सफेद सिरस की खेती
परिचय –
सफ़ेद सिरस (एल्बीजिया प्रोसेरा, कुल माइमोसी) भारत के सभी मानसूनी प्रक्षेत्रों में पाई जाने तथा तेजी से बढ़ने वाली, प्रजाति हैं, इसके वृक्ष की ऊँचाई लगभग 25 मीटर व गोली लगभग 60 – 70 से.मी. होती है | वृक्ष का तना भूरे सफ़ेद तथा हल्के हरे रंग का चिकना तथा सीधा अथवा टेढ़ा मेढ़ा होता है | इसमें पुष्पन जून से सितम्बर माह में होता है | इसकी फली में 6 से 12 बीज होते हैं तथा बीजोत्पादन प्रचुरता से होता है | बीज के परिपक्व होने में 3 – 5 महीने लगते हैं |
वनवर्धन लक्षण –
- प्रकाश – उच्च प्रकाश सहय |
- मृदा अवस्था – सूखे, बंजर अथवा ऊपर जमीन पर यह जीवित रहता है |
- पाता – यह पालारोधी होता है |
- आग – यह आग के प्रति संवेदनशील है |
- कापिस क्षमता – उच्च कापिस क्षमता वाली प्रजाति है |
रोपणी व रोपण विधि –
क्यारी की तैयारी, बीज संग्रहण व बोआई – क्यारी की मिटटी बुलाई होनी चाहिए | बीजों का संकलन स्वस्थ वृक्षों से करना चाहिए | धूप में सुखाएं गए बीजों की जीवितता लम्बी अवधि की होती है | बीजों को बोआई के पहले 24 घंटे गर्म पानी में डुबाया जाना चाहिए | अंकुरण 3 से 4 दिनों में प्रारंभ होता है, तथा 90 प्रतिशत बीज अंकुरित होते है |तिन महीनों में पौधों की ऊँचाई लगभग 1.5 -2 फीट हो जाटी है | बीजों की बोआई 8 से.मी. होनी चाहिए | दिव्पत्रीय अवस्था में पौधों का स्थानान्तरण मिटटी, रेत व खाद्युक्त पली बैग में करना चाहिए |
ठूंठ की तैयारी –
एक वर्षीय पौधों का चयन ठूंठ की तैयारी में करना चाहिए |
खेत की तैयारी –
यह प्रजाति दोमट रेतीली मिटटी में अच्छे से विकसित होती है | गर्मी के पूर्व 30 से.मी. × 30 से.मी. × 30 से.मी. का गड्ढा खोदकर उसमें मिटटी के साथ जिप्सम अथवा गोबर खाद आंशिक रूप से मिलाना चाहिए | आद्र जलवायु वाले क्षेत्रों, जैसे आसाम में बिना गड्ढा खोदे ठूंठ को लगाया जाता हैं|
रोपण –
मानसून आने पर ठूंठ अथवा पौधों का रोपण किया जाता है | 2 मी. × 2 मी. अथवा 3 मी. × 3 मी. वाले ब्लाक रोपण में अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छे परिणाम मिलते है | कृषि क्षेत्रों में अथवा मेड पर 3 मीटर अथवा 4 मीटर की दुरी पर पौधा लगाया जाता है |
संरक्षण –
चराई –
भेड, बकड़ी, हाथी तथा चराई करने वाले जानवरों से इसे बचाया जाना चाहिए |
कीट प्रकोप –
जून से सितम्बर महीने में पत्तियों पर यूरेमा ब्लेन्डा तथा अन्य कीड़ों का आक्रमण होता है, जिससे बचाने के लिए मोनोक्रोटोफास का 0.04 प्रतिशत घोल का छिड़काव किया जाता है | इसके तनों पर जाइस्ट्रोसेरा ग्लोबोसा लार्वा का आक्रमण होता है, जिससे बचने हेतु पैराडाईक्लोरो बेंजीन तथा मिटटी तेल 1:10 भाग में मिलाकर छिड़काव किया जाता है इसकी जड़ों में गैनोडर्मा फफूंद का आक्रमण भी होता है, तथा छोटे पौधों पर मुरझाने की बीमारी फ्यूजेरियम फफूंद के कारण इसके उपचार हेतु 0.3 प्रतिशत डायथेन घोल का छिड़काव करते हैं |
तनों में भी फ्यूजेरियम फफूंद के कारण गांठ बन्ने की बीमारी होती है, जिसे 0.3 प्रतिशत फइटोलोन घोल के छिड़काव से नियंत्रित किया जाता है | पत्तों को रेवेनेलिया के आक्रमण से बचाने हेतु 0.2 प्रतिशत सल्फेक्स घोल का छिड़काव किया जाता है |
पुर्नरुत्पादन
प्राकतिक पुर्नरुत्पादन बीज अथवा कापिस द्वारा किया जाता है | इसमें जड़ोत्पादन काफी मुश्किल होता है | कृत्रिम पुर्नरुत्पादन निम्न विधियों द्वारा होता है –
- बीज
- कापिस
- बरसात में गुट्टी बांधना
- उत्तक संवर्धन
- पत्तियों द्वारा लघु प्रजनन के माध्यम से
- कोमल प्ररोहों का 100 ppm IBA के घोल में 4 घंटे के उपचार द्वारा |
उपयोग
काष्ठ –
इसका उपयोग पैनेल, टेबल बोर्ड, गाड़ियों के ढाँचा बनाने में, कृषि उपकरण तथा अन्य उपकरणों के हैंडल बनाने में किया जाता है |
चारा –
महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, त्रिपुरा, उतर प्रदेश में इसकी पत्तियों तथा कोमल शाखाओं का उपयोग चारे के रूप में होता है |
जलाऊ लकड़ी –
इसके काष्ठ 6.84 प्रतिशत आद्रता तथा 89.56 प्रतिशत कार्बन होता है, जो इसकी ज्वलनशीलता को बढाता है | इससे उच्च कोटि का कोयला प्राप्त होता है |
रेशे –
इसके रेशे की लंबाई 0.70 से 1.65 मि.मी. तथा मोटाई लगभग 0.014 से 0.020 मि.मी.होती है जो पेपर व लुगदी के रूप में प्रयोग में लेन हेतु इसे आदर्श प्रजाति बनाते है | इसकी काष्ठ से उच्च कोटि के छपाई वाले कागज का भी उत्पादन होता है |
औषधीय व अन्य उपयोग –
पौधे के सभी हिस्सों का उपयोग कैंसर रोधी के रूप में होता हैं | इसकी जड़ से प्राप्त सैपोनिन का तनु घोल (0.008 प्रतिशत) पेट के कीड़ों को मारने में होता है | इसकी पत्तियों का उपयोग कीटनाशक अथवा अलसर के इलाज में होता है |ताने के उपरी सतहों का आसवित जल हडिडयों के जोड़ों के दर्द, रक्त के बहाव को रोकने तथा गर्भावस्था में,अथवा पेट दर्द दूर करने में किया जाता है | इसके बीजों में प्रोसिरेनिन होता है, जिसका उपयोग चूहों के मारने में किया जाता है |
कृषिवानिकी तथा नाईट्रोजन स्थिरीकरण –
इसकी जड़ों में मिटटी को बंधने की अच्छी क्षमता होती है, एस कारण इसका उपयोग कृषिवानिकी में बहुतायत से चाय व काफी उत्पादन हेतु किया जाता है | यह प्रजाति वातावरण की नाईट्रोजन को संचित कर मिटटी की उर्वरकता को बढ़ाने में सहायक है |
अर्शतंत्र –
20 वर्ष की आयु वाले रोपण का 15 प्रतिशत छूट (डिस्काउंट रेट) तथा 19 प्रतिशत आंतरिक प्राप्ति की दर से लाभ / लगत का अनुपात 1.21 है |