों को नत्रजन, स्फुर एवं पोटाश जैसे प्राथमिक तत्वों के अलावा गंधव तत्व की आवश्यकता अन्य फसलों की तुलना में अधिक होती है। साधारणतः इन फसलों से निम्नांकित संतुलित उर्वरकों का प्रयोग कर अधिकतम उपज प्राप्त की जा सकती है-
फसल | उर्वरक (कि.ग्रा./हेक्टेयर) | |||
नत्रजन | स्फुर | पोटाश | गंधक | |
तोरिया | 60 | 30 | 20 | 20 |
सरसों असिंचित | 40 | 20 | 10 | 15 |
सरसों सिंचित (बाजरा/सोयाबीन/सरसों) | 100 | 50 | 25 | 40 |
उर्वरकों के प्रयोग की विधियाँ:
बारानी क्षेत्र (असिंचित): अनुशंसित नत्रजन, स्फुर, पोटाश तथा गंधक की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें।
सिंचित क्षेत्र:
अनुशंसित नत्रजन की आधी मात्रा एंव स्फुर पोटाश व गंधक की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय खेत में अच्छी तरह मिला दें तथा नत्रजन की शेष बची हुई आधी मात्रा पहली सिंचाई के बाद खेत में खडी फसल में छिटक कर दें।
सावधानियाँ:
उपयोग के लिए बनाये गये विभिन्न उर्वरकों के मिश्रण को तुरंत खेंत में डाल दे अन्यथा इन्हे रखे रहने से उर्वरको का ढेला बन जायेगा और पौधों को समान रूप से सही मात्रा नहीं मिलेगी। उर्वरको का छिडकाव शाम के समय करें।
सरसों की खुटाई (टॉपिंग):
जब सरसों करीब 30-35 दिन की व फूल आने की प्रारंभिक अवस्था पर हो तो सरसों के पौधों को पतली लकड़ी से मुख्य तने की ऊपर से तुड़ाई कर देना चाहिए। इस प्रक्रिया को करने से मुख्य तना की वृद्धि रूक जाती है तथा शाखाओं की संख्या में वृद्धि होती है जिसके फलस्वरूप उपज में करीब 10 से 15 प्रतिशत तक की वृद्धि होती है।
सिंचाईः
उचित समय पर सिंचाई करने से उत्पादन में 25-50 प्रतिशत तक वृद्धि पाई गई है। इस फसल में 1-2 सिंचाई करने से लाभ होता है।
तोरियाः
तोरिया की फसल में पहली सिंचाई बुआई के 20-25 दिन पर (फूल प्रारंभ होना) तथा दूसरी सिंचाई 50-55 दिन पर फली में दाना भरने की अवस्था पर करना लाभप्रद होगा।
सरसों:
सरसों की बोनी बिना पलेवा दिये की गई हो तो पहली सिंचाई बुआई के 30-35 दिन पर करें। इसके बाद अगर मौसम शुष्क रहे अर्थात पानी नही बरसे तो बोनी के 60-70 दिन की अवस्था पर जिस समय फली का विकास या फली में दाना भर रहा हो सिंचाई अवश्य करें। द्विफसलीय क्षेत्र में जहाँ पर सिंचित अवस्था में सरसों की फसल पलेवा देकर बोनी की जाती है, वहाँ पर पहली सिंचाई फसल की बुवाई के 40-45 दिन पर व दूसरी सिंचाई मावठा न होने पर 75-80 दिन पर करना चाहिए।
सिंचाई की विधि व सिंचाई जल की मात्राः
राई-सरसों की फसल में सिंचाई पट्टी विधि द्वारा करनी चाहिए। खेत की ढाल व लंबाई के अनुसार 4-6 मीटर चैडी पट्टी बनाकर सिंचाई करने से सिंचाई जल का वितरण समान रूप से होता है तथा सिंचाई जल का पूर्ण उपयोग फसल द्वारा किया जाता है। यह बात अवश्य ध्यान रखें कि सिंचाई जल की गहराई 6-7 से0मी0 से ज्यादा न रखें।
भरपूर उपज प्राप्त करने के लिए फसल को प्रांरंभिक अवस्था में ही नींदा रहित रखना लाभकारी रहता है।
इसके लिए फसल की बुआई के तुरंत बाद पेन्डीमीथिलीन नामक रसायन की 1.0 कि0गा0 सक्रिय तत्व की मात्रा 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करने से नींदा निंयत्रित हो जाते है। नींदा नाशक का प्रयोग खेत में पर्याप्त नमी होने की स्थिति में ही करें। इसके बाद में यदि नींदा आते है तो उन्हे निंदाई द्वारा निकाल दें।
समन्वित रोग नियंत्रणः
सफेद रतुआ रोग प्रायः सभी जगह पाया जाता है, जब तापमान 10-18° सेल्सियस के आसपास रहता है तब पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के फफोले बनते है। रोग की उग्रता बढ़ने के साथ-साथ ये आपस में मिलकर अनियमित आकार के दिखाई देते है। पत्ती को उपर से देखने पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है। रोग की अधिकता में कभी-कभी रोग फूल एवं फली पर केकडे़ के समान फूला हुआ भी दिखाई देता है।
नियत्रंणः
समय पर बुवाई (1-20 अक्टूबर) करें। बीज उपचार मेटालेक्जिल (एप्रॉन 35 एस.डी.) 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करें। फसल को खरपतवार रहित रखें एवं फसल अवषेषों को नष्ट करें। अधिक सिंचाई न करें।
रिडोमिल एम जेड़ 72 डब्लू.पी. अथवा मेनकोजेब 1250 ग्राम प्रति 500 लीटर पानी में घोल बनाकर 2 छिड़काव 10 दिन के अन्तराल से 45 एवं 55 दिन की फसल पर करें।
सरसों का झुलसा या काला धब्बा रोग एवं नियन्त्रण
पत्तियों पर गोल भूरे धब्बे दिखाई पड़ते है। फिर ये धब्बे आपस में मिलकर पत्ती को झुलसा देते है एवं धब्बों में केन्द्रीय छल्ले दिखाई देते है। रोग के बढ़ने पर गहरे भूरे धब्बे तने, शाखाओं एवं फलियों पर फैल जाते है। फलियों पर ये धब्बे गोल तथा तने पर लम्बे होते है। रोगग्रसित फलियों के दाने सिकुड़े तथा बदरंग हो जाते है एवं तेल की मात्रा घट जाती है।
नियंत्रणः
बीजोपचार मेन्कोजेव या थायरम 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से करें।
रोग के प्रारम्भ होने पर मेनकोजेब 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर 2 से 3 छिड़काव 10 दिन के अंतर से 45, 55 एवं 65 दिन की फसल पर करें।
सरसों का तना सड़न या पोलियो रोग एवं नियन्त्रण
तने के निचले भाग में मटमेले या भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते है रोग फसल पर फूल आने के बाद ही पनपता है। प्रायः यह धब्बे रूई जैसे सफेद जाल से ढ़के होते है। रोग की अधिकता में पौधा मुरझाकर या टूटकर नीचे की ओर लटक जाता है।
रोगग्रस्त पौधे को चीरकर देखने पर काले रंग के स्केलेरोशिया दिखाई देते है।
नियंत्रणः
स्वस्थ व प्रमाणित बीज का ही उपयोग करें।
बीजोपचार 3 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज की दर से करें।
गर्मियों में गहरी जुताई करें व फसल के अवशेष नष्ट कर दें।
सिफारिश से अधिक नाइट्रोजन न डालें।
फसल में कतारों और पौधों के बीच की उचित दूरी रखें। फसल घनी न रखें।
बीमारी का प्रकोप देखकर 0.1 प्रतिशत की दर से कार्बेन्डाजिम दवा फूल की अवस्था पर 10 दिन के अन्तराल में दो बार पत्तियों व तने पर छिड़काव करें।
समन्वित कीट नियंत्रणः
यह चितकबरा कीट प्रांरभिक अवस्था की फसल के छोटे-छोटे पौधों को ज्यादा नुकसान पहुँचाते है, प्रौढ़ व षिषु दोनों ही पौधों से रस चूसते है जिससे पौधे मर जाते है। यह कीट बुवाई के समय अक्टूबर माह एवं कटाई के समय मार्च माह में ज्यादा हानि पहुँचाते है।
नियंत्रणः
खेत की गर्मियों में गहरी जुताई करनी चाहिए।
कीट प्रकोप होने पर बुवाई के 3-4 सप्ताह बाद यदि सम्भव हो तो पहली सिंचाई कर देना चाहिए जिससे कि मिट्टी के अन्दर दरारों में रहने वाले कीट मर जायें।
छोटी फसल में यदि प्रकोप हो तो क्यूनालफाॅस 1.5 प्रतिशत धूल 15-20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव सुबह के समय करें। अत्यधिक प्रकोप के समय मेलाथियान 50 ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
सरसों का चेंपा लसा या माहू कीट एवं नियन्त्रण
यह राई सरसों का प्रमुख कीट है। यह कीट प्रायः दिसम्बर के अन्त में प्रकट होता है और जनवरी फरवरी में इसका प्रकोप अधिक होता है। इस कीट के शिशु व प्रौढ़ पौधों का रस चूसते है व फसल को अत्याधिक हानि पहुँचाते हैं।यह कीट मधुस्त्राव निकालते है जिससे काले कवक का आक्रमण होता है और उपज कम हो जाती है। यह कीट कम तापमान व 60-80 प्रतिशत आर्द्रता में अत्यधिक वृद्धि करते है।
नियंत्रणः
फसल की बुवाई अगेती (1 से 15 अक्टूबर के मध्य) करना चाहिए।
चेंपा युक्त फसल की टहनियों को 2-3 बार तोड़कर नष्ट कर देने से चेंपा के गुणन को रोका जा सकता है। नीम की खली का 5 प्रतिशत घोल का छिड़काव नियत्रंण के लिए प्रभावशाली है।
अधिक प्रकोप की अवस्था में ऑक्सीडेमेटान मिथाइल 25 ई.सी. या डाइमेथोएट 30 ई.सी. 500 मिली लीटर दवा 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
छिड़काव सांयकाल के समय करना चाहिए।
Source :किसान कल्याण तथा किसान विकास विभाग मध्यप्रदेश