इस तरह रामतिल की उन्नत वैज्ञानिक खेती से पैदावार बढायें

रामतिल की खेती

रामतिल एक तिल की ही प्रजाति है जिसका मुख्य उपयोग तेल बनाने के लिए किया जाता है | आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों की जगनी के नाम से जाने जानी वाली रामतिल एक तिलहनी फसल है। रामतिल के बीजों में 38-43 प्रतिशत तेल एवं 20 से 30 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा पायी जाती है।इसकी खेती उन सभी भूमि पर की जा सकता है जहाँ कम पानी तथा मिट्टी उपजाऊ नहीं है | यह विषम परिस्थितियों में भी अच्छी पैदावार देती है | इसके साथ ही अधिक बारिश के कारण बहाव में भी भूमि के कटाव को रोकता है |

इसकी फसल के बाद उगाई जाने वाली फसल की उपज अच्छी आती है।उन्नत तकनीक के साथ अनुशंसित कृषि कार्यमाला अपनाते हुये काश्त करने पर रामतिल की फसल से 700-800किग्रा/हे0 तक उपज प्राप्त की जा सकती जहाँ पर ऐरा प्रथा समानतय प्रचलित है वहाँ पर इसकी खेती सरलता से की जा सकती है।

रामतिल फसल लेने के लिए खेत की तैयारी 

जैसा की ऊपर बताया गया है की रामतिल की खेती किसी भी मिट्टी  में किया जा सकता है | इसलिए इसके लिए ज्यादा खेत की तैयारी करने की जरुरत नहीं होती | रामतिल की खेती पर्वतीय तथा बंजर भूमि में भी आसानी से की जा सकती है | इसकी खेती के लिए एक या दो जुताई की पड़ती है, जिससे मिट्टी  हल्की हो सके |

रामतिल की उन्नत किस्में 

किस्म का नाम
उपज क्वि./हे.
विशेषताएं

उटकमंड

6.00

  • अवधि – 105 से 110 दिन
  • तेल – 40 प्रतिशत

जे.एन.सी. – 6

5.00 से 6.00

  • अवधि – 95 से 100 दिन
  • तेल – 40 प्रतिशत
  • पत्ती धब्बे के लिए सहनशील

जे.एन.सी. – 1

6.00

  • अवधि – 95 से 102 दिन
  • तेल – 38 प्रतिशत
  • दाने का रंग काला

जे.एन.एस. – 9

5.5 से 7.0

  • 95 से 100 दिन
  • तेल – 39 प्रतिशत
  • संपूर्ण भारत हेतु उपयुक्त

जबीरसा नाईजर – 1

5.00 से 7.00

  • अवधि – 95 से 100 दिन
  • तेल – 40.7 प्रतिशत
  • गुलाबी रंग का तना एवं हल्का काले रंग का दाना पयुक्त

बीरसा नाईजर – 2

6.00 से 8.00

  • अवधि – 96 से 100 दिन
  • संपूर्ण भारत हेतु उपयुक्त

बीरसा नाईजर – 3

6.00 से 7.00

  • अवधि – 98 से 105 दिन

पूजा

6.00 से 7.00,

  • अवधि – 96 से 100 दिन
  • तेल – 39 प्रतिशत
  • संपूर्ण भारत हेतु उपयुक्त
  • दाने का रंग काला

गुजरात नाईजर – 1

7.00

  • अवधि – 95 से 100 दिन
  • तेल – 40 प्रतिशत
  • दाने का रंग काला
  • संपूण भारत हेतु उपयुक्त

एन.आर.एस. – 96 -1

4.5 से 5.5m

  • अवधि – 94 से 100 दिन
  • तेल – 39 प्रतिशत
  • दाने का रंग काला

रामतिल बीजोपचार एवं बोने का तरीका  

बोने की विधि एंव पौध अंतरण

रामतिल को बोनी कतारों में दूफन, त्रिफन या सीडड्रील द्वारा कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतारों में पौधों से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखते हुये 3 से.मी. की गहराई पर करना चाहिये। बोनी करते समय बीजों का पूरे खेत में (कतारों में) समान रूप से वितरण हो इसके लिए बीजों को बालू/कण्डे की राख/गोबर की छनी हुई खाद के साथ 1:20 के अनुपात में अच्छी तरह से मिलाकर बोना चाहिए।

बीज दर:- सामान्यत- 5 से 7 किग्रा बीज प्रति हे. की दर से बोनी हेतु आवश्यक होता है।

बीजोपचार –

फसल को बीजजनय एवं भूमिजनय रोगो से बचाने के लिए बोनी करने से पहले फफूंद नाशी दवा थायरम 3 ग्राम/किग्रा बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।

दवा उपयोग करने का तरीका – बीज को किसी पॉलीथिन शीट में समान रूप से फैला लेना चाहिये। फफूंद दनाशक दवा की अनुशंसित मात्रा को समान रूप से बीज में मिलाकर पानी से मिला देना चाहिये एवं लगभग 20-25 मिनट तक हवा लगने देना चाहिये। बीजोपचार के दौरान दस्ताने अवश्य पहनकर बीजोपचार करना चाहिये।

खाद, उर्वरक एवं पोषक तत्व प्रबंधन

जैव उर्वरक

जैव उर्वरक, जीवाणु मिश्रित होते हैं जो कि फसल को फसल हेतु आवश्यक नत्रजन तत्व को वायुमण्डल से पौधों को उपलब्ध कराते हैं तथा मृदा में स्थित अघुलनशील स्फुर तत्व को घुलनशील कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं। जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों की तुलना में अत्यन्त सस्ते होते हैं एवं इनके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों की मात्रा को कम कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

रामतिल में प्रमुख रूप से एजोटोबेक्टर एवं स्फुर घोलक जीवाणु (पी.एस.बी.) जैव उर्वरकों का प्रयोग 5-5 ग्राम/किलो बीज की दर से बीजोपचार किया जाना चाहिये। यदि किसी कारणवश जैव उर्वरकों से बीजोपचार नहीं कर पाए हो तो इस दशा में बोनी करने के पूर्व आखरी बार बखरनी करते समय 5-7 किग्रा/हे0 के मान से इन जैव उर्वरकों को 50 किग्रा/हे0 की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर पूरे खेत में समान रूप से बिखरे। इस समय खेत में पर्याप्त नमी को होना नितांत आवश्यक होता है।

जैव उर्वरकों का प्रयोग इस तरह करें

सर्वप्रथम बीजो को फफूंदनाशक दवा से बीजोपचार करना चाहिए इसके पश्चात् जैव उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा द्वारा बीजोपचार करने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते है। जैव उर्वरकों से बीजोपचार हेतु छाया वाले स्थान का चयन करना चाहिये। सर्वप्रथम पॉलिथीन शीट को छायादार स्थान में बिछाकर फफूंदनाशक दवा से उपचारित बीजो को फैला देना चाहिये तत्पश्चात् गुड़ के घोल को समान रूप से बीजों के ऊपर छिंटक देना चाहिये। इसके पश्चात् अनुशंसित जैव उर्वरकों (एजोटोबेक्टर एवं पी.एस.बी.) की मात्रा को बीजो के ऊपर समान रूप से फैलाकर हाथ से मिलादेना चाहिये तथा लगभग 20-30 मिनट तक छाया में सुखाने के बाद बोनी करना चाहिये।

पोषक तत्व प्रबंधन:-

गोबर की खाद/कम्पोस्ट की मात्रा एवं उपयोग- जमीन की उत्पाकता को बनाए रखने तथा अधिक उपज पाने के लिए भूमि की तैयारी करते समय अंतिम जुताई के पूर्व लगभग 2 से 2.5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट खेत में समान रूप से मिलाना चाहिये।

रामतिल की फसल हेतु अनुशंसित रासायनिक उर्वरक की मात्रा 40:30:20 नःफःपो किग्रा/हे0 है। जिसको निम्नानुसार देना चाहिये। 20 किलोग्राम नत्रजन + 30 किलोग्राम फास्फोरस + 20 किलोग्राम पोटाश/हेक्टेयर बोनी के समय आधार रूप में देना चाहिये। शेष नत्रजन की 10 किलोग्राम मात्रा बोने के 35 दिन बाद निंदाई करने के बाद दे। इसके पश्चात् खेत में पर्याप्त नमी होने पर 10 किग्रा नत्रजन की मात्रा फसल में फुल आते समय देना चाहिये।

समेकित उर्वरक प्रबंधन:-

रामतिल की फसल पर समेकित उर्वरक प्रबंधन पर किये गये परिक्षणों के परिणामों से यह ज्ञात हुआ है कि अनुशंसित उर्वरकों की मात्रा के साथ 2 प्रतिशत यूरिया अथवा डी.ए.पी. का पानी में घोल बनाकर खड़ी फसल में 2 बार क्रमशः फुल आते समय तथा बोंडी बनना प्रारंभ होने पर करने से अधिक उपज प्राप्त होती है।

सूक्ष्म तत्वों की उपयोगिता,मात्रा एवं प्रयोग का तरीका:- मिट्टी परीक्षण से प्राप्त नतीजों के आधार पर यदि भूमि में गंधक तत्व की कमी पायी जाती है तो 20 – 30 किलोग्राम/हेक्टेयर की दर से गंधक तत्व का प्रयोग बोनी के समय करने पर तेल के प्रतिशत एवं उपज में बढ़ोतरी होती है।

रामतिल की फसल में सिंचाई 

खेती खरीब के मौसम में पूर्णतः वर्षा आधारित की जाती है। वर्षाकाल में लम्बे समय तक वर्षा नहीं होने की स्थिति में अथवा सूखे की स्थिति निर्मित होने पर भूमि में नमी का स्तर कम होता है। भूमि में कम नमी की दशा का फसल की उत्पादकता पर विपरित प्रभाव पड़ता है। यदि फसल वृद्धि के दौरान इस तरह की स्थिति निर्मित होती है तो सिंचाई के साधन उपलब्ध होने पर सिंचाई करने से फसल से अच्छी उपज प्राप्त होती है।

रामतिल फसल में खरपतवार एवं निंदाई-गुड़ाई 

किसान खरपतवारों को अपनी फसलों में विभिन्न विधियों जैसे कर्षण, यांत्रिकी, रसायनों तथा जैविक विधि आदि का प्रयाग करके नियंत्रण कर सकते हैं लेकिन पारंपरिक विधियों के द्वारा खरपतवार नियंत्रण करने पर लागत तथा समय अधिक लगता है। इसलिए रसायनों द्वारा खरपतवार जल्दी व प्रभावशाली ढंग से नियंत्रित किये जाते है और यह विधि आर्थिक दृष्टि से लाभकारी भी है। रासायनिक नींदा नियंत्रण के लिये ’’पेन्डीमेथालिन’’ 1.0 किलोग्राम सक्रिय घटक/हेक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में बोनी के तुरंत बाद किन्तु अंकुरण के पूर्व छिड़काव करें।

अमरबेल का प्रबंधन

अमरबेल तना परजीवी पौधा है जो फसलों या वृक्षों पर अवांछित रूप से उगकर हानि पहुँचाता है। इस खरपतवार को रामतिल, सोयाबीन, प्याज, अरहर, तिल, झाड़ियों, शोभाकार पौधों एवं वृक्षों पर भी देखा जा सकता है। अमरबेल परजीवी पौधे में उगने के 25-30 दिन बाद सफेद अथवा हल्के पीले रंग के पुष्प गुच्छे में निकलते हैं। प्रत्येक पुष्प गुच्छ में 15-20 फल तथा प्रत्येक फल में 2-3 बीज बनते है। अमरबेल के बीज अत्यंत छोटे होते है जिनके 1000 बीजों का वजन लगभग 0.70-0.80 ग्राम होता है। बीजों का रंग भूरा अथवा हल्का पीला (बरसीम एवं लूसर्न के बीजों की जैसा) होता है। अमर बेल के एक पौधे से लगभग 50,000 से 1,00,000 तक बीज पैदा होते है। पकने के बाद बीज मिट्टी में गिरकर काफी सालों तक (10-20 साल तक) सुरक्षित पड़े रहते है तथा उचित वातावरण एवं नमी मिलने पर पुनः अंकुरित होकर फसल को नुकसान पहुँचाते है।

अमरबेल के संभावित क्षति

रामतिल में अमरबेल का एक पौधा प्रति 4 वर्गमीटर में होने पर 60-65 प्रतिशत से अधिक नुकसान पहुँचाता है। अमरबेल के प्रकोप से अन्य फसलों जैसे उड़द, मूंग में 30-35 प्रतिशत तथा लूसर्न में 60-70 प्रतिशत औसत पैदावार में कमी दर्ज की गई है।

नियंत्रण की विधियाँ

अमरबेल के बीज देखने में लूसर्न एवं बरसीम के बीज जैसे होते है इसीलिये इन फसलों की बुवाई से पहले ये सुनिश्चित करना चाहिए कि फसल के बीज में अमरबेल के बीज नहीं मिलें हों। बुवाई के लिये हमेशा प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करना चाहिए । प्रयोग की जाने वाली गोबर की खाद पूर्णतः सड़ी एवं खरपतवार के बीजों से मुक्त होनी चाहिए। जानवरों को खिलाये जाने वाले चारे (बरसीम/लूसर्न) में अमरबेल के बीज नहीं होना चाहिए।

यांत्रिक विधियाँ

अमरबेल से प्रभावित चारे की फसलों को जमीन की सतह से काटने पर अमरबेल का प्रकोप कम हो जाता है। अमरबेल से प्रभावित चारे की फसल को खरपतवार में फूल आने से पहले ही काट लेना चाहिए जिससे इसके बीज नहीं बन पाते है तथा अगली फसल में इसकी समस्या कम हो जाती है। अमरबेल उगने के बाद परन्तु फसल में लपेटने से पहले (बुवाई के एक सप्ताह के अंदर) खेत में हैरो चलाकर इस खरपतवार को नष्ट किया जा सकता है। यदि अमरबेल का प्रकोप खेत में थोड़ी-थोड़ी जगह में हो तो उसे उखाड़कर इकट्ठा करके जला देना चाहिए।

फसल चक्र द्वारा

घास कुल की फसलें जैसे गेहूँ, धान, मक्का, ज्चार, बाजरा आदि में अमरबेल का प्रकोप नहीं होता है। अतः प्रभावित क्षेत्रों में फसल चक्र में इन फसलों को लेने से अमरबेल का बीज अंकुरित तो होगा परन्तु एक सप्ताह के अंदर ही सुखकर मर जाता है फलस्वरूप जमीन में अमरबेल के बीजों की संख्या में काफी कमी आ जाती है।

रासायनिक विधियाँ

विभिन्न दलहनी (चना, मसूर, उड़द, मूंग) तिलहनी (रामतिल, अलसी) एंव चारे (बरसीम, लूसर्न) की फसलों में पेन्डीमेथालिन 30 प्रतिशत (ईसी) स्टाम्प नामक शाकनाशी रसायन को 1.0 किग्रा व्यापारिक मात्रा प्रति एकड़ की दर से बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व छिड़काव करने से अमरबेल का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है। नये रसायन पेन्डीमेथालिन (स्टाम्प एक्स्ट्रा) 38.7 प्रतिशत (सीएस) 700 ग्राम प्रति एकड़ की व्यापारिक मात्रा का प्रयोग अमरबेल नियंत्रण पर काफी प्रभावी पाया गया है। इन रसायनों की उपरोक्त मात्रा को 150 लीटर पानी में घोल बनाकर ’’फ्लैटफैन’’ नोजल लगे हुये स्पे्रयर द्वारा समान रूप से प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए।

छिड़काव के समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। इस शाकनाशी के प्रयोग से अमरबेल के साथ-साथ दूसरे खरपतवार भी नष्ट हो जाते है। यदि अमरबेल का प्रकोप पूरे खेत में न होकर थोड़ी-थोड़ी जगह पर हो तो इसके लिए ’’पैराक्वाट’’ अथवा ’’ग्लायफोसेट’’ नामक शाकनाशी रसायन का 1 प्रतिशत घोल बनाकर प्रभावित स्थानों पर छिड़काव करने से अमरबेल पूरी तरह नष्ट हो जाता है।

रामतिल फसल में लगने वाले रोग एवं उनका उपचार 

रोग प्रबंधन की विधियाँ :-

फसल में रोग का प्रबंधन करने के लिए बुवाई से पहले ही कुछ सावधानियां एवं कार्य करना चाहिए| जिससे रोग से बचा जा सके |

  • गर्मी में गहरी जुताई करें |
  • अच्छी साड़ी हुई गोबर खाद, नीम खली या महा की खेती की खली 500 किलोग्राम / हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें |
  • प्रतिरोधी किस्मों जैसे जे.एन.सी.-1 या जे.एन.सी.-6 का बोनी हेतु प्रयोग करें।
  •  दलहनी फसलों का 3 वर्षों का फसल चक्र अपनायें।
  • ट्राइकोडर्मा बिरडी या ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें।
  • अंतर्वतीय खेती के रूप में मूंग, उड़द या कोदो के साथ बोनी करें |

फसल में रोग प्रबंधन के लिए रासायनिक दवा का उपयोग कर सकते हैं | जिससे फसल को बचाया जा सकता है तथा उत्पादन को बह्द्य जाता है |

सरकोस्पोरा पर्णदाग 

इस रोग में पत्तियों पर छोटे धूसर से भूरे धब्बे बनते हैं जिसके मिलने पर रोग पूरी पत्ती पर फैल जाता है तथा पत्ती गिर जाती है |

रोकथाम :- इस रोग की रोकथाम के लिए हेक्साकोनाजोल 5 प्रतिशत ई.सी. की 2 मिलि लीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें | इस दवा का प्रयोग लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए |

आल्टरनेरिया पत्ती घब्बा 

इस रोग में पत्तीयों पर भूरे, अंडाकार, गोलाकार एवं अनियंत्रित वलयाकार धब्बे दिखते हैं |

रोकथाम :- इस रोग की रोकथाम के लिए जीनेब दवा का प्रयोग 0.2% दवा का छिड़काव रोग आने पर 15 दिन के अंतराल से करें | लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए |

जड़ सड़न :-

इस रोग की पहचान तना आधार एवं जड़ का छिलका हटाने पर फफूंद  के स्क्लेरोशियम होने के कारण कोयले के समान कालापन होता है |

रोकथाम :– इस रोग की रोकथाम के लिए कापर आक्सीक्लोराइड की 1 किग्रा/हे. की दर से छिड़काव लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए।

भभूतिया रोग (चूर्णी फफूंद) 

इस रोग की पहचान यह की पत्तियों एंव तनों पर सफेद चूर्ण दिखता है |

रोकथाम :-  इस रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक की 0.2 प्रतिशत का फुहारा पद्धति से फसल पर लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आवश्यकता अनुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए |

रामतिल फसल में लगने वाले कीट और उनका नियंत्रण 

रोग की तरह ही कीट से फसल को काफी नुकसान पहुँचता है | कभी – कभी तो पूरी फसल का ही नुकसान हो जाता है | कीट की रोकथाम के लिए जरुरी है की कीट की पहचान सही तरीके से हो सके | रामतिल में कुछ महत्वपूर्ण कीट लगते हैं जिसकी रोकथाम इस तरह कर सकते हैं |

 रामतिल की इल्ली

इस इल्ली की पहचान यह है कि यह हरे रंग की होती है जिस पर जामुनी रंग की धारियाँ रहती है | पत्तीयाँ खाकर पौधे की प्रारंभिक अवस्था में ही पत्तीरहित कर देती हैं |

रोकथाम :- इसकी रोकथाम के लिए ट्राइजोफास 40 प्रतिशत ई.सी. को 800 मिलि. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए |

माहों कीट :-

इसकी पहचान यह है कि माहो कीट के शिशु तथा प्रौढ़ पत्तीयों तथा तने पर चिपके रहकर पौधे से रस चूसते हैं जिससे उपज में कमी आती है |

रोकथाम :- इस कीट की रोकथाम के लिए  इमीडाक्लोप्रिड की 0.3 मिलि लीटर मात्रा प्रति 1 लीटर पानी के मान से 600-700 लीटर पानी में अच्छी तरह से बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आश्यकतानुसार दुबारा छिड़कांव करें। दवा का छिड़कांव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए |