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वैज्ञानिकों की प्रेरणा से लगाए  पपीते की ताईवान किस्म के अब कमा रहें हैं लाखों

वैज्ञानिकों की प्रेरणा से लगाए  पपीते की ताईवान किस्म के अब कमा रहें हैं लाखों

कभी परंपरागत खेती से गुजारा नहीं चलने से परेशान रहा किसान प्रतापगढ जिले का थावरचंद मीणा अब लाखों में खेल रहा है। यह सब संभव हुआ है जैविक खेती के जरिए उसके द्वारा लगाए गए पपीते के बगीचे से। केवल एक बीघा में लगाए गए पौधों से वह पिछले दो सीजन में वह 3 लाख रुपए के फल बेच चुका है।

कृषि विज्ञान केन्द्र, बसाड़ के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ योगेश कनोजिया के मुताबिक, सातवीं पास थावर मीणा पहाड़ी क्षेत्र के आदिवासी बहुत गांव भांडला में रहते हैंं। पहाड़ी क्षेत्र में भूमि ऊंची-नीची व जल संसाधन सीमित होने के कारण परंपरागत खेती करने से इनका जीवन स्तर गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ रहा था क्योंकि यह कृषक सोयाबीन, मक्का, चना, सरसों आदि पर निर्भर था। ऎसे में जब उसे कृषि विज्ञान केंद्र के माध्यम से बागवानी व जैविक खेती के बारे में पता चला और साथ ही कृषि विभाग की आतमा परियोजना में मिलने वाले अनुदान की उसे जानकारी मिली, उसकी जिंदगी में सफलता के नए रास्ते खुल गए।

प्रसार वैज्ञानिक डॉ बलवीर सिहं बधाला बताते हैं कि यह किसान करीब 3 वर्ष पहले कृषि विज्ञान केन्द्र से जैविक खेती का प्रशिक्षण लेकर लगातार जैविक खेती कर रहा है। शुरू में थावर चन्द बगीचा लगाने की बात सोच कर कृषि विज्ञान केन्द्र, बसाड़ में सलाह के लिए आया था। वहां वैज्ञानिकों से मिला तो वैज्ञानिकों ने अधिक आमदनी के लिए पपीते का बगीचा लगाने के लिए प्रेरित किया। वैज्ञानिकों की सलाह को मानते हुए थावर ने पपीते का बगीचा लगाकर किस्मत आजमाने की ठान ली। थावर चन्द ने कृषि विज्ञान केन्द़ से पपीते की ताईवान किस्म के 600 पौधे खरीदे, जिस पर कृषि विभाग की आतमा योजना में उसे 4 हजार रुपए का अनुदान भी मिला। ये पौधे थावर ने अपने खेत के एक बीघा क्षेत्र में लगाए। पौधे लगाने के आठ महीने बाद फल लगने लगे और बाजार में बिकने लगे।

प्रगतिशील किसान थावर के मुताबिक वह अब तक के दो सीजन में करीब 100 क्विंटल फल बेच चुका है, जिससे उसे करीब तीन लाख रुपए मिले हैं। जैविक तरीके से की गई खेती का बेहतरीन उत्पाद होने के कारण उसे पपीते के भाव में दस रुपए प्रति किलो अधिक  मिल रहे हैं। वह कहता है कि जल्दी ही पांच बीघा अन्य क्षेत्र में वह बगीचा विकसित करेगा। उसने बताया कि उसकी सफलता को देखकर दूसरे किसान उससे तो संपर्क करने ही लगे हैं, साथ ही कृषि विज्ञान केंद्र में भी इस बारे में पूछने लगे हैं।

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