अरहर की खेती
भूमि का चुनाव एवं तैयारी:-
हल्की दोमट अथवा मध्यम भारी प्रचुर स्फुर वाली भूमि, जिसमें समुचित पानी निकासी हो, अरहर बोने के लिये उपयुक्त है। खेत को 2 या 3 बाद हल या बखर चला कर तैयार करना चाहिये। खेत खरपतवार से मुक्त हो तथा उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था की जावे।
अरहर की फसल के लिए समुचित जल निकासी वाली मध्य से भारी काली भूमि जिसका पी.एच. मान 7.0-8.5 का हो उत्तम है। देशी हल या ट्रैक्टर से दो-तीन बार खेत की गहरी जुताई क व पाटा चलाकर खेत को समतल करें। जल निकासी की समुचित व्यवस्था करें।
जातियों का चुनाव:
बहुफसलीय उत्पादन पद्धति में या हल्की ढलान वाली असिंचित भूमि हो तो जल्दी पकने वाली जातियाँ बोनी चाहिए। निम्न तालिका में उपयुक्त जातियों का विवरण दिया गया हैः
अरहर की किस्मे (कम अवधि) | ||||||||||||||||
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अरहर की किस्मे ( मध्यम अवधि) | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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अंतरवर्तीय फसल:-
अंतरवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की पूर्ण पैदावार एंव अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होगी । मुख्य फसल में कीडों का प्रकोप होने पर या किसी समय में मौसम की प्रतिकूलता होने पर किसी न किसी फसल से सुनिश्चित लाभ होगा। साथ-साथ अंतरवर्तीय फसल पद्धति में कीडों और रोगों का प्रकोप नियंत्रित रहता है। निम्न अंतरवर्तीय फसल पद्धति मध्य प्रदेष के लिए उपयुक्त है।
- अरहर मूंगफली या सोयाबीन 2:4 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)
- उडद या मूंग 1:2 कतारों कें अनुपात में (कतारों दूरी 30 से.मी.)
- उन्नत जाति जे.के.एम.-189 या ट्राम्बे जवाहर तुवर-501 को सोयाबीन या मूंग या मूंगफली के साथ अंतरवर्तीय फसल में उपयुक्त पायी गई है।
बोनी का समय व तरीका:-
अरहर की बोनी वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही कर देना चाहिए। सामान्यतः जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोनी करें। कतारों के बीच की दूरी शीघ्र पकने वाली जातियों के लिए 60 से.मी. व मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 70 से 90 से.मी. रखना चाहिए। कम अवधि की जातियों के लिए पौध अंतराल 15-20 से.मी. एवं मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिए 25-30 से.मी. रखें।
बीज की मात्रा व बीजोपचारः-
जल्दी पकने वाली जातियों का 20-25 किलोग्राम एवं मध्यम पकने वाली जातियों का 15 से 20 कि.ग्रा. बीज/हेक्टर बोना चाहिए। चैफली पद्धति से बोने पर 3-4 किलों बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर लगती है। बोनी के पूर्व फफूदनाशक दवा 2 ग्राम थायरम $ 1 ग्राम कार्बेन्डेजिम या वीटावेक्स 2 ग्राम $ 5 ग्राम ट्रयकोडरमा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। उपचारित बीज को रायजोबियम कल्चर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर लगावें।
निंदाई-गुडाईः-
खरपतवार नियंत्रण के लिए 20-25 दिन में पहली निंदाई तथा फूल आने के पूर्व दूसरी निंदाई करें। 2-3 कोल्पा चलाने से नीदाओं पर अच्छा नियंत्रण रहता है व मिट्टी में वायु संचार बना रहता है । नींदानाषक पेन्डीमेथीलिन 1.25 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व / हेक्टर बोनी के बाद प्रयोग करने से नींदा नियंत्रण होता है । नींदानाषक प्रयोग के बाद एक नींदाई लगभग 30 से 40 दिन की अवस्था पर करना लाभदायक होता है।
सिंचाईः-
जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहाँ एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियाँ बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढोतरी होती है।
पौध संरक्षण:-
बीमारियाँ एवं उनका नियंत्रण:-
उकटा रोग:
यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। रोग के लक्षण साधारणतया फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई पडते है। सितंबर से जनवरी महिनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता है। पौधा पीला होकर सूख जाता है । इसमें जडें सड़ कर गहरे रंग की हो जाती है तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की उचाई तक काले रंग की धारिया पाई जाती है। इस बीमारी से बचने के लिए रेागरोधी जातियाँ जैसे जे.के.एम-189, सी.-11, जे.के.एम-7, बी.एस.एम.आर.-853, 736 आशा आदि बोये। उन्नत जातियों को बीज बीजोपचार करके ही बोयें । गर्मी में गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरवर्तीय फसल लेने से इस रोग का संक्रमण कम रहता है।
बांझपन विषाणु रोग:
यह रोग विषाणु (वायरस) से होता है। इसके लक्षण ग्रसित पौधों के उपरी शाखाओं में पत्तियाँ छोटी, हल्के रंग की तथा अधिक लगती है और फूल-फली नही लगती है। यह रोग माईट, मकड़ी के द्वारा फैलता है। इसकी रोकथाम हेतु रोग रोधी किस्मों को लगाना चाहिए। खेत में बे मौसम रोग ग्रसित अरहर के पौधों को उखाड कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहिए। बांझपन विषाणु रोग रोधी जातियां जैसे आई.सी.पी.एल. 87119 (आषा), बी.एस.एम.आर.-853, 736 को लगाना चाहिए।
फायटोपथोरा झुलसा रोग:
रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता है। इसमें तने पर जमीन के उपर गठान नुमा असीमित वृद्धि दिखाई देती है व पौधा हवा आदि चलने पर यहीं से टूट जाता है। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटेलाक्सील फफॅंूदनाशक दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई पाल (रिज) पर करना चाहिए और चवला या मूँग की फसल साथ में लगाये। रोग रोधी जाति जे.ए.-4 एवं जे.के.एम.-189 को बोना चाहिए।
कीट:-
मक्खी:-
यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है। जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती है। अंडों से मेगट बाहर आते है ओर दाने को खाने लगते है और फली के अंदर ही शंखी में बदल जाती है जिसके कारण दानों का सामान्य विकास रूक जाता है। दानों पर तिरछी सुरंग बन जाती है और दानों का आकार छोटा रह जाता है एवं बाद में प्रौढ बनकर बाहर आती है, जिसके कारण फली पर छोटा सा छेद दिखाई पडता है। फली मक्खी तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती है।
छेदक इल्ली:-
छोटी इल्लियाँ फलियों के हरे ऊत्तकों को खाती हैं व बडे होने पर कलियों, फूलों, फलियों व बीजों को नुकसान करती है। इल्लियाँ फलियों पर टेढे-मेढे छेद बनाती है। इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती है। इल्लियाँ पीली हरी काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ होती हैं । शंखी जमीन में बनाती है प्रौढ़ रात्रिचर होते है जो प्रकाष प्रपंच पर आकर्षित होते है। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।
फली का मत्कुण:-
मादा प्रायः फलियों पर गुच्छों में अंडे देती है। अंडे कत्थई रंग के होते है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क दोनों ही फली एवं दानों का रस चूसते हैं , जिससे फली आड़ी-तिरछी हो जाती है एवं दाने सिकुड़ जाते है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करते है।
प्लू माथ :-
इस कीट की इल्ली फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती है। प्रकोपित दानों के पास ही इसकी विष्टा देखी जा सकती है। कुछ समय बाद प्रकोपित दाने के आसपास लाल रंग की फफूँद आ जाती है। मादा गहरे रंग के अंडे एक-एक करके कलियों व फली पर देती है। इसकी इल्लियाँ हरी तथा छोटे-छोटे काटों से आच्छादित रहती है। इल्लियाँ फलियों पर ही शंखी में परिवर्तित हो जाती है। एक जीवन चक्र लगभग चार सप्ताह में पूरा करती है।
ब्रिस्टल ब्रिटलः
ये भृंग कलियों फूलों तथा कोमल फलियों को खाती है। जिससे उत्पादन में काफी कमी आती है। यह कीट अरहर, मूंग, उडद तथा अन्य दलहनी फसलों को नुकसान पहुचाता है। सुबह-षाम भृंग को पकडकर नष्ट कर देने से प्रभावी नियंत्रण हो जाता है।
कीट नियंत्रणः-
कीटों के प्रभावी नियंत्रण हेतु समन्वित संरक्षण प्रणाली अपनाना आवश्यक है। |
1. कृषि कार्य द्वारा:
2. यांत्रिकी विधि द्वारा:-
3. जैविक नियंत्रण द्वारा:-
4. जैव-पौध पदार्थों के छिडकाव द्वारा:
5. रासायनिक नियंत्रण द्वारा:-
6. कटाई एवं गहाई:- जब पौधे की पत्तियाँ खिरने लगे एवं फलियाँ सूखने पर भूरे रंग की हो जाए तब फसल को काट लेना चाहिए। खलिहान में 8-10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर या बैलों द्वारा दावन कर गहाई की जाती है। बीजों को 8-9 प्रतिषत नमी रहने तक सूखाकर भण्डारित करना चाहिए। उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15-20 क्विंटल/हेक्ट उपज असिंचित अवस्था में और 25-30 क्विंटल/हेक्ट उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है। |