खस या वेटिवर एक भारतीय मूल की बहुवर्षीय घास है। इसका वानस्पतिक नाम वेटिवेरिया जिजेनआयोडीज है, जो पोएसी परिवार के अंतर्गत आती है। खस की जड़ों से प्राप्त सुगंधित तेल की कीमत राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 20 से 25 हजार रुपये प्रति लीटर तक है और खास बात यह है की इसकी खेती बाढ़ग्रस्त, बंजर या पथरीली भूमि के साथ ही प्रत्येक जगह पर की जा सकती है। ऐसे में खस की खेती उन किसानों के लिए वरदान साबित हो सकती हैं जहाँ प्राकृतिक आपदाओं के चलते अन्य फसलों की खेती बर्बाद हो जाती है।
वैसे तो दक्षिण भारतीय राज्यों में खस की जड़ों की उत्पादन क्षमता ज्यादा है, लेकिन इससे निकले तेल की कीमत कम मिलती है। उत्तरी भारत में उगने वाले खस की जड़ों की गुणवत्ता काफी अच्छी होती है तथा इसकी कीमत भी ज्यादा मिलती है। उत्तरी भारत में उत्पादित खस की जड़ों से तेल 14 से 18 घंटों में आसवन विधि द्वारा निकला जाता है, जबकि दक्षिण भारत में उत्पादित खस की जड़ों से 60-70 घंटों में तेल निकाला जाता है। उत्तरी भारत में उत्पादित तेल की वर्तमान कीमत लगभग 10,000 से 18,000 रुपये प्रति किलोग्राम मिल सकती है। विश्व बाजार में खस तेल की वर्तमान कीमत लगभग 25,000 रुपये प्रति किलोग्राम है।
खस का उपयोग क्या है?
उत्तरी भारत में उत्पादित होने वाले खस के सुगंधित तेल की उच्च गुणवत्ता की कीमत अंतराष्ट्रीय बाजार में बहुत अच्छी प्राप्त होती है। खस की जड़ों से निकाला गया सुगंधित तेल मुख्यतः: शरबत, पान मसाला, तम्बाकू, इत्र, साबुन तथा अन्य सौन्दर्य संसाधनों में प्रयोग किया जाता है। इसकी सुखी हुई जड़ें लिनन व कपड़ों में सुगंध हेतु प्रयुक्त की जाती हैं। खस का इस्तेमाल सिर्फ ठंडक के लिए नहीं होता, अपितु आयुर्वेद जैसी परंपरागत चिकित्सा प्रणालियों में औषधि के रूप में भी होता है। यह जलन को शांत करने और त्वचा संबंधी विकारों को दूर करने में प्रभावी होता है।
खस की खेती के लिए अनुकूल वातावरण
खस की अच्छी पैदावार लेने के लिए शीतोष्ण एवं समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती है। यह 15 डिग्री सेल्सियस से 55 डिग्री सेल्सियस तापमान को सहन कर सकती है। इसकी जड़ों की वृद्धि एवं विकास के लिए 25 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है एवं 5 डिग्री सेल्सियस से नीचे इसकी जड़ों का विकास रुक जाता है। अत्यधिक ठंडी परिस्थितियों में इसके तने सुषुप्तावस्था में बैंगनी रंग के हो जाते हैं या मृत हो जाते हैं। भूमिगत बढ़वार वाला हिस्सा जीवित रहता है और अनुकूल परिस्थितियाँ आते ही, इसकी स्थिति में सुधार होता है और फिर से अपनी बढ़वार प्राप्त कर लेता है। यह फसल सुखा, बाढ़, जलमग्नता के लिए सहनशील है।
खस की खेती के लिए मिट्टी कैसी होनी चाहिए?
खस की खेती उपजाऊ दोमट से लेकर अनुपजाऊ लेटराइट मृदा में भी की जा सकती है। रेतीली दोमट मृदा, जिसका पीएच मान 8.0 से 9.0 के मध्य हो में खस की खेती में की जा सकती है। जहाँ वर्षा के दिनों में कुछ समय के लिए पानी इकट्ठा हो जाता है। एसी स्थिति में अन्य कोई फसल लेना संभव नहीं होता है, खस की खेती एक विकल्प के रूप में की जा सकती है।
परिपक्व खस जलभराव की स्थिति में भी जीवित रहता है। यह क्षारीय मृदा, जिसका पी-एच मान 8.5 से 10 हो, में भी उगाया जा सकता है। वेटिवर प्रदूषित पानी में घुलित भारी धातुओं को भी अवशोषित करता है एवं आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, निकल, सीसा, पारा, सेलनियम और जस्ता को भी सहन कर सकता है। भारी एवं मध्यम श्रेणी की मृदा, जिसमें पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में हो एवं जलस्तर उंचा हो, इसकी सफलतापुर्वक खेती की जा सकती है। बलुई एवं बलुई दोमट मृदा में जड़ों की खुदाई पर अपेक्षाकृत कम खर्च आता है तथा जड़ें लम्बी गहराई तक जाती है।
खस की खेती के लिए खेत की तैयारी कैसे करें
खस की खेती के लिए भूमि की कोई विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं पड़ती है। रोपण से पहले खेत को भलीभांति तैयार करना अति आवश्यक होता है। इसके लिए खेत को 2 से 3 बार जोता जाता है एवं सभी खूंटी और घास की जड़ों को हटा देना चाहिए। आखिरी जुताई के समय सड़ी हुई गोबर की खाद को 10 से 15 टन हेक्टेयर की दर से भलीभांति मृदा में मिला देना चाहिए।
खस की उन्नत किस्में
खस की उन्नत किस्में सीएसआईआर-सीमैप, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है। इनमें मुख्य प्रजातियाँ धारिणी, खुसनालिका, केएस-1, केशरी, गुलाबी, सिम-वृद्धि, सीमैप खस-15, सीमैप खस-22 और सिम-समृद्धि हैं। ये प्रजातियाँ व्यावसायिक खेती में अपनी विभिन्न सुगंधों के कारण उपयोग में लाई जाती है। इन प्रजातियों में अन्य प्रजातियों की तुलना में जड़ों का उत्पादन एवं तेल की मात्रा अधिक पाई जाती है।
सिम-समृद्धि, सीमैप, लखनऊ द्वारा एक नई किस्म विकसित की गई किस्म है, इसे सिम-समृद्धि कहा जाता है। इसमें प्रमुख सुगंध तत्व खुसीलाल 30 प्रतिशत से अधिक और खुसोल 19 प्रतिशत से अधिक शामिल है। इस किस्म में 20 प्रतिशत से अधिक तेल उपज देने की क्षमता है। इसके अलावा इस किस्म को अनुपयोगी या कम उपयोग वाली मृदा में भी उगाया जा सकता है।
खस की रोपाई कैसे करें?
खस का प्रवर्धन बीज तथा स्लिप्स द्वारा किया जा सकता है। सामान्यत: व्यावसायिक खस का प्रवर्धन स्लिप के माध्यम से किया जाता है। स्लिप्स तैयार करने के लिए एक वर्ष पुराने पौधे अथवा पुरानी फसल के गुच्छे निकालकर उसमें से एक-एक कलम अलग कर ली जाती है। इन कलमों को स्लिप्स कहते हैं। स्लिप्स को तैयार करते समय हरी पत्तियों को काटकर अलग कर देना चाहिए। इसके साथ ही नीचे की सुखी पत्तियों को एवं लम्बी जड़ों को काटकर अलग कर देना चाहिए। इनकी लम्बाई 15 से 20 सें.मी. रखनी चाहिए। खेत तैयार होने के तुरंत बाद रोपाई प्रारंभ कर देनी चाहिए। अधिक तेल का उत्पादन प्राप्त करने के लिए दक्षिण भारतीय परिस्थितियों में सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था होने पर जनवरी से अप्रैल तक रोपाई की जा सकती है।
रोपाई के तुरंत बाद सिंचाई अति आवश्यक है। असिंचित दशा में रोपण के लिए सबसे उपयुक्त समय मानसून के शुरुआत (जून से अगस्त) का होता है। स्लिप्स को 8 से 10 सें.मी. की गहराई पर 60 सें.मी. पंक्ति की दुरी एवं 45 सें.मी. पौधे से पौधे की दुरी पर रोपाई किया जाता है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल की रोपाई के लिए 50,000 से 75,000 स्लिप्स पर्याप्त रहती है।
खस की खेती के लिए सिंचाई और खाद
खस के पौधों को सामान्यत: अधिक पानी की आवश्यकता नहीं पड़ती है, हालांकि शुष्क क्षेत्रों में अधिक उपज प्राप्त करने के लिए 6 से 8 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ वर्षा अच्छी होती है एवं वर्षभर नमी बनी रहती है, सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। खस की जड़ों का फैलाव अधिक होने के कारण यह फसल अधिक मात्रा में पोषक तत्व मृदा से लेती है, इसलिए खाद एवं उर्वरक का उपयोग करने से तेल की उपज में वृद्धि होती है।
खस की फसल में 120 किलोग्राम नाईट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष डालना चाहिए। खेती की तैयारी के समय फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी खुराक दी जाती है। बेहतर परिणाम के लिए 3 महीने के अंतराल में नाईट्रोजन की पूरी खुराक दो बराबर भागों में दी जाती है।
खस की फसल में खरपतवार नियंत्रण
खस की रोपाई के बाद खरपतवार-फसल प्रतिस्पर्धा के तहत 35-40 दिनों में खरपतवारों का नियंत्रण किया जाना चाहिए। खस का पौधा खेत में एक बार अच्छी तरह स्थापित हो गया, तो फिर खेत में खरपतवारों की बढ़वार नहीं हो पाती है। खरपतवारों को समाप्त करने के लिए 2-3 निराई –गुडाई की आवश्यकता होती है। इससे प्रकाश, नमी और पोषक तत्वों के लिए फसल के पौधों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं हो पाती है और उपज में वृद्धि होती है।
ख़ास की फसल में कीट रोगों का नियंत्रण
खस की फसल पर रोगों एवं कीटों का प्रकोप कम देखा गया है। खस की फसल पर कुछ कीटों एवं रोगों का संक्रमण बरसात के मौसम में देखने को मिलता है। इसकी फसल में कभी-कभी लीफ-स्पॉट एवं फ्यूजेरियम का आक्रमण देखने को मिलता है। इस प्रकार के रोगों से बहुत कम मात्रा में नुकसान होता है। कुछ कीट जैसे दीमक एवं स्केट का प्रकोप रोपाई के तुरन्त बाद दिखाई पड़ता है। इनकी रोकथाम के लिए मेलाथियाँन (0.2 प्रतिशत) का छिड़काव करना चाहिए। दीमक की रोकथाम के लिए 500-600 मि.ली. हेक्टेयर क्लोरोपायरिफाँस का सिंचाई के पानी के साथ छिड़काव करने पर इन कीटों के प्रकोप पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
खस की जड़ों से प्राप्त तेल
आसुत तेल में 20 ग्राम/लीटर की दर से सोडियम सल्फेट या साधारण नमक डालकर इसमें अतिरिक्त नमी को हटाते हैं। संग्रहीत जड़ों से प्राप्त तेल, ताजा कटी हुई जड़ों से प्राप्त तेल की तुलना में अधिक चिपचिपा और बेहतर सुगंध वाला होता है। इसकी ताजा जड़ों को आसवन के लिए कम समय की आवश्यकता होती है और ये अधिक तेल उपज देती है। इसके सुगन्धित तेल में नमी, हवा और सूर्य के प्रकाश का तेल की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके लिए तेल को स्टील या एल्युमिनियम के हवा बंद पात्र में एकत्र करके किसी छायादार स्थान पर सामान्य तापमान पर रखना चाहिए तथा तेल को जिस कंटेनर में रखा जाए वह स्वच्छ और जंग से मुक्त होना चाहिए।
खस के सुगंधित तेल की रासायनिक संरचना सबसे संयुक्त है। इसके सुगंधित तेल में 50 से भी अधिक रासायनिक घटक पाए जाते हैं। इनमें मुख्य रासायनिक घटक बेन्जोइक एसिड, वेटिविरोल, फुरफुरल और वीटोवोन हैं। खस के तेल की गुणवत्ता का निर्धारण भौतिक- रासायनिक गुणों व रूपरेखा के माध्यम से किया जाता है।
खस की जड़ों की खुदाई कैसे करें?
जड़ों की खुदाई, रोपाई के 12-14 माह में करते हैं। जड़ों की खुदाई प्रारंभ करने से पहले पौधे के जमीन से 35-40 सें.मी. ऊपरी भाग को काट दिया जाता है। जड़ों की खुदाई का सर्वोत्तम समय दिसम्बर होता है। इस समय पर तेल की मात्रा जड़ों में अधिक पाई जाती है। जिन स्थानों पर ठण्ड अधिक होती है वहां पर जड़ों की खुदाई फरवरी में करना उचित रहता है। जड़ों की खुदाई करते समय खेत में हल्की नमी रहने से खुदाई में आसानी होती है। जड़ों की खुदाई ट्रैक्टर द्वारा मृदा पलटने वाले हल से 40-45 सें.मी. गहराई तक सुविधापूर्वक की जा सकती है।
खस की खेती से कितनी आमदनी होती है?
जड़ की उपज 15-20 क्विंटल/हेक्टेयर एवं तेल 20-25 किलोग्राम/हेक्टेयर प्राप्त हो जाता है। इसमें तेल का उत्पादन 0.2 से 0.5 प्रतिशत तक मिलता है। यह प्रजाति, जड़ की आयु, आसवन की अवधि एवं आसवन विधि पर निर्भर करता है। इस फसल से लगभग 1,50,000 से 1,80,000 रुपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
सामान्यतः उपजाऊ दोमट व बलुई दोमट मिट्टी में 35-40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर जड़ का उत्पादन होता है जिससे 20 से 30 किलोग्राम तेल प्राप्त किया जा सकता है। मध्यम उपजाऊ बलुई मिट्टी में 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर जड़ का उत्पादन होता है जिससे 15 से 25 किलोग्राम तेल प्राप्त किया जा सकता है। बलुई मिट्टी में इससे 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर जड़ का उत्पादन होता है जिससे 6 से 10 किलोग्राम तेल प्राप्त किया जा सकता है। जलमग्न मिट्टी में 9 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर जड़ का उत्पादन होता है जिससे 4 से 8 किलोग्राम तेल प्राप्त किया जा सकता है।
आसवन एवं तेल का भण्डारण
जड़ों की खुदाई के तुरंत बाद अथवा 1-2 महीने रखने के बाद भी तेल निकला जा सकता है। आसवन से पहले इसकी जड़ों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लेना चाहिए। इसके बाद आसवन (तेल निकालने की विधि) से पहले 1-2 दिनों के लिए छाया में सुखा लिया जाता है। सुखाने के बाद हाईड्रो या भाप आसवन विधि के माध्यम से जड़ों से तेल निकाला जाता है। उत्तरी भारत किस्मों में आसवन की प्रक्रिया 12-14 घंटों में पूरी होती है, जबकि दक्षिण भारतीय किस्मों में 72-96 घंटे की लंबी अवधि की आवश्यकता होती है। इसमें कम वाष्पशील तेल और उच्च क्वथानांक होते हैं। आसवन पूरा होने के बाद इसे दुसरे बर्तन में डालकर छान लेते हैं।