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लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी क्षेत्र का प्रबंधन

लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी क्षेत्र का प्रबंधन

लागत 

मिट्टी कार्य, भू-क्षरण कार्य, पौधरोपण, नर्सरी तथा आग से बचाव के लिये प्रथम वर्ष में 2.00लाख/हे. रूपये अनुमानित है। निकाई-गुडाई, मलचिंग, पुर्न पौधरोपण एंव आग से बचाव के लिये दितीय बर्ष में 0.50 लाख/ हे. का खर्च होता है। निकाई- गुडाई, मलचिंग, पुर्नपौधरोपण एवं आग से बचाव हेतू तृतीय बर्ष में 0.50% लाख/ हे. का खर्च होता है। चौथे बर्ष में आग से बचाव हेतू 25-30 हजार्/हे.का खर्च अनुमानित है। पाँचवे बर्ष मे आग से बचाव हेतू 25-30 हजार/हे. का खर्च होता है।

जलवायु बर्षा – 500-700 मि.मी., उच्च आर्द्रता तापमान – गर्मियो में औसत 35-39° सेल्सियस तथा सर्दियो में 12-17° सेल्सियस

मिट्टी 

मिटटी बनने की प्रक्रिया मुख्य रूप से भौतिक होती है, जो कमजोर हड्डीनुमा, अव्याक, छिछ्ली एवं लगभग बंजर भूमि का निर्माण करती है। जो भौतिक एंव जैविक रूप से अनुरूपादक होती है। मिट्टी मुरम, लाल, भूरा तथा पथरीली होती है। धुले हुये लवण की मात्रा 0.697 प्रतिशत तक होती है। क्रिया में मध्यम क्षारीय, कम जैव पदार्थ तथा नाइट्रोजन और मिटटी के पपडी तथा फटने के द्वारा पहचाना जाता है। पी.एच. मान उच्च 8.2से 10.4 तक, उच्च क्षार, अपूर्ण धुले हुये लवण का प्रवाह अपूर्ण मृदा स्तर का निर्माण तथा चूने का जमाव पाया जाता है। जल एंव पोषक तत्व धारण क्षमता कम होती है।

स्थलाकृति     

उँचाई- 560 से 680 मी., मिट्टी की संरचना गोल आकार की होती है तथा उच्च क्षारीय प्रवाह की स्थिति होती है।

मिट्टी पलटना  

अधिकतम बर्षाजल तथा न्यूनतम लवण सघनता (व्याक पौधों के क्रियाशील जड. क्षेत्र के पास) के लिये दिये गये मृदा कार्य ठीक पाये गये है। (क) उच्च चोटी वाले क्षेत्र मे साधारण पौध रोपण गडढे जिसका सबसे गहराई वाले जल संग्रहण गोला, चोटी के उच्च भाग से दूर हो। (ख) छिछली चोटी – नालियाँ, चोटी के उपर 0.5मी.0.3मी. आकार के पौध रोपण गडढे खोदी जानी चाहिये। (ग) गहरी चोटी सह नालियाँ (घ) 0.9मी. गहरी बेड का निर्माण एंव इसकी मिट्टी को अलवणीय मिट्टी से बदलना। (ड.) 0.3 मी. गहरी चैनल का निर्माण तथा इसकी चोटी पर बीजारोपण। (च) 0.9 मी. गहरी छेद का निर्माण तथा इसकी मिट्टी को पलट कर भर देना। प्रति गडदा 1कि.ग्रा. जिप्सम को मिलाना। (छ) जल प्रवाह के रास्ते 4.9 मी. की दूरी पर 0.5 मी. 0.6 मी. सतत् नालियों का निर्माण। (ज) 2.4 मी.की दूरी पर 2.4 मी. अवरोधक नालियों का निर्माण।

निकौनी

तीन निकाई प्रथम बर्ष में, दो निकाई दितीय बर्ष में तथा एक निकाई तृतीय बर्ष में दिया जाना चाहिये।

खाद एवं उर्वरक 

अच्छी आरंभ एवं पौध स्थापित होने के लिये सडी हुई गोबर की खाद, हरी खाद फसल जैसे सेसबानिया तथा जिप्सम, सल्फर या कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग आवश्यक है।

सिंचाई 

गर्मी तथा सूखे के मौसम में सिंचाई आवश्यक है।

कीट, रोग तथा जानवर   

मुख्य कीडे.- तना छेदक, पत्ती खाने वाली कीट, गाँधी कीडा, फलीछेदक। मुख्य रोग- ब्लाइट, शीथ् गलन, सूखने की बिमारी, मौजेक, तथा फलगलन।

उपयोग 

चारागाह-लकडी उत्पादक तथा छोटी लकडीयों के उत्पादन हेतू

पौधरोपण प्रबन्धन एंव तकनीक

लवणीय एवं क्षारीय मृदा के लिये, भूमि सुधार तकनीक मुख्य रूप से अच्छी गुण वाले जल की उपलब्धता तथा जलप्रवाह चैनल के निर्माण पर निर्भर करती है ताकि लवण को जड.-क्षेत्र के नीचे रखा जा सके। लवण कृषि फसलों के सामान्य जड. क्षेत्र के उपर नहीं आना चाहिये। ऐसे क्षेत्र जहाँ उच्च जल स्तर हो , वहाँ पर कृत्रिम जल प्रवाह की व्यवस्था करनी चाहिये। तरीकों में दिये गये कार्य को शामिल करना चाहिये

  • गहरी नालीयों का निर्माण ताकि सतही जलप्रवाह का प्रबंधन तथा बर्षाजल का संरक्षण किया जा सके।
  • अल्गी तथा अन्य पौध की बढत
  • भूभाग को घास या आईपोमिया कारनिया से भर देना चाहिये।
  • आर्थिक रूप से उपयोगी पौधों को लगाना चाहिए।
  • 10-15टन प्रति एकड मोलासेस से भूमि – सुधार करना चाहिए।
  • जल स्तर को कुओं तथा पम्प की सहायता से कम करना चाहिए।
  • चट्टानों को तोडना।
  • जिप्सम,सल्फर तथा कैल्शियम क्लोराइड का उपयोग।
  • सडी हुई गोबर-खाद का प्रयोग।
  • हरी खाद जैसे सेसवानिया का उपयोग।
  • लवण-प्रतिरोधी पौध को लगाना।

एक बार मृदा सुधार हो जाये तो हरी खाद वाली फसलों को पहले उगाना चाहिये ताकि मृदा को जोतने में कठिनाई नहीं हो। फिर उसके बाद कृषि-फसल सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। लवणीय एंव क्षारीय क्षेत्रो में मिट्टी को बदलने की तकनीक से पौधरोपण किया जा सकता है। इसके लिए बंजर भूमि को अच्छी मृदा में बदलने की जरूरत होती है। 0.6मी. चौडे. तथा 1.2मी. गहरे पौधरोपण गडढे संतोषजनक होते हैं। गहरी पौधरोपण गडढे से नीचे की कडी सतह टुट जाती है, जिससे वायु-प्रवाह तथा जल प्रवाह में सुधार होता है एवं पौधों की बढत तथा स्थापित होने में सहायता मिलती है।सडी हुई गोबर तथा जिप्सम की पर्याप्त मात्रा सफलता के लिये आवश्यक है। बीज की सीधी बुआई सफल नहीं होती है, अत: पौधशाला में निर्मित पौधों को लगाना चाहिये। सजीव घेराव हेतू सिसल के पौधों को लगाना चाहिये तथा खाली जगहों पर उपयोगी तथा अच्छी प्रजाति की घास जैसे करबाल घास (डिपलायेन फुसका) को लगाना चाहिये।

बीजारोपण जून-जुलाई के महीने में तथा पौधरोपण अगस्त-सितम्बर महीने में करना चाहिये जो कि बर्षा के वितरण पर आधारित होता है। पौधरोपण हेतू बनाये गये छेद में मिट्टी एंव गोबर भरकर विलायती बबुल एवं बबुल लगाया जा सकता है। बबुल- खैर, दिलमनी बबुल, कंरज तथा पलाश का बीजारोपण मेढ पर करना चाहिये। 9 महीने का युकैलिप्टस एवं, आकाशी तथा बबुल के नर्सरी मे उत्पादित पौधों को मेढ पर लगाना चाहिये। भूभाग को लंबे समय तक घेराव करने से घास की अच्छी बढत होती है जिससे जल के साथ लवण की मिट्टी में उपरी प्रवाह को कम होता है। विभिन्न प्रजाति की ऐसी मिट्टी में उत्तरजीविता इस प्रकार है- नीम-90%, शीशम-60%, अर्जुन-55%, कंरज-50%, युकैलिप्टस -55%, सिरिस-55%, महुआ-55%, तथा बहेडा- 40%

पुनपौधरोपण    

अगले वर्ष में नर्सरी में उत्पादित पौधों के द्वारा पूर्व पौधरोपण किया जाता है।

वितरण एंव लक्षण

(क) शुष्क से अर्द्धशुष्क जलवायु

(ख) मिट्टी या कंकर पैन के चलते उप-मृदा में रूकी हुई जल प्रवाह, उच्च जल स्तर या समतल और तश्तरी आकार की भूआकृति

(ग) लवणीय परत की उपस्थिति। लवणीय मिट्टी लवण की अधिकता के कारण् उच्च रसाकर्षण दबाब होता है जिससे जल एवं पोषक तत्व के अवशोषण में बाधा आती है।

क्षारीय मिटटी में, मिटटी की संरचना खत्म हो जाती है, जिसके चलते कम जल-प्रवाह, वायु-प्रवाह, एवं जैविक कार्य की कमी हो जाती है। उच्च पी.एच. के कारण लोहा, ताँबा, मैगनीज तथा जस्ता की घुलन क्षमता एंव उपलब्धता कम हो जाती है।

उपज  

बढत धीमी होती है। औसत उँचाई एवं व्यास क्रमश: 6-12मी. तथा 20-25से.मी., 25 बर्ष की अवस्था में अनुमानित है।

प्राप्ति  

उच्च लागत तथा धीमी बढत के कारण पौधरोपण आर्थिक दृष्टि से लाभकारी नहीं है। लेकिन लगातार सुधार से क्षेत्र को चारागाह में बदला जा सकता है।

उपयुक्त प्रजाति 

सीसम, बबुल, नीम, अमडा, खैर, आकाशी, सिरिस, पलाश, झाऊ, चकुण्डी, शीशम, बाँस, दुब घास, युकिल्प्टिस, पीपल, थेथर, महुआ, बकैन, विलायती बबुल, कंरज, सेसवानिया ग्रांडी फ्लोरा, इमली, बहेडा तथा अर्जुन।

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