फसल चक्र अपनाने का महत्व एवं उससे होने वाले लाभ
उपजाऊ भूमि का क्षरण, जीवांश की मत्रा में कमी, भूमि से लाभदायक सूक्षम जीवों की कमी, मित्र जीवों की संख्या में कमी, हानिकारक कीट पतंगों का बढ़ाव, खरपतवार की समस्या में बढ़ोत्तरी, जलधारण क्षमता में कमी, भूमि के भौतिक, रासायनिक गुणों में परिवर्तन, क्षारीयता में बढ़ोत्तरी, भूमिगत जल का प्रदुषण, कीटनाशियों का अधिक प्रयोग तथा नाशीजीवों में उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकाश, हमारे प्रदेश की सबसे लोकप्रिय फसल उत्पादक प्रणाली धान – गेंहू मृदा – उर्वरता के टिकाऊपन के खतरे को स्पष्ट आभार कराती प्रतीत हो रही है |
आज न तो केवल उत्पाद वृद्धि रुक गयी है बल्कि एक निश्चित मात्र में उत्पादन प्राप्त करने के लिए पहले की अपेक्षा न बहुत अधिक मात्र में उर्वरकों का प्रयोग करना पड़ रहा है क्योंकि भूमि में उर्वरक क्षमता उपयोग का ह्रास बढ़ गया है | इन सब विनाशकारी अनुभवों से बचने के लिए हमें फसल चक्र, फसल सघनता, के सिद्धांतों को दृष्टिगत रखते हुए फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश जरुरी हो जायेगी क्योंकि दलहनी फसलों से एक टिकाऊ फसल उत्पादन प्रक्रिया विकसित होती है |
दलहनी फसलें
अधिक मूल्यवान फसलों के साथ चुने गये फसल चक्रों में मुख्य दलहनी फसलें, चना, मात्र, मसूर, अरहर, उर्द, मूंग, लोबिया, राजमा, आदि का समावेश जरुरी हो गया है | आदिकाल से ही मानव अपने भरन पोषण हेतु अनेक प्रकार की फसले उगाता चला आ रहा है | जो फसलें मौसम के अनुसार भिन्न – भिन्न होती है |
सभ्यता के प्रारम्भ से ही किसी खेत में एक निश्चित फसल न उगाकर फसलों को अदल – बदल कर उगाने की परम्परा चली आ रही है | फसल उत्पादन की इसी परंपरा को फसल चक्र कहते हैं अर्थात किसी निश्चित क्षेत्र पर निश्चित अवधि के लिए भूमि की उर्वरता को बनाये रखने के उद्देश्य से फसलों को अदल – बदल कर उगाने की क्रिया को फसल चक्र कहते है |
मूलभूत सिद्धांत
अथवा किसी निश्चित क्षेत्रों में एक नियत अवधि में फसलों को इस क्रम में उगाया जाना की उर्वरा शक्ति का कम से कम ह्रास हो फसल चक्र कहलाता है | फसल चक्र के निर्धारण में कुछ मूलभूत सिद्धांतों को ध्यान में रखना जरुरी होता है जैसे अधिक खाद चाहने वाली फसलों के बाद कम खाद चाहने वाली फसलों का उत्पादन अधिक पानी चाहने वाली फसल के बाद कम पानी चाहने वाली फसल |
अधिक निराई गुडाई चाहने वाली फसल के बाद निराई गुडाई चाहने वाली फसल दलहनी फसलों के बाद अहदलनी फसलों का उत्पान अधिक मात्र में पोषक तत्व शोषण करने वाली फसल के बाद खेत को परती रखना, एक ही नाशी जीवों से प्रभावित होने वाली फसलों को लगातार नहीं उगाना, फसलों का समावेश स्थानीय बाजार की मांग के अनुरूप रखना चाहिए|
फसल का समावेश जलवायु तथा किसान की आर्थिक क्षमता के अनुरूप करना चाहिए | उथली जड़ वाली फसल की बाद गहरी जड़ वाली फसल को उगाना चाहिए उत्तर प्रदेश में कुछ प्रचलित फसल चक्र इस प्रकार है जैसे परती पर आधारित फसल चक्र है परती – गेंहू, परती – आलू, परती – सरसों, परती – धान, है हरी खाद पर आधारित फसल चक्र इसमें फसल उगाने के लिए हरी खाद का प्रयोग किया जाता है |
हरी खाद का प्रयोग
जैसे हरी खाद – गेंहू, हरी खाद – धान, हरी खाद – केला, हरी खाद – आलू, हरी खाद – गन्ना, आदि दलहनी फसलों पर आधारित फसल चक्र – मूंग – गेंहू, धान – चना, कपास – मटर – गेंहू, ज्वार – चना, बाजरा – चना, मूंगफली – अरहर, मूंग – गेंहू, धान – मटर, धान – मटर – गन्ना, मूंगफली – अरहर – गन्ना, मसूर – मेंथा, मटर – मेंथा |
अन्न की फसलों पर आधारित फसल चक्र मक्का – गेंहू, धान – गेंहू, ज्वार – गेंहू, बाजरा – गेंहू, गन्ना – गेंहू, धान – गन्ना – पेडी, मक्का – जौ, धान – बरसीम, चना – गेंहू, मक्का – उर्द – गेहूं सब्जी आधारित फसल चक्र भिण्डी – मटर, पालक – टमाटर, फूलगोभी + मूली – बंदगोभी + मूली, बैंगन + लौकी, टिंडा – आलू – मूली, करेला, भिण्डी – मूली – गोभी – तरोई, घुईया – शलजम – भिण्डी – गाजर, धान – आलू – टमाटर, धान – लहसुन – मिर्च, धान – आलू + लौकी इत्यादि है |
किसी खेत में लगातार एक ही फसल उगाने के कारण कम उपज प्राप्त होती है तथा भूमि की उर्वरता खराब होती है | फसल चक्र से मृदा उर्वरता बढ़ती है, भूमि में कार्बन – नाइट्रोजन के अनुपात में वृद्धि होती है | भूमि के पी.एच. तथा क्षारीयता में सुधार होता है | भूमि की संरचना में सुधार होता है | मृदा क्षरण की रोक थाम होती है |
फसलों का बिमारियों से बचाव होता है, कीटों का नियंत्रण होता है, खरपतवारों की रोकथाम होती है,, वर्ष भर आय प्राप्त होती रहती है, भूमि में विषाक्त पदार्थ एकत्र नहीं होने पते हैं | उर्वरक अवशेषों का पूर्ण उपयोग हो जाता है सीमित सिंचाई सुविधा का समुचित उपयोग हो जाता है |
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