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मंगलवार, अप्रैल 23, 2024
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औषधीय फसल गुग्गल Commiphora wightii की खेती किसान इस तरह से करें

गुग्गल Commiphora wightii की खेती

औषधीय एवं सुगंधित पौधे मानव सभ्यता से जुड़े हुये हैं और भविष्य के लिए मूल्यवान धरोहर हैं | अनेक कारणों से इन पौधों को वर्तमान में उपयोग करते हुये भविष्य के लिए सुरक्षित रखना भी अत्यन्त आवश्यक है | भारत में गुग्गल प्राकृतिक रूप से ज्यादातर शुष्क क्षेत्रों में पाया जाता है | यहाँ इसकी कई प्रजातियाँ उपलब्ध है | मुख्य रूप से कमीफोरा विग्टी और सी स्टाकसियाना राजस्थान एवं गुजरात के शुष्क क्षेत्रों में पाये जाते हैं तथा सी. बेरयी, सी. एगेलोचा. सी. मिर्रा सी. कडेटा और सी जमेरमानी नामक प्रजातियों के वितरण का प्रमाण भारत के अन्य राज्यों में भी मिलता है | इसका उदगम स्थल अफ्रीका तथा एशिया मन जाता है | भारत में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं कर्नाटक में भी पाया जाता है |

  1. गुग्गल के औषधीय गुण
  2. भूमि का चयन 
  3. उन्नत किस्में 
  4. प्रवर्धन 
  5. रोपाई कैसे करें
  6. जीवन चक्र 
  7. कीट नियंत्रण 
  8. गोंद निकालना 

वानस्पतिक वितरण

गुग्गल का वानस्पतिक नाम कमीफोरा विग्टी है तथा यह बरसरेसी परिवार का एक सदस्य है | यह एक से तिन मीटर ऊँचा, झाड़ीनुमा पौधा है जिसकी शाखाएँ कंटीली होती है | इसके तने से राख रंग के बाहरी छल से खुदरी पपड़ियाँ निकलती है तथा फूल भूरे लाल रंग और फल मांसल लंबगोल (डूप) होते हैं जो पकने पर लाल हो जाते हैं | सामन्यत: इसका गुणसूत्र 2n = 26 होता है |

औषधीय गुण

गुग्गल एक बहुउपयोगी पौधा है, जिससे निकलने वाले गोंद का इस्तेमाल एलोपैथी, यूनानी तथा आयुर्वेदिक दवाओं में किया जाता है | इसके गोंद के रासायनिक तथा क्रियाकारक तत्व , संधिवात, मोटापा दूर करने, तंत्रिकीय असंतुलन, रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा एवं कुछ अन्य व्यदियों के उपचार में अत्यधिक प्रभावकारी पाये गये हैं | गुग्गल के लोबान का धुआं क्षय रोग में हितकारी पाया गया है |

जलवायु

गुग्गल एक उष्ण कटिबन्धीय पौधा है | गर्म तथा शुष्क जलवायु इसके लिए उत्तम पायी गयी है | सर्दियों के मौसम में जब तापमान कम हो जाता है तो पौधा सुषुप्तावस्था में पहुंच जाता है और वानस्पतिक वृद्धि कम हो जाती है | इसकी फसल गुजरात, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश में की जा सकती है | प्राकृतिक रूप में यह पहाड़ी एवं ढालू भूमि में उगता है | उन क्षेत्रों में जहाँ वार्षिक वर्षा 10 से 90 से.मी. तक होती है तथा पानी का जमाव नहीं होता है , इसकी बढवार अच्छी पायी गयी है | इसमें 40 से 45 डिग्री सेल्सियस की गर्मी से 3 डिग्री सेल्सियस तक की ठंड सहन करने की क्षमता होती है | बिहार में रोहतास, गया, औरंगाबाद, बांका, नवादा जिलों में प्रयोगात्मक टूर पर खेती किया जा सकता है |

भूमि का चयन

यह समस्याग्रस्त भूमि जैसे लवणीय एवं सुखी रहने वाली भूमि में सुगमता से उगाया जा सकता है | दुमट व बलुई दुमट भूमि जिसका पी.एच. मान 7.5 से – 9.0 के बीच हो, इसकी खेती के लिए उपयुक्त पायी गयी है | इसे समुचित जल निकास वाली कलि मिट्टियाँ में भी सुगमता पूर्वक उगाया जा सकता है | भूमि में पानी का निकास काफी अच्छा होना चाहिए | वैसे पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी खेती के लिए अधिक धूप वाली ढलान भूमि का चुनाव करना चाहिए | क्षारीय जल, जिसका पी.एच. मान 8.5 तक होता है, के प्रयोग से भी पौधों की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता |

गुग्गल की किस्में

इसमें प्रजातियों के विकास पर ज्यादा कार्य नहीं हुआ है, लेकिन हाल में “मरुसुधा” नामक किस्म को केंद्रीय औषधीय एवं सुगंधीय संस्थान, लखनऊ ने विकास किया गया है, जो गुग्गल गोंद की अधिक पैदावार देती है

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प्रवर्धन

इसका प्रबंधन बीज तथा वानस्पतिक , दोनों विधियों से कि जा सकती है | चूंकि बीज द्वारा उगाये गये पौधों की बढवार कम होती है और उसमें विविधता पाई जाती है, इसलिए वानस्पतिक प्रवर्धन को प्रोत्साहित किया जाता है | प्राकृतिक रूप से बीज ही प्रवर्धन होता है तथा जुलाई से सितम्बर के दौरान फलित बीजों का अंकुरण अच्छा पाया जाता है |

वंसपतिक प्रबंधन के लिए कटिंग, लेयरिंग (गुटी) तथा विनियर ग्राफ्टिंग किया जा सकता है | कटिंग को स्वस्थ पौधों से मई से जुलाई के बीच लेना चाहिए | मुख्यत: 20 से 25 से.मी. लंबी तथा 1.0 से 1.5 से.मी. व्यास वाली कटिंग द्वारा पौधे सुगमतापूर्वक तैयार किये जा सकते हैं | प्रयोगों से पाया गया है कि यदि कटिंग के निचले भाग को 100 पी.पी. एम. आई.बी.ए. के घोल में 14 से 16 घण्टों तक डुबोकर रखने के पश्चात् लगाया जाए तो सफलता अधिक मिलती है |

कटिंग को पालीथीन बैग में भी तैयार किया जा सकता है | इसके लिए मिटटी और बालू के समान अनुपात (1:1) का मिश्रण उपयुक्त पाया गया है | मातृ पौधे से लिए गए कटिंग को छ्या में रखकर दास दिन के पश्चात् भी प्रयोग में लाया जा सकता है | कटिंग को 8 से 10 से.मी. ऊँची क्यारियों (1 गुणा 1 मी.) में 15 गुणा 8 से.मी. की दुरी पर लगाना चाहिए और नियमित रूप से सिंचाई करते रहना चाहिए | क्यारियों से पानी का निकास अच्छा होना आवश्यक है |

पौधों की रोपाई

सामन्यत: पौधों को 3 × 3 मीटर की दुरी पर 30×30 ×30 से.मी. के गड्ढ़े तैयार कर लेने चाहिए और 3 से 5 किलोग्राम पूर्ण रूप से साड़ी हुई गोबर की खाद को मिटटी के साथ मिलाकर 5 से.मी. की ऊँचाई तक गड्ढ़ों भर देना चाहिए | यदि प्रक्रिया 15 जून से पहले पुर्न कर लेनी चाहिए | वर्षा होने के पश्चात् जुलाई के महीने में पौधों की रोपाई करनी चाहिए |

पौधों की देखभाल

पौधे लगाने के प्रथम वर्ष में ज्यादा देखभाल की आवश्यकता पड़ती है | पौधों के आसपास की घास को नियमित रूप से निकालते रहना चाहिए और आवश्यकतानुसार एक यादों सिंचाई कानी चाहिए | पौधों का इस प्रकार से कृंतन करें की एक से दो शाखाएँ ऊपर की तरफ बढे और अन्य छोटी शाखाओं को काट लेना चाहिए जिससे इनका उचित विकास होता है | प्रति वर्ष अक्तूबर – नवम्बर में पंक्तियों के बीच के खरपतवार को निकलते रहना चाहिए | ज्यादा खरपतवार कटुवा कीट प्रकोप में सहायक होता है |

जीवन चक्र

कटुवा कीट का व्यस्क शुलभ होता है, जो धूसर रंग का और 40 से 45 मि.मी. लम्बा होता है | इसके अगले पंखों पर गुर्दे के आकार के दो धब्बे पाये जाते हैं | पश्च पंख का बाहरी किनारा काला होता है | इस कीट का व्यस्क रात्रिचर होता है | मादा कीट रात्रि के समय उडान भरकर मैथुन करती है तथा मैथुन के 2 – 3 दिन पश्चात् रात्रि के समय मृदा या पत्तियों की निचली स्थ पर 4 – 7 अंडे देती है | मादा कीट गुच्छों में अंडे देती है | ये अंडें 4 – 7 दिन में फट जाते है तथा अण्डों से लगभग 15 से.मी. लम्बी सुंडी निकलती है | अंडे से निकलने के पश्चात् यह भूमि पर गिरी पत्तियों को या जमीन को स्पर्श करती हुई पत्तियों को खाती है |

इस कीट की सुंडी पांच बार निर्मोचन करके पुर्न विकसित होती है | पूर्ण विकसित सुंडी 400 से 450 मि.मी. लम्बी तथा मटमैले रंग की होती है | पुर्न रूप से विकसित सुंडियां मृदा में जाकर 50 से 70 से.मी. की गहराई पर कुकून बनाकर प्यूपा में परिवर्तित हो जाती हैं | प्यूपा काल 8 से 12 दिन में पुर्न हो जाता है | इस कीट का जीवन चक्र पूरा होने में लगभग 35 से 52 दिन लग जाते हैं |

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गुग्गल में कीट एवं उनका नियंत्रण 

कटुवा कीट एक बहुमुखी कीट है तथा इसकी सुंडियां दिन में मृदा के अंदर रहती है तथा रात्रि में पौधों के तनों, शाखाओं तथा मृदा के अंदर आले के कंदों को क्षती पहुँचती है | अत: इस कीट के नियंत्रण के लिए समेकित कीट प्रबंधन को अपनाना आवश्यक है |

समेकित कीट प्रबंधन में निम्न तरीकों को अपनाकर इस कीट के प्रकोप को कम किया जा सकता है |

  1. प्रकाश जाल: इस कीट की रोकथाम के लिये प्रकाश जाल का प्रयोग करना चाहिए | इस कीट का व्यस्क रात्रिचर होता है तथा प्रकाश के ऊपर बड़ी संख्या में आकर्षित होता है | इस कीट को मार्च से सितम्बर तक प्रकाश जाल पर एकत्रित करके नष्ट किया जा सकता है |
  2. बुआई के समय में फेर – बदल : यदि बेमौसमी सब्जियों के पौधों की रोपाई अप्रैल से पहले मार्च के अंतिम सप्ताह तक कर डी जाये तो इस कीट का प्रकोप होने तक पौधों की बढवार अच्छी हो जाती है, जिससे इस कीट की सुंडियां पौधों के तनों को काट नहीं सकती है |
  3. सब्जी के खेतों में जगह – जगह घास के छोटे – छोटे ढेर लगा देने चाहिए , जिससे सुंडियां खाने के पश्चात् इन ढेरों में पहुँच जाती है | इनको पकड़कर नष्ट कर देना चाहिए |
  4. एपेन्टेलिस प्रजाति तथा ग्रीन मसकरडाइन रोग इस कीट के प्राकृतिक शत्रु है |
  5. जैविक कीटनाशी का प्रयोग : बी.टी. (बैसिलस थूरिन्जिएन्सिस) नामक जैविक कीटनाशी, जो बाजार में डाइपेल, डोलफिन, बायोलेप, बायोस्प आदि नामों से प्रचलित है, का 1.0 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर (20 ग्राम / नाली) की दर से पौधें की रोपाई के पश्चात् छिड़काव करना चाहिए |
  6. रासायनिक विधि द्वारा : क्लोरपाईरीफास नामक कीटनाशी की 2.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए | प्रथम छिड़काव पौधे की रोपाई के 2 – 3 माह तथा दिवतीय छिड़काव एक सप्ताह बाद करना चाहिए |

गुग्गल से गोंद निकलना 

सामन्यत: 6 से 8 वर्ष झाड़ियाँ गोंद निकालने हेतु तैयार हो जाती है | झाड़ियों के तने पर चीरा दिसम्बर से फरवरी में लगाना चाहिए | चीरा लगते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि चीरा बाहरी छल की मोटाई से ज्यादा न हो | गोंद पीले रंग के गधे द्रव्य के रूप में बाहर निकलता है | चीरा लगाने के डस से पन्द्रह दिनों के बाद गोंद इकट्ठा कर लेना चाहिए | गोंद इकट्ठा करते समय सफाई पर विशेष ध्यान रखना चाहिए , जिससे बालू या मिटटी गोंद के साथ मिश्रित न हो सके |

6 से 8 साल पुरानी झाड़ियों से औसतन 300 से 400 ग्राम प्राप्त होता है जिसकी बाजार में वर्तमान दर 500 से 600 रूपये प्रति किलोग्राम तक है | राज्य के दक्षिणी भाग के वैसे किसान जिनकी ऊँची जमीन बेकार बंजर पड़ी हो वे प्रयोगात्मक टूर पर गुग्गुल की खेती कर सकते हैं | परिणाम प्राप्ति में लगभग छ: वर्ष लगेंगे |

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