Home किसान समाचार किसान इस तरह करें लम्पी स्किन डिजीज रोग की पहचान एवं उसका...

किसान इस तरह करें लम्पी स्किन डिजीज रोग की पहचान एवं उसका नियंत्रण

lumpy skin disease treatment

पशु में लम्पी स्किन डिजीज LSD रोग

भारत दुनिया में सबसे बड़ा पशुपालक तथा दुग्ध उत्पादक देश है। 20वीं पशुगणना के अनुसार देश में गोधन की आबादी 18.25 करोड़ है, जबकि भैंसों की आबादी 10.98 करोड़ है। इस प्रकार दुनिया में भैसों की संख्या भारत में सर्वाधिक है। देश की एक बड़ी आबादी पशुपालन से जुड़ी हुई है, यदि कोई भी रोग महामारी का रूप लेकर पशुओं को ग्रसित करता है तो इसका सीधा असर उनके उत्पादन पड़ता है, जिसका सीधा असर पशुपालकों की आय पर पड़ता है।

बारिश के मौसम में पशुओं में कई संक्रामक रोग फैलते हैं जिसमें लम्पी स्किन डिजीज भी एक है। लम्पी स्किन डिजीज (एलएसडी) या ढेलेदार त्वचा रोग वायरल रोग है, जो गाय-भैसों को संक्रमित करता है। इस रोग से कभी-कभी पशुओं की मौत भी हो सकती है। पिछले दो वर्षों में यह रोग तमिलनाडु, कर्नाटक, ओडिशा, केरल, असम, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में देखा गया है।

तेज़ी से फैलता है यह रोग

लम्पी स्किन डिजीज रोग को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे बहुत तेज़ी से फैलने वाले रोगों की सूची में रखा है। LSD वायरस मच्छरों और मक्खियों जैसे कीटों से आसानी से फैलता है। इसके साथ ही यह दूषित पानी, लार एवं चारे के माध्यम से भी पशुओं को संक्रमित करता है। गर्म एवं नमी वाला मौसम इस रोग को और ज़्यादा तीव्रता से फैलता है।ठंडा मौसम आने पर इस रोग की तीव्रता में कमी आ जाती है।

लम्पी स्किन डिजीज LSD रोग का फैलाव 

एलएसडी, क्रेप्रीपांक्स वायरस से फैलता है। अगर एक पशु में संक्रमण हुआ तो दुसरे पशु भी इससे संक्रमित हो जाते हैं। यह रोग मच्छरों–मक्खियों एवं चारे के जरिए फैलता है। भीषण गर्मी और पतझड़ के महीनों के दौरान संक्रमण बढ़ जाता है क्योंकि मक्खियाँ भी अधिक हो जाती है। वायरस दूध, नाक – स्राव, लार, रक्त और लेक्रिमल स्राव में भी स्रावित होता है, जो पशुओं को खिलाने और पानी देने वाले कुंडों में संक्रमण का अप्रत्यक्ष स्रोत बनता है | यह रोग गाय का दूध पीने से बछड़ों को भी संक्रमित कर सकता है। संक्रमण के 42 दिनों तक वीर्य में भी वायरस बना रहता है। इस रोग का वायरस मनुष्य के लिए संक्रमणीय नहीं है |

लम्पी स्किन डिजीज LSD रोग के लक्षण 

इस रोग से ग्रस्त पशु में 2–3 दिनों तक तेज बुखार रहता है। इसके साथ ही पूरे शरीर पर 2 से 3 से.मी. की सख्त गांठें उभर आती हैं। कई अन्य तरह के लक्षण जैसे कि मुँह एवं श्वास नली में जख्म, शारीरिक कमजोरी, लिम्फनोड (रक्षा प्रणाली का हिस्सा) की सूजन, पैरों में पानी भरना, दूध की मात्रा में कमी, गर्भपात, पशुओं में बांझपन मुख्यत: देखने को मिलता है। इस रोग के ज्यादातर मामलों में पशु 2 से 3 हफ्तों में ठीक हो जाता है, लेकिन दूध में कमी लम्बे समय तक बनी रहती है। अत्यधिक संक्रमण की स्थिति में पशुओं की मृत्यु भी संभव है, जो कि 1 से 5 प्रतिशत तक देखने को मिलती है।

एलएसडी को कई प्रकार के रोगों के साथ भ्रमित किया जा सकता है, जिसमें स्यूडो लंपी स्किन डिजीज (बोवाइन हर्पीसवायरस 2), बोवाइन पैपुलर स्टोमाडीकोसिस शामिल हैं | इसलिए इस रोग की पुष्टि प्रयोगशाला में उपलब्ध परीक्षणों के माध्यम से वायरस डीएनए या उसकी एंटीबॉडी का पता लगाकर करनी चाहिए।

पशुओं को इस रोग से बचाने के उपाय 

  • रोगी पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए, यदि फ़ार्म पर या नजदीक में किसी पशु में संक्रमण की जानकारी मिलती है, तो स्वस्थ पशु को हमेशा उनसे अलग रखना चाहिए।
  • रोग के लक्षण दिखाने वाले पशुओं को नहीं खरीदना चाहिए, मेला, मंडी एवं प्रदर्शनी में पशुओं को नहीं ले जाना चाहिए।
  • फ़ार्म में कीटों की संख्या पर काबू करने के उपाय करने चाहिए, मुख्यत: मच्छर, मक्खी, पिस्सू एवं चिंचडी का उचित प्रबंध करना चाहिए।
  • रोगी पशुओं की जांच एवं इलाज में उपयोग हुए सामान को खुले में नहीं फेंकना चाहिए एवं फ़ालतू सामान को उचित प्रबंधन करके नष्ट कर देना चाहिए।
  • यदि अपने फ़ार्म पर या आसपास किसी असाधारण लक्षण वाले पशु को देखते हैं, तो तुरंत नजदीकी पशु अस्पताल में इसकी जानकारी देनी चाहिए।
  • एक फ़ार्म के श्रमिक को दुसरे फ़ार्म में नहीं जाना चाहिए, इसके साथ–साथ श्रमिक को अपने शरीर की साफ़–सफाई पर भी ध्यान देना चाहिए। संक्रमित पशुओं की देखभाल करने वाले श्रमिक, स्वस्थ पशुओं से दूरी बनाकर रहें या फिर नहाने के बाद साफ़ कपड़े पहनकर स्वस्थ पशुओं की देखभाल करें।
  • पूरे फ़ार्म की साफ़–सफाई का उचित प्रबंध होना चाहिए, फर्श एवं दीवारों को अच्छे से साफ़ करके एक दीवारों की साफ़–सफाई के लिए फिनोल (2 प्रतिशत) या आयोडीनयुक्त कीटनाशक घोल (1:33) का उपयोग करना चाहिए।
  • बर्तन एवं अन्य उपयोगी सामान को रसायन से कीटाणु रहित करना चाहिए। इसके लिए बर्तन साफ़ करने वाला डिटरजेंट पाउडर, सोडियम हाइपोक्लोराइड, (2–3 प्रतिशत) या कुआटर्नरी अमोनियम साल्ट (0.5 प्रतिशत) का इस्तेमाल करना चाहिए।
  • यदि कोई पशु लम्बे समय तक त्वचा रोग से ग्रस्त होने के बाद मर जाता है, तो उसे दूर ले जाकर गड्डे में दबा देना चाहिए।
  • जो सांड इस रोग से ठीक हो गए हों, उनकी खून एवं वीर्य की जांच प्रयोगशाला में करवानी चाहिए। यदि नतीजे ठीक आते हैं, उसके बाद ही उनके वीर्य का उपयोग करना चाहिए।

अभी तक इस रोग का टीका नहीं बना है, लेकिन फिर भी यह रोग बकरियों में होने वाले गोट पॉक्स की तरह के टीके से उपचारित किया जा सकता है। गाय–भैंसों को भी गोट पॉक्स का टिका लगाया जा सकता है एवं इसके परिणाम भी बहुत अच्छे मिलते हैं  इसके साथ ही दुसरे पशुओं को रोग से बचाने के लिए संक्रमित पशु को एकदम अलग बांधे एवं बुखार और लक्षण के हिसाब से उसका इलाज करवाना चाहिए।

इलाज के लिए इन बातों का रखें ध्यान

यह रोग विषाणु से फैलता है, जिसके कारण इस रोग का कोई विशिष्ट इलाज नहीं है। संक्रमण की स्थिति में अन्य रोग से बचाव के लिए पशुओं का इलाज करना चाहिए।

  • रोगी पशुओं का इलाज के दौरान अलग ही रखना चाहिए,
  • रोगी पशुओं के बचाव के लिए जरूरत अनुसार एंटीबायोटिक दवाइओं का उपयोग किया जा सकता है।
  • दवाईयों का उपयोग डॉक्टर की सलाह अनुसार ही करना चाहिए।
  • यदि पशुओं को बुखार है, तो बुखार घटाने की दवाई दी जा सकती है।
  • यदि पशुओं के ऊपर जख्म हो, तो उसके अनुसार दवाई लगानी चाहिए।
  • पशुओं की खुराक में नरम चारा एवं आसानी से पचने वाले दाने का उपयोग करना चाहिए।

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
यहाँ आपका नाम लिखें

Exit mobile version