दलहन उत्पादन सुरक्षा एवं प्रसंस्करण की तकनीक
भारत में दलहन को लगभग 220 – 230 लाख हेक्टयर क्षेत्रफल में उगाया जाता है | जिससे प्रतिवर्ष 130 – 145 लाख टन उत्पादन प्राप्त होता है | वर्तमान में देश के अधिकांश भागों में दलहन की खेती परम्परागत विधियों द्वारा की जा रही है |
दलहन फसलों को अविशिष्ट श्रेणी में जाना जाता है , क्योंकि इनकी जड़ों में पायी जाने वाली ग्रंथिकाओं में वायुमंडलीय नत्रजन के स्थिकरण द्वारा मृदा उर्वरता को अक्षुण रखने की विलक्षण क्षमता होती है | इन फसलों में प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने का विशेष गुण होता है | डालें, प्रोटीन का प्रचुर तथा सबसे बड़ा श्रोत है जो देश की शाकाहारी जनसंख्या के भोजन का अवयव है | मृदा में नमी के प्रति उच्च सहनशीलता के कारण इन फसलों का विभिन्न फसल प्रणालियों विशेषकर बारानी खेती में महत्वपूर्ण स्थान है | भारत में दलहनी फसलें रबी, खरीफ तथा बसन्त / ग्रीष्म तीनों ही ऋतुओं में उगायी जाती है | खरीफ में मुख्य रूप से अरहर, उड़द, मुंग, तथा रबी में चना, मटर, मसूर व राजमा की खेती होती है जिनके उत्पादन सुरक्षा व प्रसंस्करण की तकनीक निम्न प्रकार हैं :-
अरहर :-
अरहर अल्पकालीन किस्में:- 140 – 170 दिन में पक जाती है | बुवाई जून के मध्य में करके पैदावार 15 – 20 कुन्तल / हे. की उत्पादन क्षमता से प्राप्त की जा सकती है |
दीर्घकालीन किस्में :- 250 – 270 दिन में पक जाती है बुवाई जुलाई मध्य में पैदावार 20 – 28 कुंतल/हे. तक मिलती है | अमर, नरेन्द्र अरहर – 1 मालवीय अरहर – 6, आजाद, नरेन्द्र अरहर – 2, मालवीय अरहर – 13 प्रजातियाँ प्रमुख हैं |
मूंग :-
मूंग की खरीफ में बुवाई मध्य जुलाई व जायद में मार्च से अप्रैल प्रथम सप्ताह में विभिन्न उन्नतशील किस्में 65 – 75 दिन में पककर तैयार हो जाती है | तथा इनकी उत्पादन क्षमता 10 – 12 कुन्तल / हे. होती है | सम्राट एच.यू,एम – 2, पूसा विशाल व पूसा 9531 प्रजातियाँ उगायी जा सकती हैं |
उर्द :- उर्द की, बुवाई खरीफ में मध्य जुलाई व जायद में मार्च से अप्रैल प्रथम सप्ताह में की जाती है | विभिन्न उन्नतशील किस्में 75 – 85 दिन में पककर तैयार जो जाती है तथा इनकी उत्पादन क्षमता 10 – 12 कुन्तल / हे. तक है | नरेन्द्र उर्दू – 1, उत्तर आजाद उर्द – 1 किस्में भी उगा सकते हैं |
चना :-
चना की विभिन्न देशी व काबुली किस्मों की बुवाई अक्टूबर के मध्य से नवम्बर प्रथम सप्ताह तक की जाती है | 140 – 150 दिन में फसल पक जाती है तथा उत्पादन 25 – 30 कुन्तल / हे. प्राप्त होता है | पन्त चना – 186, सम्राट, के.डब्ल्यू.आर. – 108, डी.सी.पी. 92 – 3, चमत्कार व आलोक किस्में अधिक पैदावार देती है |
मटर :-
मसूर की बुवाई अक्टूबर के मध्य में की जाती है | मसूर की विभिन्न उन्नतशील किस्में 130 – 135 दिन में पाक जाती है तथा पैदावार 16 – 20 कुन्तल / हे. प्राप्त होती है | प्रिया, शेरी, पन्त मसूर – 4 किस्में ले सकते हैं |
खाद एवं उर्वरक :-
सभी दलहनी फसलों में उर्वरक नत्रजन 15 – 20, फास्फोरस 40 – 60 तथा पोटाश 20 कि.ग्रा./हे. की आवश्यकता होती है, परन्तु यह मात्रा घट बढ़ सकती है | उर्वरकों का प्रयोग करें तो अति प्रभावी होगा |
प्रसंस्करण
मिलिग :-
अधिकांश कृषक की कटाई के तुरन्त बाद अपने उत्पाद को कम मूल्य पर बेच देते है | अपने उत्पादन का अधिक मूल्य पाने हेतु दलहन उत्पादकों द्वारा सफाई, ग्रेडिंग तथा मिलिंग जैसे प्राथमिक प्रसंस्करण करना चाहिये | आहार के लिये स्वच्छ दानों से दाल प्राप्त करना मिलिंग का प्रमुख उद्देश्य है | कृषक तथा दलों के बनाने वाले मिल मालिक मिलिंग के दौरान दानों के टूटने को रोककर अधिक लाभ अर्जित करना चाहते है | दलहनों की मिलिंग, कुटीर इकाईयों के अतिरिक्त, उच्च क्षमता व्यवसायिक दलहन विधायन संयत्रों द्वारा की जाती है | कटाई से पूर्व तथा भंडारण के दौरान, दानों की अवस्था, मिलिंग के समय दल की प्राप्ति प्रभवित करता है |
अधिकांश दलहनों में दलों की औसत प्राप्ति लगभग 70 – 72 प्रतिशत होती है | सामान्यत: दलहनों में भूसे का प्रतिशत 11 – 15 प्रतिशत के बीच होता है | टूटे हुये दानों सहित दाल की प्राप्ति 85 – 89 प्रतिशत होनी चाहिए | दल बनाने में दानों को मजबूती से समेटे बीज आवरण को हटाना तथा बीज पत्रों को तोडना सम्मिलित होता है | दाल बनाने से उसकी गुणवत्ता, पाचकता तथा उसके ब्राह्य रूप, आदि में सुधार होता है | दलहनों से दाल दो प्रकार से बनाई जाती है |
- दाल बनाने की परम्परागत विधि श्रम प्रधान, अधिक समय लगाने वाली, मौसमी कारकों पर पूर्णतया निर्भर रही है तथा इससे दाल की प्राप्ति भी कम मिलती है |
- मीलों द्वारा वृहद स्तर पर प्रसस्करण हल ही में भारतीय दलहन , कानपूर द्वारा मिनी दाल मिल विकसित की गयी है | जो ग्रामीण स्तर पर छोटे उधमियों द्वारा सुगमता से प्रयोग की जा सकती है |