बर्बादी रोकनी है, तो नमभूमि बचायें
विश्व नमभूमि दिवस पर विशेष–तल, वितल, सुतल में नमी न हो, तो भूमि फट जाये और हम सभी उसमें समा जायें। भूमि की ऊपरी परत में नमी न हो, तो चाहे जितने बीज बिखेरें, वे सोये ही रहेंगे; नन्हा अंकुर कभी बाहर नहीं आयेगा। हवा में नमी न हो, तो धरती तापघर में तब्दील हो जाये; नन्हा अंकुर दिन-दहाड़े झुलस जाये। नम हवा चलती है, तो फसलों में जरूर कुछ कीडों वाली छोटी-मोटी बीमारियां लाती है, लेकिन हवा में नमी न हो, तो फसल ही न हो; हम भूख से मर जायें। कितने पौधे हैं, जो अपनी जीवन-जरूरत का पानी मिट्टी से नहीं, हवा से लेते हैं। दुनिया में जैव विविधता का आंकड़ा लगातार घट रहा है। हवा की नमी में और कमी हुई, तो जैव विविधता का सत्यानाश तो तय है; हमारी सेहत का भी।
यह हवा की नमी ही है कि जो जलवायु, वर्षा और किसी स्थान के तापमान का निर्धारण करती है। हवा में नमी घटती जाये, तो सब कुछ उलट-पुलट जाये। हवा में नमी न हो, तो सूरज धरती का सब पानी चोरी कर ले जाने में सफल हो जाये; हमारे सब झील, तालाब, नदी, समुद्र सूखकर रेगिस्तान में तब्दील हो जाये। इस रिश्ते को जानते हुए ही हमारे गरीब से गरीब रेगिस्तानी गांव ने भी तालाब बनाते वक्त उसके दक्षिण और पश्चिम सिरे पर छायादार दरख्त लगाये।
मूल प्रश्न यह है कि यदि हवा की नमी से भूमि की नमी के इस रिश्ते की समझ भारतीय गांवों के अनपढ़ों तक को है, तो क्या ऑस्ट्रेलियाई सरकार के विशेषज्ञों को न होगी ?
सरकार पर हावी बाज़ार
गौर कीजिए कि ऑस्ट्रेलिया, नमभूमि संरक्षण को गति देेने संबंधी रामसर सम्मेलन समझौते पर सबसे पहले हस्ताक्षर करने वाले देशों में से एक है। ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने अपने देश में नमभूमि क्षेत्रों को बचाने के लिए बाकायदा उन्हे ‘नेचर रिजर्व एरिया’ घोषित किया है; संरक्षण हेतु नीतियां, कायदे, कानून और कार्यक्रम बनाये हैं। दुखद है कि अपनी नमभूमि को लेकर ऐसा संजीदा देश, दुनिया की हवा से नमी छीनने की व्यावसायिक होड़ बढ़ाने का सूत्रधार बनने जा रहा है।
दुनिया को इस वक्त वैश्विक तापमान में वृद्धि को नियंत्रित करने वाली कार्बन अवशोषण प्रौद्योगिकी की होड़ को बढ़ावा देने की जरूरत है, न कि बाज़ार और शोषण को बढ़ाने वाली प्रौद्योगिकी की होड़ को बढ़ावा देने की; बावजूद इस सच के यदि ऑस्ट्रेलिया सरकार यह कर रही तो, इसे ऑस्ट्रेलिया सरकार में समझ के अभाव की बजाय, सरकार पर बाज़ार का प्रभाव ही अधिक मानना चाहिए।
ऑस्ट्रेलियाई सरकार के पुरस्कार समझौते में टाटा औद्यागिक घराने के शामिल होने का मतलब है कि भारत में हवा-पानी का बाज़ार भी इस होड़ के निशाने पर है। यह संकेत है कि भारत के पानी बाज़ार में फिल्टर और आर ओ मशीनों की व्यावसायिक सफलता के बाद अब हवा से पानी सोख लेने की औद्योगिक और घरेलु मशीनों का दौर आने वाला है।
ऐसे में जलवायु की मार को बढ़ने से कौन रोक सकता है ? पिटने को तैयार रहिए।
रामसर सम्मेलन की चेतावनी
हमारी ऐसी कारगुजारियों को देखते हुए ही विश्व नमभूमि दिवस – 2018 पर विनाश के खतरों को कम करने के लिए नमभूमि बचाने का नारा ज़रूरी है है। कैस्पियन सागर के ईरानी तट पर आयोजित रामसर सम्मेलन दो फरवरी, 1971 से हमें लगातार सचेत और संकल्पित करने की कोशिश कर रहा है। इसी कोशिश के तहत् वर्ष 1997 से प्रति वर्ष दो फरवरी को विश्व नमभूमि दिवस के रूप में मनाया जाता है।
नमभूमि का मतलब है, एक ऐसी भूमि जो या तो उथले पानी के द्वारा ढकी हुई है अथवा उसके बीच संक्रमित है अथवा वहां पानी का तल भूमि की सतह के पास हो। रामसर सम्मेलन नमभूमि को दलदल, दलदली भू पट्टी, वनस्पति पदार्थाें से ढकी भूमि, प्राकृतिक-कृत्रिम, स्थायी-अस्थायी, स्थिर अथवा बहते हुए मीठे-खारे पानी के क्षेत्र केे रूप में परिभाषित करता है। वह समुद्री पानी के उन क्षेत्रों को भी नमभूमि की परिभाषा में शामिल करता है, जिनकी गहराई कम ज्वार में छह मीटर से अधिक नहीं जाती। रामसर सम्मेलन मानता है कि ऐसे भूमि क्षेत्रों को बचाकर विध्वंस का खतरा कम किया जा सकता है।
भारत के कदम
भारत ने भी रामसर सम्मेलन समझौते में दस्तखत किए है। इसी समझौते के तहत् भारत में राष्ट्रीय नमभूमि संरक्षण कार्यक्रम भी बनाया गया। केन्द्रीय नमभूमि नियामक प्राधिकरण भी बना। अहमदाबाद, सूरजपुर झील, भरतपुर झील, हस्तिनापुर झील, हरीके बर्ड सेन्चुरी समेत देश के कई नमभूमि क्षेत्रों में प्रति वर्ष विश्व नमभूमि दिवस संबंधी आयोजन भी होते हैं। चिल्का झील संरक्षण के लिए भारत को ’रामसर अवार्ड’ भी दिया गया है। भोपाल झील संरक्षण प्रयासों की भी तारीफ की गई।
बड़ी संख्या में नमभूमि क्षेत्रों की पहचान भी की गई, कितु अब तक मात्र 115 को संरक्षित श्रेणी में रखा गया है।
विशेष संरक्षण की आवश्यकता के मद्देनज़र भारत के 26 नमभूमि क्षेत्रों को ‘रामसर साइट’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया है: वूलर झील (जम्मू-कश्मीर), होकेरा (जम्मू-कश्मीर), सूरींसर मानसर झीलें (जम्मू-कश्मीर), तोमोरिरि (जम्मू-कश्मीर), पोेग बांध झील (हिमाचल प्रदेश), रेनुका झील (हिमाचल प्रदेश), चन्द्रताल (हिमाचल प्रदेश), हरीके नमभूमि (पंजाब), सांभर झील (पंजाब), कांजी नमभूमि (पंजाब), रोपड़ नमभूमि (पंजाब), केवलादेव नेशनल पार्क (राजस्थान), बृजघाट से नरोरा तक ऊपरी गंगा नदी (उत्तर प्रदेश), भोज नमभूमि (मध्य प्रदेश), नलसरोवर पक्षी विहार (गुजरात), भीतरकनिका (उड़ीसा), चिल्का (उड़ीसा), कोलेरु झील (आंध्र प्रदेश), प्वाइंट केलीमेरे वाइल्डलाइफ एण्ड बर्ड सेन्चुरी (तमिलनाडु), सास्थामकोट्टा झील (केरल), वेम्बानाद नमभूमि (केरल), अस्तामुदी (केरल), पूर्वी कोलकाता नमभूमि (प. बंगाल), दीपोर बील (असम), लोकटक झील (मणिपुर) और रुद्रसागर झील (त्रिपुरा)।
चुनौती और संभावना
संभावना यह है कि लद्दाख से लेकर केरल तक और पश्चिम की सिंधु नदी से लेकर असम, मेघालय, मणिपुर तक देखें तो भारत में नमभूमि क्षेत्र का रकबा कम नहीं है। दुनिया का सबसे नमभूमि क्षेत्र – मावसींरम भारत में ही है। सुंदरबन, अंडमान निकाबोर द्वीप समूह, कच्छ की खाड़ी, लक्षद्वीप के तटीय प्रवाल भित्ति क्षेत्र भी नमभूमि क्षेत्र में ही शुमार हैं। समुद्रतटीय नमभूमि क्षेत्रफल 6750 वर्ग किलोमीटर दर्ज किया गया है। नदियों को छोड़ दें, तो भारत का करीब 18.4 प्रतिशत भूभाग नमभूमि है। इस 18.4 प्रतिशत नमभूमि के 70 प्रतिशत पर भारत, धान की खेती करता है। सिचित भूमि, नदी और अन्य छोटे नालों को छोड़ दें, तो भारत का कुल नमभूमि क्षेत्रफल 41 लाख हेक्टेयर आंका गया है। इस कुछ क्षेत्रफल में 15 लाख हेक्टेयर प्राकृतिक तथा 26 हेक्टेयर मानव निर्मित बताया जाता है।
चुनौती के रूप में उलटती पहली तसवीर उत्तर प्रदेश से है।
उत्तर प्रदेश का मात्र 5.16 फीसदी हिस्सा ही नमभूमि क्षेत्र के रूप में बचा है। इसमें भी 82 प्रतिशत प्राकृतिक नमभूमि है। बागपत और हाथरस में सबसे कम 0.18 प्रतिशत नमभूमि का आंकड़ा भूजल के मामले में उत्तर प्रदेश के दो जिलों की पोल खोल देता है।
यह तो सिर्फ एक नजीर है। भारत में लगातार व्यापक होता भूजल संकट तथा देशी-विदेशी पक्षियों के प्रवास तथा घनत्व में आई कमी गवाह है कि कानूनी कवायद और प्रावधानों के बावजूद हम भारत के अतुलनीय नमभूमि क्षेत्रों की निर्मलता और भूमि का संरक्षण करने में सफल साबित नहीं हुए हैं।
कारण क्या है ?
भूजल निकासी की अधिकता, भूजल पुनर्भरण में कमी और जंगल कटान तो कारण है ही; नदियों की अविरलता-निर्मलता में होती घटोत्तरी भी एक प्रमुख कारण है। समझने की जरूरत है कि नमभूमि क्षेत्रों की गुणवत्ता स्थानीय नदी, वनस्पति तथा भूजल भण्डारों पर निर्मर करती है। भारत के ज्यादातर नमभूमि क्षेत्र प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से गंगा, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी, ताप्ती जैसी नदी प्रणालियों से ही जुडे़ हैं। अब यदि नदियां ही मैली और सूखी होती जा रही हों, तो इनसे जुड़े नमभूमि क्षेत्रों की सुरक्षा की गारंटी कहां बचती है।
नमभूमि को बेकार भूमि मानकर उस पर निर्माण करने का लालच हमारा इतना ज्यादा है कि हम उदयपुर, बंगलुरु जैसी मैदानी ही नहीं, नैनीताल जैसी पहाड़ी झील नगरियों में भी झीलों को बसावटों के कब्जे से नहीं बचा पा रहे हैं।
मानस बदलने की जरूरत
यमुना किनारे स्थित दिल्ली की नमभूमि को लेकर अक्षरधाम मंदिर, खेलगांव मेट्रो माॅल, मेट्रो मकान, बस डिपो निर्माण और गत् वर्ष श्री श्री रविशंकर जी तथा सरकार द्वारा दर्शाया रवैया गवाह है कि कब्जा मुक्ति तो दूर, नमभूमि की महत्ता को हम अभी तक अपने कर्ताधर्ताओं के मानस में नहीं उतार पाये हैं।
हम नहीं समझा पाये हैं कि नमभूमि सिर्फ एक सतही अथवा भूजलीय ढांचा नहीं होती, नमभूमि वास्तव में एक जटिल पारिस्थितिकीय प्रणाली होती है। भूजल के तल को ही ऊपर नहीं उठाती, अपितु कई तरह की परिस्थितिकीय, सामाजिक व आर्थिक सेवायें प्रदान करती है। भूमि की नमी और नम वनस्पति से हवा की नमी बढ़ती है, तो हवा में नमी से भूमि की नमी बचाये रखने में मदद मिलती है। हमारी कृषि के प्रकार, फसल उपज से लेकर मकान निर्माण की सामग्री तक का निर्धारण करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक नमभूमि का होना, न होना ही है। पक्षियों का घनत्व और आवास-प्रवास काफी कुछ नमभूमि पर निर्भर करता है। नमभूमि, कई दुर्लभ प्रजाति के कीड़ों और जानवरो को भोजन भी उपलब्ध कराती है। नमभूमि, कई उपयोगी देशज पौधों की भी घर होती है। हमारा जीवन भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इन सभी से प्रभावित होता है।
नमभूमि बचाये बगैर न तो वैश्विक तापमान में वृद्धि रोकी जा सकती है और न ही जलवायु परिवर्तन की मार से बचा जा सकता है। अतः अपने स्वार्थ के लिए सही, अब जरूरी हो गया कि यदि बर्बादी से बचना है, तो नमभूमि बचायें।